अशोक गहलोत का ग़ुस्सा जायज़ है। लोकतंत्र में राजनीति करने वालों का मिलना भी क्या अपराध होता है? फिर पुलिस और ख़ुफ़िया ब्यूरो से इसकी जासूसी क्यों, कि राहुल गांधी, अशोक गहलोत, हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी आदि किससे मिल-मिला रहे हैं?
जासूसी का धंधा गुजरात में नया नहीं। पर भाजपा को इतने ख़र्च, केंद्र के ख़ज़ाने से निकली योजनाओं, जीएसटी की पलटी, नेताओं-कार्यकर्ताओं की फ़ौज़, प्रचार, कृतज्ञ मीडिया के सहयोग, चुनाव आयोग के समर्पण आदि के बाद आख़िर डर किस बात का है?
कहना न होगा भाजपा किसी अज्ञात भय से सहमी हुई है। हालाँकि कांग्रेस वहाँ मज़बूत विकल्प नहीं बन पाई है तो वजह पार्टी की अपनी कार्यशैली है। चुनाव आने पर ही उसमें जाग आती है। जबकि तैयारी पाँच साल चलनी चाहिए। अभी तो आलम यह है कि चुनाव की हलचल में भी लोग बाहर गुजरात के कांग्रेसी दिग्गजों के नाम तक नहीं जानते, केंद्र के प्रतिनिधि अशोक गहलोत ही पार्टी की पहचान हैं।
इतना कुछ झोंक देने के बाद भी भाजपा चुनाव से ख़ौफ़ खा रही है (देरी की और क्या वजह होगी) और जासूसी पर उतर आई है (जीतनेवाले को आने-जाने नेताओं की क्या फ़िक़्र) तो भाजपा की इस खदबद को समझना चाहिए – उतावाले चैनल चाहे कुछ भी कहें। भाजपा अगर जीतेगी तो अपने काम पर नहीं, कांग्रेस की नाकामी और चुनाव आयोग की कृपा से, जिसने चुनाव घोषणा टालकर अपनी साख को अपूर्व बट्टा लगाया है। जीतने/जिताने वाले को वरना तरह-तरह के इतने दंद-फंद की ज़रूरत कब होती है? (यह लेख लेख़क की फ़ेसबुक वाल से लिया गया है)