लेह के सैन्य अस्पताल में सावधान की मुद्रा में क्यों बैठे थे सैनिक ?

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सावधान बैठ’, सावधान, विश्राम, आराम से की तरह ही एक वर्ड ऑफ कमांड है जो तब दिया जाता है जब किसी सैनिक टुकड़ी को सम्बोधित करने के लिए किसी यूनिट में कोई विशिष्ट मेहमान या फौज, पुलिस या सुरक्षा बल का कोई बड़ा अफसर आता है। इसका उद्देश्य होता है कि वह अपने जवानों से मुखातिब हो, उनका हौसला बढाये और अगर कोई तात्कालिक समस्या हो तो उसका वहीं समाधान करे। लेकिन जब कोई मंत्री, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ऐसी यूनिट में भ्रमण करने जाता है तो, यह महज एक औपचारिक और संक्षिप्त सम्बोधन होता है। सम्बोधन के बाद जवानों के साथ ही सभी चाय या सूक्ष्म जलपान या जैसी व्यवस्था हो उसमे सब भाग लेते हैं। इसी बीच जवानों से वीआइपी कुछ हल्की फुल्की बातें करते हैं। वे जवानों से उनकी कुछ समस्याएं पूछते भी हैं, पर जवानों को यह भी समझा दिया जाता है वे ऐसी कोई समस्या न बताएं। अगर समस्याये हों भी तो उसे अपने अधिकारियों को ही बताएं, न कि वीआईपी को । क्योंकि यह एक सेरिमोनीयल सम्मेलन होता है जो, महज एक औपचारिकता होती है।

सैनिक सम्मेलन, सभी सुरक्षा बलों, पुलिस और सेना में जवानों से नियमित बात चीत के लिये आयोजित होने वाली एक प्रथा है जिसे यूनिट कमांडर माह में एक बार आयोजित कर के सम्बोधित करते है। यह सम्मेलन जवानों की मूल समस्याओं से रूबरू होने और उनके निदान के लिये नियमित रूप से आयोजित किये जाते है। सुरक्षा बलों, पुलिस और सेना में कोई भी यूनियन जैसा संगठन, अनुमन्य नहीं है अतः यह सम्मेलन जिसे सैनिक सम्मेलन कहा जाता है, आयोजित किया जाता है। पहले इसे यूनिट कमांडर का दरबार कहा जाता था लेकिन अब यह सैनिक सम्मेलन कहा जाता है।

इसी प्रकार सैनिक अस्पतालों में भी वीआईपी के भ्रमण का एक कायदा है। भ्रमण के दौरान किसे क्या करना है और क्या नहीं करना है, इसका भी एक स्टैंडिंग आर्डर होता है। इसका कारण है कि सेना हो या सुरक्षा बल या पुलिस यह सब एक रिजिमेंटल बल हैं औऱ उसी संस्कृति से आच्छादित हैं। यह मूलतः सैन्य परंपराओं की देन हैं जो ब्रिटिश मिलिट्री सिस्टम से हमे विरासत में मिली हैं। पहले सभी वर्ड ऑफ कमांड अंग्रेजी में होते थे अब वे सभी ड्रिल मैनुअल के अनुसार, हिंदी में स्वीकार कर लिये गए हैं और सेना, सुरक्षा बल और पुलिस के लिये सभी वर्ड ऑफ कमांड एक ही प्रकार से होते हैं।

लेह के पास एक सैनिक अस्पताल में प्रधानमंत्री द्वारा किये गए भ्रमण की कुछ फोटो सोशल मीडिया और अखबारों में छपी हैं, जिंसमे प्रधानमंत्री अस्पताल के वार्ड में जवानों के बीच माइक लेकर प्रसन्न मुद्रा में दिख रहे हैं। वैसे भी मरीज़ों को देखने के लिये अस्पताल में प्रसन्न और सुदर्शन मुद्रा में ही जाना चाहिए, इससे मरीज पर बेहतर और मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है और किसी भी प्रकार का बेहतर प्रभाव मरीज़ को जल्दी स्वस्थ होने के लिये मानसिक रूप से प्रेरित भी करता है। वीआईपी द्वारा अस्पताल भ्रमण करने का एक उद्देश्य यह भी होता है कि, उनके कष्ट में, और उनके साथ, पूरा देश है और बीमारी तथा चोटिल होने की इस दशा में भी वे न तो अकेले हैं और न ही उनके इलाज और तीमारदारी में कोई कमी होने दी जाएगी। अस्पताल की दशा भी इसी बहाने सुधर जाती है और जो थोड़ी बहुत कमियां रहती हैं वह भी सुधार दी जाती हैं। कभी कभी सद्भाव के रूप में अस्पताल को कुछ अतिरिक्त फंड या कुछ नयी घोषणाएं भी सरकार द्वारा मिल जाती है। यह सब एक प्रकार की अच्छी औपचारिकताये हैं और इनका निर्वाह समय समय पर किया जाना चाहिए।

भारत के सभी प्रधानमंत्री समय समय पर सेना की फॉरवर्ड पोस्ट का निरीक्षण अपने अपने समय मे पहले भी करते रहे हैं। यह परंपरा, युद्ध काल मे भी होती रही है और शांतिकाल में भी। इसी प्रकार गृहमंत्री भी जब सीमा क्षेत्र में जाते हैं तो वे भी अपने आधीन सुरक्षा बल, सीमा सुरक्षा बल, और भारत तिब्बत सीमा पुलिस आदि का भी निरीक्षण करते रहते हैं। वे भी सैनिक सम्मेलन और यूनिट के अस्पताल का भ्रमण करते हैं। और अपनी बात कहते हैं। मोदी जी के पहले रहे प्रधानमंत्रियों में से जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी ने फॉरवर्ड पोस्ट पर जाकर अपने सैनिकों के सम्मेलन को सम्बोधित किया है और उनसे बातचीत की है। जवाहरलाल नेहरू की नेफा सीमा पर, लाल बहादुर शास्त्री की पाकिस्तान सीमा पर इंदिरा गांधी की गलवां घाटी में सैनिको को संबोधित करते हुए फ़ोटो पहले भी मीडिया और अखबारों में छप चुकी हैं और अब भी गूगल कर के वे देखी जा सकती है।

अस्पताल में भ्रमण के दौरान वीआईपी एक एक मरीज़ के बेड के पास जा कर उनका कुशल क्षेम पूछते हैं, उनके रोग और चोट के बारे में साथ चल रहे मेडिकल सुपरिटेंडेंट से उसके इलाज के बारे कुछ दरयाफ्त करते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। वही पर वीआईपी की तरफ से कुछ फल आदि भी मरीज़ को एक टोकन सद्भाव के रूप में दिया जाता है। सैनिक अस्पताल के किस वार्ड में, वीआईपी को जाना है और कितने मरीज़ को वीआइपी से मिलवाना है यह सब पहले से ही तय होता है और यह स्वाभाविक है कि अस्पताल का सबसे सुव्यवस्थित वार्ड ही इसके लिये चुने जाते हैं और मरीज़ भी वही चुने जाते है जो क्रिटिकल न हों और वीआइपी द्वारा कुछ पूछने पर अपने रोग और अपने बारे में भी कुछ बता सकें।

लेकिन यह भी पहली बार ही दिख रहा है कि कोई प्रधानमंत्री किसी अस्पताल में मरीज़ों को देखने जांय और वहां भाषण हो, पीएम के हांथ में किसी मंच के अभिनेता या सूत्रधार की तरह माइक हो, न किसी मरीज़ से कुशल क्षेम पूछने की औपचारिकता हो, न ही फल आदि प्रदान करने की परंपरा का निर्वाह हो, और सब कुछ एक इवेंट की तरह हो।

मरीज़ चोटिल, रुग्ण नहीं बल्कि सावधान बैठ की मुद्रा में तन कर बैठे दिख रहे हैं। मरीज का अस्पताल में स्वस्थ चैतन्य और प्रसन्न दिखना एक सुखद अनुभव भी होता। अस्पताल एक घोषित साइलेन्स जोन होता है। ऐसा मरीज़ों की सुविधा के लिया किया जाता है। यह अस्पताल भी सजा धजा है लेकिन इसमें यह कोई अनोखी बात नहीं है। यह भी हो सकता है कि या तो अस्पताल ही इतना भव्य हो या किसी भव्य कॉन्फ्रेंस हॉल को ही अस्पताल में बदल दिया गया हो। और अगर ऐसा प्रधानमंत्री की यात्रा को देखते हुए किसी कॉन्फ्रेंस हॉल को भी अस्पताल में बदल दिया गया है, तो भी यह अप्रत्याशित नहीं है। वीवीआइपी के मुआयने के समय सबसे अच्छा दिखाने की एक स्वाभाविक इच्छा भी होती है। इसे उसी रूप में देखा जाना चाहिए। चीजें माहौल औऱ सबकुछ चाक चौबंद तो होना ही चाहिए।

भारतीय सेना दुनिया की गिनी चुनी प्रोफेशल सेनाओं मे से एक है और इसका अराजनीतिक स्वरूप इसके प्रोफेशनलिज़्म को बनाये हुए हैं। 1948, 62, 65, 71 और 1999 के युद्धों में सेना ने अपने प्रोफेशनलिज़्म का परिचय दुनियाभर को दिया है। अनुशासन, और आज्ञापालन की भी कभी कोई गम्भीर शिकायतें नहीं मिली है। मानवाधिकार उल्लंघन की शिकायतें ज़रूर मिली हैं पर सेना ने अपने स्तर से उन पर कार्यवाही की भी है। सेना जब भी सामान्य कानून व्यवस्था की डयूटी में लंबे समय के लिये उतारी और तैनात रखी जायेगी तो उसका भी चरित्र और मानसिकता कमोबेश पुलिस की तरह हो जाएगी। अक्सर कमांडर सेना के इस प्रकार की नियमित नियुक्ति का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि सेना या तो मोर्चे पर रहे या बैरक में। हम नॉर्थ ईस्ट और जम्मू कश्मीर में जहां सेना की नियमित लॉ एंड आर्डर की तैनाती सालों से देख रहे हैं वहां ऐसी शिकायते मिल भी रहीं हैं। इनसे न केवल सेना की क्षवि पर भी असर पड़ता है बल्कि उसका प्रोफेशनलिज़्म भी प्रभावित होता है।

सेना का मनोबल तो कभी भी गिरा हुआ नहीं रहा है। यहां तक कि 1962 के चीन युद्ध मे जब हमारी सेना संसाधनों के अभाव में लड़ रही थी। सेना ही हर निर्णय नहीं लेती और न उसे लेना चाहिए। युद्ध हों या न हो यह एक राजनीतिक निर्णय होता है और यह निर्णय घटनाओं की तात्कालिक गर्मी के अनुसार नहीं बल्कि दुनियाभर की कूटनीतिक और घरेलू नीतियों की समीक्षा के बाद ही लिया जाता है। यह बात अलग है कि सेना से हर पल किसी भी आकस्मिकता के लिये तैयार रहने की अपेक्षा की जाती है और वह रहती भी है।

सियाचिन, दुनिया का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र है औऱ मौसम के लिहाज से सबसे दुर्गम और कठिन भी। वहाँ गर्मियों में भी तापमान शून्य से नीचे रहता है। उक्त दुर्गम रणक्षेत्र में सबसे पहले देश के रक्षामंत्री के रूप में जॉर्ज फर्नांडिस ने दौरा किया था और उनके अनेक दौरे वहां के हुए। उन्होंने जब बर्फ में चलने वाले स्कूटर भेजने का निर्देश अपने मंत्रालय में दिया तो, मंत्रालय ने लालफीताशाही के कारण उसमे देरी कर दी। उन्होंने तब मंत्रालय के ही सिविल अफसरों को वहां का दौरा करने और कुछ दिन वहां बिताने के लिये कहा। नतीजा यह हुआ कि सियाचिन की लॉजिस्टिक समस्याएं भी सबके सामने आयी और उनका समाधान भी हुआ। कहने का आशय यह है कि सेना को जो साज सामान चाहिए, वह उन्हें समय समय पर मिलता रहे ताकि जब युद्ध या युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो तो सेना किसी भी अभाव का सामना न करे।

अभी सीएजी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि, सियाचिन, लद्दाख और डोकलम में मौजूद सैनिकों को पौष्टिक भोजन की कमी, बर्फ़ पर चमकती तेज़ धूप से बचने के लिए लगाए जाने वाले ख़ास चश्मे और जूते तक न मिल पाने के प्रमाण ऑडिट रिपोर्ट में आये हैं। अठारह हज़ार से तेईस हज़ार फीट की ऊंचाई वाले सियाचिन और दूसरे बर्फ़ीले फॉर्वर्ड पोस्ट में जवानों के पास इन चीज़ों की कमी की बात महालेखा परीक्षक यानी सीएजी की ताज़ा रिपोर्ट में कही गई है, जिसे कुछ दिनों पहले ही राज्यसभा में पेश किया गया है। इस पर सेना के एक पूर्व मेजर जनरल अशोक मेहता ने बीबीसी से कहा कि सीएजी की रिपोर्ट में जो कहा गया है वह बहुत ही गंभीर मसला है। हालांकि ‘इस तरह की कमी पहली बार नहीं हुई है’ और भारतीय सेना के पास हथियारों और दूसरे सामानों की कमी का मामला साफ तौर पर 1999 के कारगिल युद्ध से समय भी सामने आया था। कारगिल पर जनरल वीपी मलिक ने अपने एक किताब, करगिल फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री, में कहा है, कि हालांकि हालात तबसे बेहतर है लेकिन सेना आज भी हथियारों और दूसरे उपकरणों की कमी से जूझ रही है।

जनरल मेहता का कहना है कि ये हालात सेना के पास फंड की कमी की वजह से बन रहे हैं और हालांकि बजट में हर सरकार फंड बढ़ाने का दावा करती है लेकिन एक्सचेंज रेट और चीज़ों की बढ़ी क़ीमतों के मद्देनज़र वो नाकाफ़ी साबित होता है। कुछ दिनों पहले जाने-माने अंग्रेज़ी अख़बार द टेलीग्राफ़ की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि सशस्त्र सीमा बल के 90,000 जवानों को पैसे की कमी की वजह से कई तरह के भत्ते नहीं मिल पाएंगे। सीएजी की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि जवानों को जो जूते मिल रहे हैं वो रिसाइकिल्ड हैं और बर्फ़ के ख़ास चश्मों की कमी भी गंभीर है, सियाचिन की स्थितियां काफ़ी कठिन हैं और वहाँ पौष्टिक आहार और उपकरणों के बिना जीवन काफ़ी कठिन होता है। सीएजी की यह रिपोर्ट आज की नहीं है फरवरी में अखबारों में छपी है तो यह निष्कर्ष एक साल या दो साल पहले का होगा। हो सकता है कमियां अब दूर कर ली गईं हो।

प्रधानमंत्री एलएसी से 150 से 200 किमी पहले की किसी पोस्ट पर गए थे। वही उन्होंने अस्पताल का निरीक्षण किया और अपनी बात कही। पर एलएसी पर चीन की गतिविधियों पर अभी कोई प्रभाव नहीं पड़ा है और वह वहां अपना सैन्य डिप्लॉयमेंट और बढ़ा रहा है। खबर है वहां उसने अपने आर्मर्ड डिवीजन और सैनिकों की संख्या में भी वृद्धि की है। भारत की तरफ से भी तैयारियां मुकम्मल होंगी। और भारत भी चीन का सैन्य प्रत्युत्तर देने के लिये सक्षम है। लेकिन युद्ध कभी भी किसी समस्या का समाधान नहीं करता है बल्कि वह अनेक समस्याओं को जन्म भी दे देता है। महाभारत का उदाहरण लीजिए। युद्ध तो हुआ लेकिन युद्ध न होने के लिये कितनी कोशिशें श्रीकृष्ण द्वारा की गयीं ? पर जब युद्ध अवश्यम्भावी हो गया तो न च दैन्यम न पलायनम का उपदेश उन्होंने ही दे कर अर्जुन का मोहभंग किया।

चीन एक विस्तारवादी देश के रूप में दुनिया मे उभर रहा है। यह विस्तारवाद ज़मीनी विस्तारवाद है। हालांकि चीन ने भारत मे अपने कॉरपोरेट का भी खूब विस्तार किया है और व्यापार संतुलन की बात करें तो हम उस पर अधिक और वह हम पर कम आश्रित है। कूटनीति, और विदेशनीति के प्रयास तो चलते रहते हैं पर रणक्षेत्र में तो सेना को ही लड़ना होता है। सेना को संसाधन चाहिए, आधुनिक उपकरण चाहिए और थल, नभ और जल हर जगह एक सुगठित औऱ सन्नद्ध सेना चाहिए। जब यह सब हो जाएगा तो मनोबल में और इजाफा होगा। उम्मीद है सरकार इन सब के बारे में भी कुछ न कुछ बेहतर करने के लिए सोच ही रही होगी। रहा सवाल इवेंट का तो, यह सब तो चलता रहता है और चलता रहेगा। हर व्यक्ति की अलग अलग यूएसपी और अलग अलग शैली होती है।

( विजय शंकर सिंह )