एक खबर के अनुसार, पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित शारदा चिटफंड और रोज वैली घोटाला मामले में कोलकाता पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के घर छापा मारने पहुंची। इसे लेकर सीबीआई की टीम और कोलकाता पुलिस के बीच कहासुनी और हाथापाई हो गई। बताया जा रहा है कि पुलिस ने सीबीआई टीम को राजीव कुमार के घर घुसने से रोक दिया। वहीं, ऐसी भी खबरें हैं कि पुलिस सीबीआई के अधिकारियों को थाने लेकर गई है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा भी अनेक, ‘ पहली बार ‘ की तरह होने वाली घटनाओं के अनुसार, यह घटना भी पहली बार हुयी है। बाद में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तत्काल प्रेस कांफ्रेंस किया और उन्होंने धरने पर बैठने का ऐलान किया। आरोप लगाया कि यह सब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इशारे पर किया जा रहा है। सीबीआई बनाम कोलकाता पुलिस का मामला अब सियासी रंग ले चुका है।
चिट फंड एक्ट-1982 के मुताबिक चिट फंड स्कीम का अर्थ होता है कि कोई शख्स या लोगों का समूह एक साथ समझौता कर एक निश्चित रकम या कोई चीज एक निश्चित समय पर किश्तों में जमा की जाए और तय वक्त पर उसकी नीलामी की जाए। जो लाभ हो शेष लोगों में बांट दिया जाए। इसमें बोली लगाने वाले शख्स को पैसे लौटाने भी होते हैं। नियम के मुताबिक ये स्कीम किसी संस्था या फिर व्यक्ति के जरिए आपसी संबंधियों या फिर दोस्तों के बीच चलाया जा सकता है लेकिन अब चिट फंड के स्थान पर सामूहिक सार्वजनिक जमा या सामूहिक निवेश योजनाएं चलाई जा रही हैं। इनका ढांचा इस तरह का होता है कि चिट फंड को सार्वजनिक जमा योजनाओं की तरह चलाया जाता है और कानून का इस्तेमाल घोटाला करने के लिए किया जाता है।
दरअसल शारदा चिटफंड घोटाला पश्चिम बंगाल का एक बड़ा आर्थिक घोटाला है। इसमें कई बड़े नेताओं के नाम जुड़े हैं। इस घोटाले में करीब 40 हजार करोड़ की हेर-फेर हुई थी। साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को आदेश दिए थे कि इस मामले की जांच करे। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम पुलिस को जांच में सहयोग करने का आदेश दिया था।
शारदा चिटफंड की तरह ही रोज वैली घोटाले पर भी बहुत समय से हड़कंप मचा हुआ है। इसमें कई बड़े बड़े नेताओं का नाम भी शामिल होने की बात सामने आ चुकी है। रोज वैली चिटफंड घोटाले में रोज वैली ग्रुप ने लोगों को अलग-अलग स्कीम का लालच देकर करीब एक लाख निवेशकों का करोड़ों पैसा हड़प लिया था। इसमें आशीर्वाद और होलिडे मेंबरशिप स्कीम के नाम पर इस ग्रुप ने लोगों को ज्यादा रिटर्न देने का वादा किया। पर दिया कुछ भी नहीं। इस ग्रुप के एमडी शिवमय दत्ता इस घोटाले के मास्टरमाइंड बताया जाता हैं। जिसके बाद लोगों ने भी इनकी बातों में आकर इसमें निवेश कर दिया। इस प्रकार एक बड़ा घोटाला हो गया।
सीबीआई द्वारा पुलिस कमिश्नर के घर पर छापा मारने का क्या औचित्य है ? क्या राजीव कुमार फरार चल रहे हैं, या जांच के लिये उपलब्ध नहीं हो रहे हैं या उन्हें देश से भाग जाने की उम्मीद है ? या कोर्ट द्वारा कोई जमानतीय या अजमानतीय वारंट है ? वह भी एक आईपीएस अफसर हैं, कानून जानते हैं। बेहद जिम्मेदार पद पर हैं। उनका भी रैंक सीबीआई निदेशक के समकक्ष है। उनसे उनके कार्यालय में जाकर भी पूछताछ की जा सकती है । या सीबीआई अपने दफ्तर में बुलाने के लिये पत्र भी लिख सकती है। सीबीआई के कार्यवाहक निदेशक नागेश्वर राव उनसे फोन से बात कर के इस असहज होने वाली स्थिति को टाल सकते थे। आज अचानक वहां जाने का क्या औचित्य है ? उनके सुरक्षा गार्ड तो किसी को भी रोकेंगे ही। यह उनका काम ही है। याद कीजिये आलोक वर्मा जब सीबीआई के डायरेक्टर पद से हटाये गये थे, तो उनके घर के पास दो संदिग्ध व्यक्तियों को आलोक वर्मा के सुरक्षा गार्ड ने पकड़ लिया था। वे बाद में आईबी के अधिकारी निकले।
राजीव कुमार 21 अक्टूबर 2017 को तत्कालीन सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा को पत्र लिख कर यह बताया था कि वे सीबीआई को अपने द्वारा किये गए जांच के तथ्य देने के लिये तैयार हैं। लेकिन उनके अनुसार उस पत्र के बाद सीबीआई के किसी भी अधिकारी ने राजीव कुमार से सम्पर्क नहीं किया। राजीव कुमार इस मामले में अभियुक्त नहीं है। बल्कि जब वे विधाननगर के पुलिस कमिश्नर थे तो उन्होंने उस एसआईटी के मुखिया के रूप में जांच की थी।
1989 बैच के आईपीएस अफसर राजीव कुमार को पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी का करीबी माना जाता है। राजीव कुमार 2013 में शारदा चिटफंड घोटाला मामले की जांच के लिए राज्य सरकार द्वारा गठित स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम के अध्यक्ष थे। उन पर बतौर जांच अधिकारी सुबूतों के छुपाने के आरोप हैं। एसआईटी के अध्यक्ष के तौर पर राजीव कुमार ने जम्मू-कश्मीर में शारदा प्रमुख सुदीप्त सेन और उनके सहयोगी देवयानी को गिरफ्तार किया था। आरोप है कि उन्होंने , उनके पास से मिली एक डायरी को गायब कर दिया था। इस डायरी में उन सभी नेताओं के नाम थे जिन्होंने चिटफंड कंपनी से रुपए लिए थे।
राजीव कुमार पर सीबीआई छापे के पीछे सीबीआई में कुछ दिनों पूर्व चल रहे आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना के आपसी तनाव भी एक कारण रहा है। नवभारत टाइम्स में मधुपर्णा दास का कोलकाता से लिखा लेख इस छापे के पीछे की अंदरूनी हक़ीक़त बताता है। दरअसल, स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना ने चिट फंड मामले की जांच में कथित तौर पर सहयोग न करने के लिए कोलकाता के पुलिस कमिश्नर पर दबाव बनाया था। इस पर डायरेक्टर आलोक वर्मा ने अस्थाना से सवाल-जवाब किया था। बताया जा रहा है कि दोनों बड़े अफसरों में अनबन की यह एक बड़ी वजह थी। इस मामले की जांच राकेश अस्थाना की निगरानी में हो रही थी, जिसमे तीन समन भेजे गए थे।
अक्टूबर 2017 में राजीव कुमार ने पहले समन का जवाब दिया था। उन्होंने कहा था कि वह मेल किए गए प्रश्नावली का जवाब देने या इस पर किसी भी बैठक में शामिल होने के लिए तैयार हैं। सीबीआई चाहती थी कि वह जांच के लिए खुद उपस्थित हों क्योंकि नोटिस सीआरपीसी की धारा 160 के अंतर्गत भेजी गयी थी। यह सफीना कहा जाता है। एक हफ्ते के भीतर ही दूसरा समन भेजा गया। इसके बाद राजीव कुमार ने चार साल पुरानी इस जांच पर राजनीतिक प्रभाव का आरोप लगाते हुए डायरेक्टर को पत्र लिखा। सात महीने के बाद सीबीआई द्वारा एक और नोटिस उन्हें और तीन दूसरे अन्य आईपीएस अफसरों को भेजा गया। ऐसा माना जाता है कि इस प्रकरण ने वर्मा को नाराज़ कर दिया क्योंकि यह सब राकेश अस्थाना के कोलकाता जाने के बाद हुआ था। आलोक वर्मा की सहमति इतने नोटिस भेजने के पक्ष में नहीं थे। क्योंकि राजीव इस मामले में कोई अभियुक्त नहीं थे। बल्कि वे एक पूर्व जांच टीम के मुखिया थे। वे गवाह हैं। आलोक वर्मा राजीव कुमार से बात कर मामले का हल निकालना चाहते थे।
इसी प्रकार इकनॉमिक टाइम्स में छपी एक खबर के अनुसार राजीव कुमार सीबीआई की इन नोटिसों के विरुद्ध कानूनी विकल्प की तलाश में थे। अखबार के अनुसार, सीबीआई की लोकल यूनिट की एक रिपोर्ट आलोक वर्मा के पास पर करीब पांच महीने तक पड़ी रही। कोलकाता पुलिस के वरिष्ठ अफसरों ने दावा किया कि राजनीतिक कारणों से सीबीआई कमिश्नर को घेरना चाहती थी। बीजेपी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय द्वारा ने एक जनसभा में इन गोपनीय नोटिस का उल्लेख भी किया था। आखिर उन्हें यह जानकारी कैसे हुयी ? इसके बाद सीबीआई ने पश्चिम बंगाल पुलिस के डीजीपी से संपर्क साधा। डीजीपी ने कहा, कि मामले पर चर्चा के लिए एक मीटिंग आयोजित की जाए, जबकि सीबीआई को यह स्वीकार नहीं था। सीबीआई जांच के बारे में जानकारी रखने वाले लोगों का कहना है कि जांच रुक गई थी क्योंकि लोकल सीबीआई टीम द्वारा भेजी गई संवेदनशील रिपोर्ट पर पिछले पांच महीनों में कोई कार्रवाई नहीं की गई थी। बताया जाता है कि इस रिपोर्ट में कई प्रत्यक्ष साक्ष्य और संदिग्ध दस्तावेज मौजूद थे, जिससे टीएमसी के कई नेताओं तक पहुंचा जा सकता था। इनमें वे नेता भी शामिल थे जो अब भाजपा में हैं। फिलहाल शारदा और रोज वैली मामलों में सीबीआई 81 और ईडी करीब 12 आरोपपत्र दाखिल कर चुकी है। मामले में कुल 179 लोगों में से करीब 30 लोग गिरफ्तार किए गए और उन्हें दोषी ठहराया गया।
इस केस की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि अगर प्रदेश की पुलिस को सीबीआई की पूछताछ पर कोई आपत्ति है तो वह कलकत्ता हाई कोर्ट जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद ही बंगाल पुलिस के अफसर कलकत्ता हाई कोर्ट पहुंचे, जहां से उन्हें राहत मिल गई। कलकत्ता हाई कोर्ट का यह आदेश अभी तक चल रहा है। सीबीआई को छापा मारना था तो पहले कलकत्ता हाई कोर्ट से स्पष्टीकरण या संशोधित आदेश लेना चाहिये था।
इस संबंध में स्थापित कानूनी प्राविधान यह है अगर सीबीआई को पूछताछ करनी है तो वे राजीव कुमार को सफ़ीना ( पत्र ) भेजे और अपने दफ्तर बुलाये या उनके दफ्तर जाए। अगर वे नहीं बयान देते हैं तो बंगाल सरकार से कहे कि उन्हें बयान के लिये भेजे। अगर तब भी नहीं मानते हैं तो अदालत से सम्मन, वारंट ले और कानूनी कार्यवाही कराए। सीआरपीसी में जांच की प्रक्रिया और पुलिस की शक्तियां स्पष्ट हैं। इस विषय मे दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेंट एक्ट (DSPE) , जिसके तहत सीबीआई गठित है का सेक्शन 5 स्पष्ट कहता है कि स्पेशल पुलिस (सीबीआई ) के अधिकार-क्षेत्र में पूरा भारत आता है।
लेकिन साथ ही उसी डीएसपीई एक्ट का अगला सेक्शन नंबर 6 स्पष्ट कहता है
‘’सेक्शन 5 में लिखित प्रावधानों के माध्यम से प्राप्त अधिकारों से लैस सीबीआई का कोई भी सदस्य सम्बंधित राज्य सरकार की पूर्वानुमति के बगैर वहां अपने अधिकारों एवं क्षेत्राधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता है…”
इसी सेक्शन 6 के आधार पर आंध्र प्रदेश की सरकार ने पिछले साल सितम्बर में राज्य सरकार की पूर्वानुमति के बगैर सीबीआई को राज्य में अपने अधिकारों और क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने से प्रतिबंधित कर दिया था।
चंद्रबाबू नायडू की तेलगु देशम पार्टी के एक प्रवक्ता लंका दिनकर के अनुसार,
’’पिछले छह महीनों से राज्य में सीबीआई की कारगुजारियों के चलते सरकार ने यह निर्णय लिया है। मोदी सरकार के अनावश्यक हस्तक्षेप के कारण सीबीआई ने अपनी स्वायत्तता खो दी है। मोदी सरकार झूठे बयानों के आधार पर अपने राजनीतिक विरोधियों को परेशान करने के लिए सीबीआई का हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है…”
इस विवाद के सम्बंध में सभी पक्षों ने अदालत की शरण ली।11 अक्तूबर, 2018 को दिल्ली हाई कोर्ट में मामले की सुनवाई हुई। सीबीआई ने छत्तीसगढ़ राज्य में एक अपराध की तफ्शीश के लिए राज्य सरकार की आवश्यक पूर्वानुमति के प्रावधान को चुनौती दी।
दिल्ली हाई कोर्ट ने फैसला दिया कि सीबीआई को राज्य सरकार की पूर्वानुमति लेना आवश्यक नहीं है। लेकिन यदि केस राज्य में रजिस्टर्ड है तो सम्बंधित राज्य की पूर्वानुमति लेना आवश्यक होगा।
इस विषय में कोर्ट ने बिलकुल स्पष्ट कर दिया है यदि सीबीआई द्वारा तफ्शीश किया जा रहा केस उस राज्य में राज्य में रजिस्टर्ड है जहां मूल निवासी आरोपी है, तो सीबीआई को आगे बढ़ने से पहले उस राज्य की अनुमति लेना आवश्यक होगा।
अब इस मामले में दो पाले साफ साफ खिंच गये हैं। एक वे सरकारें जो एनडीए समर्थित हैं और दूसरी, वे जो एनडीए विरोधी दलों की है। विरोधी दलों की एकजुटता एनडीए को इस चुनावी साल में असहज कर रही हैं। लेकिन राजनैतिक प्रतिशोध में पुलिस और जांच एजेंसी का उपयोग करना अनुचित है। तुरंत राजनैतिक प्रतिक्रिया भी सामने आ गयी। सीबीआई से चिर प्रताडित दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ममता बनर्जी के समर्थन में कहा,
“मोदी जी ने लोकतंत्र और संघीय ढाचे को मजाक बना दिया है। कुछ साल पहले मोदी जी ने अर्धसैनिक बलों को भेज दिल्ली सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी शाखा पर कब्जा कर लिया था। मोदी-शाह की जोड़ी भारत और देश के लोकतंत्र के लिए खतरा है। हम इस कार्रवाई की कड़ी निंदा करते हैं।”
यह शुरुआत है अब। अब वे सभी राजनेता मुखर होंगे जो सीबीआई जांच के घेरे में हैं। अखिलेश यादव, मायावती, चंद्रबाबू नायडू, तेजस्वी यादव आदि सभी नेता जो कोई न कोई आरोप झेल रहे हैं अब ममता के साथ दिखेंगे। यह स्थिति जांच एजेंसी को और विवादित बनाएगी।
अगर पुलिस और जांच एजेंसियों के बड़े अफसर चाहे वे आयकर, ईडी किसी के भी हों राजनीतिक हथियार बने रहेंगे तो इसके घातक परिणाम होंगे। सभी दल जांच एजेंसियों का दुरूपयोग करते रहे हैं और यह राजनेताओं के चरित्र मे शामिल हो गया है। कानून का पालन कराने वाली एजेंसियों के प्रमुखों और बड़े अफसरो को यह तय करना पड़ेगा कि उन्हें अपना मेरुदंड कितना मज़बूत रखना है, और कब ज़रूर मज़बूत रखना है । एक बात तो तय है कि कानून का पालन कानूनी रूप से ही संभव है और यह होना भी चाहिये। आज स्थिति यह हो गयी है कि सीबीआई, ईडी, आयकर, इन सभी महत्वपूर्ण विभागों की साख पर सवाल उठ रहे हैं। सीबीआई में तो हद ही हो गई है। हर आदमी इन संस्थाओं को ऐसी निगाह से देख रहा है जैसे ये संस्थान सरकार के राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु ही बनाये गए हैं। सरकार को भी सरकार और सत्तारूढ़ दल में भेद रख कर ही काम करना पड़ेगा।
कानून, संविधान और अदालत की जो राजनीतिक दल, सुबह धज्जियां उड़ाते हैं, कानूनी प्राविधान को जो अपनी आस्था के ज्वार में बहा देते हैं वही जब मनचाहा शाम तक नहीं कर पाते हैं तो तुरन्त इनकी दुहाई देने लगते हैं । कानून का विधिवत पालन न कर के अगर कोलकाता छापा तथा अन्य सेलेक्टिव दुरुपयोग किया जाएगा तो ऐसी ही असहज करने वाली समस्याओ से रूबरू होना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट को गुमराह करने के लिये झूठा हलफनामा देना, सबरीमाला मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट को यह नसीहत देना कि वह ऐसे फैसले न दे जो लागू न किये जा सके, सुप्रीम कोर्ट को जन भावना के अनुसार चलना चाहिये, और सुप्रीम कोर्ट को किसी स्थान की सुरक्षा का वैधानिक आश्वासन देकर फिर उसका खुले आम उल्लंघन कर आसुरी अट्टहास कर के उसकी खुलेआम अवहेलना और अवमानना करना यह बताता है कि हम कानून, संविधान और सुप्रीम कोर्ट का कितना सम्मान करते हैं। जब सरकारें निज सुविधा और स्वार्थ से अपने राजनीतिक हित लाभ के लिये जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करेंगी तो जो कल कोलकाता में हुआ है वह अब हर शहर में होगा। आज सीबीआई की क्षवि और साख एक बिगड़ैल थाने जैसी होकर रह गयी है। आने वाले सीबीआई प्रमुख ऋषि कुमार शुक्ल के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह सीबीआई को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेश, पिजरे में कैद तोता, और विरोधी दलों के नेताओं को साधने का विधि अधिकार सम्पन्न गिरोह की क्षवि से दूर कर एक प्रोफेशनल जांच एजेंसी के रूप में स्थापित करें।
क्या कारण है कि पिछले चार सालों में भाजपा से जुड़े नेताओं पर सीबीआई ने कहीं भी नज़रें टेढ़ी नहीं की ?.जब कि दिल्ली सरकार से जुड़े हर छोटे बड़े आर कुछ राज्यों ने सीबीआई को अपने यहां अनुमति के बिना जांच करने से मना कर दिया। कुछ ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में सीबीआई को भाजपा का एक प्रकोष्ठ ही मान लिया। पर किसी भी जांच एजेंसी का हर कृत्य राजनीतिक दृष्टिकोण से ही किया गया हो, ऐसा भी नहीं है। पर जब एक धारणा बन जाती है तो उसे तोड़ना मुश्किल होता है। साख और भरोसा मुश्किल से जमता है और जब टूटता है तो दुबारा उसे बनने में बहुत समय लगता है। तब तक काफी नुकसान हो चुका है। राजनीतिक दल तो राजनीति करेंगे ही, और वे वही करेंगे जिनसे उनके दलगत हित को सधे। पर नौकरशाही को वह सीमा रेखा तय करनी पड़ेगी कि कानून का पालन कानूनी प्रक्रियाओं द्वारा ही हो।
और अंत मे ! जैसे सीबीआई का यह कोलकाता छापा पोलिटिकल है, वैसे ही ममता बनर्जी का सीबीआई के विरोध में यह धरना भी पोलिटिकल है। और सोशल मीडिया पर अपने अपने तरह से जो कानून की व्याख्यायें तैर रहीं हैं, वे भी पोलिटिकल है। पर सीबीआई के अफसर इस पोलिटिकल कबड्डी में कानून का पाठ जो उसे बचपन से पढ़ाया गया है उसे क्योँ बार बार भूल जाते हैं और एक विधिसक्षम संस्था होते हुए भी पोलिटिकल लोगों की कठपुतली क्यों बन जाते हैं?
याद रखियेगा, इस पोलिटिकल जोड़ी ने आधे दर्जन आइपीएस अफसरों और बीसों पुलिसजन को फंसा कर गुजरात की जेल में सालों सड़ाया है। दर्ज़नो अफसरों को अलग अलग तरह से प्रताड़ित किया है और अब भी कर रहे हैं। पोलिटिकल लोगों का कभी कुछ नहीं बिगड़ता है। वे तो इंद्र की तरह अनेक दोषों से युक्त होने पर भी देवराज के पद पर ही मूर्धाभिषिक्त रहते हैं। पर कानून की अनदेखी और अवहेलना में हम पुलिस वाले ही नपते है। यह व्यथा कथा सीबीआई की ही नहीं है बल्कि पुलिस विभाग की साझी व्यथा है।
© विजय शंकर सिंह