0

क्या आप महिलाओं की इस सच्चाई से रूबरू हैं

Share

आने वाले गुरुवार को हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाएंगे यही वो समय होता है जब महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रेम, सब एक साथ उमड़ कर आता है, इतिहास में से ढूंढ ढूंढ कर साहसिक महिलाओं के गाथायें छपी जाती है खेल, राजनीति, फ़िल्म, बिज़नेस से जुड़ी महिलाओं को मंच पर बुलाकर सम्मानित करने वाले कार्यक्रमो का भी आयोजन होगा।
हमारे महिला दिवस की बस इतनी सी ही परिभाषा रह गई है, महिलाओं की स्थिति को लेकर एक दिन का रोना धोना और फिर अपने अपने काम पर लग जाना। रोज अख़बार में छपने वाली 6 महीने से लेकर 60 साल तक कि महिला से रेप की खबरें पढ़कर पन्ने पलट लेना, बस, ट्रैन में किसी महिला से हो रही छेड़छाड़ को नजरअंदाज कर देना, जीन्स पहनी लड़की को तसल्ली से निगाहें टिकाकर देखना या फिर रात 11 बजे ऑफिस से लौट रही लड़की के बारे में अंट संट बातें बनाना। ये सब हमारी रोज़ मर्रा की कामो का एक हिस्सा है।
ये सच है कि हम अब पुरुषवादी सोच वाले लोग नहीं रहे लेकिन अभी तक औरत को पूरी तरह जान नहीं पाए न ही उनकी स्वतंत्रता हलक से नीचे उतर रही है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ गाँव देहात के या कम पढ़े लिखे लोग ही अपने रूढ़िवादी ज्ञान के साथ गलतफहमी में रह रहे हों, शहरों का तथाकथित शिक्षित वर्ग भी अपनी गंदी गलियों से रोज़ाना उस हिम्मत करके घर से निकलने वाली लड़की के सपनो पर कीचड़ फेंकने में कम नहीं है।
लेकिन ये भी एक सच्चाई है कि राजस्थान के एक छोटे से गांव की लड़की माउंट एवरेस्ट चढ़ जाती है और हरियाणा की एक लड़की नासा में वैज्ञानिक बन जाती है। कुल मिलाकर सारा मुद्दा सिर्फ सोच पर आकर टिक जाता है।
आपने महिलाओं को लेकर अपने मस्तिष्क में किस प्रकार के खयालात पैदा किये हुए हैं, ये न सिर्फ आपकी सोच व संस्कार के बारे में बताता है बल्कि औरतों को आगे लाने में एक बड़ा दायित्व भी निभाता है जिसकी आज हमें आवश्यकता है।
ये हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है, हम तभी औरतों के सम्मान के लिए मशाल लेकर निकलते है,जब निर्भया जैसी कोई चीख चीख कर हमारे इंसान होने पर सवाल उठती है,वो बात अलग है बाद में निर्भया योजना, निर्भया फंड देकर निर्भया का मुंह बंद करने की कोशिश की गई और कानूनी रूप से देखा जाए तो महिला को सशक्त करने के सारे प्रयास भी यही आकर खत्म हो जाते है।
देश के हर क्षेत्र में तरक्की करने के बावजूद महिलाएं अनेक प्रकार के सामाजिक बंधनो और भय से घर के अंदर रहने को मजबूर है इस बात का डर छोड़कर की लड़की आज़ादी का गलत इस्तेमाल करेगी, लड़के को दी जाने वाली आज़ादी का यदि आधा भी लड़की को दिया जाए तो हो सकता है कि लड़कियों की असली काबिलियत का पता चल जाये।
सामाजिक पहलू पर बात करते हुए यदि महिलाओं में पैदा डर के धरातल तक जाए तो पता पड़ता है कि आजकल आवारा लड़को की एक बड़ी बिसात पैदा हो गई है,जो हर राह चलती लड़की को अपने पूर्वजों की जागीर समझ लेते है अपने छोड़कर किसी के बाप से न डरने वाले ये लड़के अपनी माता के बेहद लाडले होते है जिसके चलते तहज़ीब का इनके जीवन मे अकाल रहता है और अपनी निहायती घटिया सोच एवं हरकतों से समाज मे महिलाओं के प्रति गंदा ज़हर फैलाने का काम करते रहते है।
यही ज़हर कितनी लड़कियों के सपने के दम तोड़ने का कारण बना है। भारत की हर लड़की ने अपने माता पिता द्वारा एक न एक बार अपनी पाबंदियों का कारण ‘ख़राब माहौल ‘ को जरुर सुना होगा सवाल यह है कि ये खराब माहौल बनाता कौन है?,और ये  कब तक समाज को जकड़े रहेगा? और क्या इसे खत्म करने के लिए हमे कुछ भी करने की ज़रूरत महसूस नहीं होती?
ये खराब सामाजिक माहौल लड़को को दी गई अधूरी परवरिश से उपजा है लड़की सिर्फ आंख गड़ाकर देखने वाली चीज़ नहीं है यह अभी हर लड़के के संस्कारो में जोड़ना बाकी है। हर लड़की के भीतर उसके हज़ारो सपने और उन सपनों के आड़े आ रही पाबंदियां उसे कचोटती रहती है लेकिन वह असहाय है क्योंकि बाहर माहौल खराब है।
किसी भी समाज की स्थिति का कारण उस समाज के लोग होते है भारतीय समाज की यदि यह दुर्दशा है तो उसका कारण भी हम लोग है और अगर इस स्थिति (‘खराब माहौल’) से बाहर निकलना है तो उसके लिए भी हमे ही अपने दिमाग से सारे दूषित विचार साफ करने होंगे।