प्रज्ञा ठाकुर की बात करते हुए खूब विवाद हुआ कि नाथूराम गोडसे को आतंकी माना जाए या नहीं. कमल हासन ने आतंकी बताया वहीं बाकी लोग उसे बस एक हत्यारा कह रहे थे.
अगर हत्यारा भी मानें तो क्या हत्यारा होना ही अपने आप में बड़ा अपराध नहीं है? क्या इसके लिए आतंकी शब्द जुड़ना जरूरी है?
हमारी संसद में आधे सांसदों पर क्रिमिनल चार्जेज हैं. विधानसभाओं का हाल और भी बुरा है. शहाबुद्दीन, मुन्ना तिवारी, ललन सिंह, राजन तिवारी, अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी, अमरमणि त्रिपाठी, ब्रजेश सिंह, रघुराज प्रताप सिंह और ऐसे तमाम नाम हैं जो हर चुनाव में सुने जाते थे. इनमें से कई संसद और विधानसभाओं में पहुंचे. यूपी, बिहार, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश में ऐसे तमाम नेता थे. दक्षिण भारत से भी ऐसे तमाम नेता थे.
तो क्या हत्यारों को हमने दोषमुक्त मान लिया है? क्या हमने मान लिया है कि हत्यारोपी, अपहरण-रंगदारी के आरोपी, दंगों के आरोपी सबका संसद में पहुंचना अब स्वभाविक हो गया है?
धीरे-धीरे हमने खुद ही ऐसे लोगों को वोट कर के संसद में अपना जनप्रतिनिधि बनाकर भेजा है. इस बार भी हमने ही प्रज्ञा ठाकुर को जनप्रतिनिधि बनाया है. इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. लाइव कैमरे पर हत्या करनेवाले शंभूलाल रैगर की रामनवमी और दुर्गापूजा में झांकियां निकलीं. उसको भी कोई पार्टी टिकट दे ही रही थी. जुनैद के हत्यारोपी, अखलाक के हत्यारोपी को टिकट मिल ही रहा था. खबरें छपीं, पर अभी मिला नहीं. अगली बार इनको और इनके जैसे अन्य लोगों को भी मिल जाएगा.
धीरे-धीरे संसद में अपराध के आरोपियों की संख्या बढ़ती जाएगी. आतंक के आरोपी भी सामान्य लगने लगेंगे. हत्या के आरोपियों को तो हम पहले ही अपना चुके हैं.