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क्या जमहूरियत और कश्मीरियत की आवाज में ही कुछ खराबी थी?

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कुल आठ लाशें गिरीं। आदमियों की लाशें… लोकतंत्र के कथित पोषकों की लाशें। दो दर्जन से भी अधिक लोग जख्मी हुए…! शायद लोकतंत्र थोड़ा और मरा या फिर भारत माता ही थोड़ी और जख्मी हो गयी। जो भी हो… लहू बहा। चीखें मचीं। सिंदूर पुछा। भारत माता के कई बच्चों के परिवारों में मातम मना।

ये तहरीर कश्मीर की है। इस कश्मीर का भारत से बड़ा अजीब जुड़ाव है। यह भारत का है भी और नही भी है। इलाका यह जरूर भारत के कब्जे में है मगर इसमें रहने वाले लोगों को भारत के बाकी हिस्से के लोग आम तौर पर अपना भाई-बहन नही मानते। भाईचारे की सीमा वहाँ इस कदर खिंच कर सिमट जाती है कि वहाँ के लोगों पर आम भारतीयों की नजर में कोई काला सा पाकिस्तानी साया घिरा हुआ सा दिखने लगता है।
हमारे लिए कश्मीर वह मूँछ है जिसे हम पाकिस्तान के बरख़िलाफ़ ऐंठते जरूर हैं मगर उन मूँछों के स्वास्थ्य और सही विकास का खयाल हमें बिल्कुल भी नही होता। कश्मीर पर हम अपना कब्जा जमाए हुए हैं, वह हमारे स्वाभाविक अंग सा तो बिल्कुल नहीं लगता। फिर भी कश्मीर हमारा है। हमारी निजी संपत्ति है और संपत्ति को व्यक्तित्व नही होता। इसीलिए वहाँ व्यक्तियों की लाशें भी गिरें तो हमारी सरकार राष्ट्रवाद, एन्टी-रोमियो, शराबबंदी, और गौरक्षा दल में मशगूल रहती है और हमारी न्यूज़ मीडिया किसी के खाने-नाश्ते, सोने-जागने या रामलीला दिखाने या फिर बग़दादी को मारने में मगन रहती है।
खैर, ये सब तो किस्सा-कहानी है, कुल मसला यह कि इतने खून बहने पर भी वहाँ कुल मतदान 7.14 प्रतिशत हुआ। हमारा लोकतंत्र कितना विकसित हो चला! हमने नोटों को बंद किया, फेसबुक, व्हाट्सएप्प और ट्विटर पर कश्मीरियों को जी भर कर गालियाँ दीं। हमने अपनी उदार भारतीयता दिखाने में कोई कसर न छोड़ी।
यह सब देखते-सोचते हुए एक अहम सवाल उभरकर जेहन में आता है कि मतदान का प्रतिशत 1999 में भी तकरीबन ग्यारह प्रतिशत रहा था। इत्तफाकन तब भी सरकार भाजपा की ही थी। आज भी सूबे में और केंद्र में दोनों जगह सरकार भाजपा की ही है और हम यह तो कतई नहीं मान सकते कि भाजपा सरकार में ही कोई खराबी है। निश्चित रूप से कहीं न कहीं कश्मीरी और कश्मीर ही जिम्मेदार हैं। तो क्या जमहूरियत और कश्मीरियत की आवाज में ही कुछ खराबी थी? आखिर क्या है यह सब?
: – मणिभूषण सिंह