अयोध्या मामले में फैसले पर न्यायमूर्ति गांगुली ने संविधान से पहले के सवाल उठाए कहा, “संविधान के एक छात्र के रूप में मेरे लिए इसे स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल है”। अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ में कोलकाता से मेघदीप भट्टाचार्जी ने यह रिपोर्ट लिखी है, अनुवाद मेरा। सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर जज न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली ने शनिवार को कहा कि अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उनके मन में संशय पैदा कर दिया है और वे “बेहद परेशान” हैं।
72 साल के न्यायमूर्ति गांगुली ने 2012 में 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में फैसला दिया था जिसे उस समय के विपक्ष, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने खूब पसंद किया था। उन्होंने कहा, “अल्पसंख्यकों ने पीढ़ियों से देखा है कि वहां एक मस्जिद थी। इसे गिरा दिया गया था। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार उसके ऊपर एक मंदिर बनाया जा रहा है। इससे मेरे मन में एक शंका पैदा हो गई है …. संविधान के एक छात्र के रूप में मेरे लिए इसे स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल है”। उन्होंने बताया कि शनिवार के फैसले में कहा गया है कि किसी जगह पर जब नमाज पढ़ी जाती है तो नमाजी के इस विश्वास को चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वहां मस्जिद है।
उन्होंने कहा, “अगर 1856-57 में नहीं तो 1949 से वहां नमाज निश्चित रूप से पढ़ी जा रही थी, इसके सबूत हैं। इसलिए जब हमारा संविधान अस्तित्व में आया तब वहां नमाज पढ़ी जाती थी। एक जगह जहां नमाज पढ़ी जाती है, वह जगह अगर मस्जिद मानी जाती है तो अल्पसंख्यक समुदाय को धर्म की उसकी आजादी की रक्षा करने का अधिकार है। यह एक बुनियादी अधिकार है जिसे संविधान की गांरंटी मिली हुई है।” उन्होंने आगे कहा, “इस स्थिति में आज एक मुसलमान क्या देख रहा है? वहां कई वर्षों से एक मस्जिद थी जिसे गिरा दिया गया। अब अदालत वहां मंदिर बनाने की इजाजत दे रही है और यह इस कथित निष्कर्ष पर है कि वह जगह राम लल्ला की है। क्या सुप्रीम कोर्ट सदियों पहले के भूमि स्वामित्व के मामले तय करेगी? क्या सुप्रीम कोर्ट इसे नजरअंदाज कर सकती है कि वहां लंबे समय तक मस्जिद थी और जब संविधान बना तो मस्जिद वहीं थी?”
न्यायमूर्ति गांगुली ने कहा: “और संविधान तथा उसके प्रावधानों के तहत सुप्रीम कोर्ट की यह जिम्मेदारी है कि इसकी रक्षा करे।” सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने आगे कहा, “संविधान से पहले जो था उसे अपनाया जाए यह संविधान की जिम्मेदारी नहीं है। उस समय कोई भारत लोकतांत्रिक गणराज्य नहीं था। उस समय कहां मस्जिद थी, कहां मंदिर था, कहां बुद्ध का स्तूप था, कहां गिरजा घर था …. अगर हम ऐसे फैसले करने बैठें तो कई सारे मंदिर और मस्जिद तथा अन्य संरचनाओं को गिराना पड़ेगा। हम पौराणिक ‘तथ्यों’ में नहीं जा सकते हैं। राम कौन हैं? क्या ऐतिहासिक तौर पर साबित कोई स्थिति है? यह विश्वास और आस्था का मामला है।”
उन्होंने आगे कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने इस बार कहा है कि आस्था के आधार पर आपको कोई प्राथमिकता नहीं मिल सकती है। उनका कहना है कि मस्जिद में,वहां संरचनाएं थीं, पर वह मंदिर नहीं था। और कोई नहीं कह सकता है कि मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई थी। अब एक मस्जिद को गिराकर मंदिर बनाया जा रहा है। 500 साल पहले जमीन का मालिक कौन था, क्या किसी को पता है? हम इतिहास का पुनर्रचना नहीं कर सकते हैं। अदालत की जिम्मेदारी है कि जो है उसका संरक्षण किया जाए। जो है उसपर अधिकार का संरक्षण किया जाए। इतिहास को फिर से बनाने की जिम्मेदारी अदालत की नहीं है। पांच सदी पहले वहां क्या था उसे जानने की अपेक्षा कोर्ट से नहीं की जा सकती है। अदालत को कहना चाहिए कि वहां मस्जिद थी जो तथ्य है। यह कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है – (बल्कि) एक तथ्य है जिसे हर किसी ने देखा है। इसे गिराया जाना हर किसी ने देखा है। उसे बहाल किया जाना चाहिए। अगर उन्हें मस्जिद पाने का अधिकार नहीं है तो कैसे आप सरकार को निर्देश दे रहे हैं कि मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ जमीन दी जाए? क्यों? आप स्वीकार कर रहे हैं कि मस्जिद गिराना ठीक नहीं था।”
यह पूछे जाने पर कि उनकी राय में उचित फैसला क्या होता, न्यायमूर्ति गांगुली ने कहा, “दोनों में से कोई एक। मैंने या तो उस जगह पर मस्जिद बनाने का निर्देश दिया होता या फिर अगर यह विवादित था तो मैंने कहा होता, ‘उस जगह पर ना मस्जिद, ना मंदिर’। आप वहां एक अस्पताल या स्कूल अथवा ऐसा कुछ और बना सकते हैं। मस्जिद और मंदिर अलग जगहों पर बनाइए। न्यायमूर्ति गांगुली ने कहा, “उसे हिन्दुओं को नहीं दिया जा सकता है। यह विश्व हिन्दू परिषद या बजरंग दल का दावा है। वे आज किसी भी मस्जिद – किसी भी चीज को गिरा दें फिर। उन्हें सरकार का समर्थन मिल रहा था अब उन्हें न्यायपालिका का समर्थन भी मिल रहा है। मैं बेहद परेशान हूं। ज्यादातर लोग इन बातों को इतनी सफाई से नहीं कहने वाले हैं।”
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