आयकर और ईडी के छापे 2014 के पहले भी पड़ते थे और अब भी पड़ रहे हैं तथा आगे भी पड़ते रहेंगे। पर यह छापे अधिकतर व्यपारियों या संदिग्ध लेनदेन करने वालों, आय से अधिक संपत्ति की जांच में दोषी या संदिग्ध पाए जाने वाले अफसरों पर पड़ते थे। तब इन छापों की खबरों पर कोई बहुत ध्यान नहीं देता था और न ही जिन पर यह छापा पड़ता था, उनके प्रति कोई सहानुभूति, अधिकांश जनता के मन मे उपजती थी।
आयकर और ईडी के छापों तथा पुलिस के छापों में मूल अंतर यह होता है कि पुलिस के छापे आपराधिक मामलों में लिप्त या संदिग्ध लोगों पर पड़ते हैं और जो भी सूचना मिलती है उसी के आधार पर तत्काल डाले जाते हैं जबकि आयकर के छापे काफी होमवर्क करने के बाद और निर्धारित टारगेट के सभी ठिकानों पर एक साथ डाले जाते हैं और वे लंबी अवधि तक चलते हैं। पुलिस के छापों की सफलता का प्रतिशत बहुत अधिक नही होता है, जबकि आयकर के छापे कम ही असफल होते हैं क्योंकि वे, छापा डालने के पहले काफी छानबीन करते हैं और उनके छापे विवादित भी कम ही होते हैं।
पर 2014 के बाद पड़ने वाले आयकर और ईडी के छापों के बारे में एक आम धारणा यह बन रही है कि यह छापे विभागीय प्रोफेशनल दायित्व के बजाय जानबूझकर किसी पोशीदा एजेंडा के अंतर्गत डाले जा रहे हैं। जैसे इस समय जो व्यक्ति, संस्थान या संगठन, वर्तमान सत्ता के विपरीत है, या सरकार का आलोचक है उसके यहां छापा पड़ जा रहा है।
अब छापे में क्या मिल रहा है या छापे के बाद क्या कार्यवाही हुई यह तो बाद की बात है, पर छापे के उद्देश्य, टाइमिंग और लक्ष्य पर काफी सवाल सोशल मीडिया में उठाये जाने लगे हैं। आमूमन आयकर या ईडी के विभागों में राजनीतिक दखलंदाजी बहुत अधिक नहीं होती है, विशेषकर उनके प्रोफेशनल कामकाज के संबंध में, और यदि कुछ होता भी है, तो वह हस्तक्षेप दिखता भी कम ही है।
पर अब, जैसे ही छापे की खबर आती है, और लक्ष्य का नाम सामने आता है, तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं रहता है कि वह छापा किस उद्देश्य से डाला गया है और क्यों डाला गया है? ऐसे में सबसे अधिक असहज स्थिति छापा डालने वाले विभागों और उनके अफसरों की होती है जो यदि उचित कारणों से अपनी कार्यवाही कर भी रहे है तो उस पर संशय की अनेक अंगुलियां उठती रहती हैं। संशय की अंगुलियों से असहज हो जाने वाले अफसरों की मनोदशा का अनुमान आप लगा सकते हैं।
2014 के बाद बड़े पूंजीपति या वे पूंजीपति जो सत्ता के नज़दीक हैं, के घर और अन्य ठिकानों पर, आज तक न तो किसी छापे की खबर आई और न ही किसी सर्वे की। यदि कोई यह तर्क दे कि उनके यहाँ कोई अनियमितता या चोरी नही होती है तो यह तर्क अपने आप मे ही हास्यास्पद बचाव होगा। लेकिन 2014 के बाद छापे पड़े, मीडिया संस्थानों पर, जिनपर आमूमन छापे कम ही पड़ते हैं, उन शख्शियतों पर, जो सरकार के मुखर आलोचक हैं और उन संस्थाओं पर जो सरकार की वैचारिकी से अलग या विपरीत राय रखते हैं।
हाल ही में पड़ने वाले, कुछ महत्वपूर्ण छापों में द वायर, न्यूज़क्लिक, न्यूजलॉन्ड्री, दैनिक भास्कर, भारत समाचार, जैसे मीडिया संस्थानों पर पड़ने वाले छापे हैं। ‘द वायर’ तो शुरू से ही सत्ता विरोधी रुख रखता रहा है। उस के कार्यालय में तो, पेगासस जासूसी मामले में लगातार खुलासा करने के कारण, विनोद दुआ का नाम लेकर उन्हें तलाशती हुई पुलिस भी गयी थी।
दैनिक भास्कर और भारत समाचार पर महामारी से होने वाली मौतों पर लगातार रिपोर्टिंग से सरकार असहज थी, तो उनके यहां भी छापा पड़ा। हालांकि सरकार ने इन छापों को, रूटीन कार्यवाही कहा पर इस बयान के पीछे छिपे असल निहित और स्वार्थी सरकारी उद्देश्य की पहचान कर लेना कठिन नहीं था। इसमें, भास्कर कोई सत्ता विरोधी मनोवृत्ति का अखबार नही है लेकिन जब उसने खबरें सत्ता के खिलाफ छापनी शुरू की तो, उस पर भी नज़रें टेढ़ी हुई। जहां तक न्यूज़क्लिक और न्यूजलांड्री का सवाल है, यह दोनो वेबसाइट सत्ता के खिलाफ मुखर रहती हैं और इनकी खबरों से सरकार अक्सर असहज भी होती है। इनकी भी खबर सरकार ने ली।
हाल के छापों में न्यूज़क्लिक पर छापा खबरों में बहुत अधिक रहा। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की टीमें 100 से ज्यादा घंटों तक न्यूजक्लिक के एडिटर प्रबीर पुरकायस्थ और लेखक गीता हरिहरण (जो कि पोर्टल में शेयरहोल्डर भी हैं) के घर पर छापे मारने के बाद वापस गयी। सौ घँटों की अवधि पर हैरान न हों, आयकर और ईडी के छापे अक्सर लंबी अवधि तक चलते हैं क्योंकि वे कर चोरी और वित्तीय अनियमितता से जुड़े होते हैं, अक्सर दस्तावेजों और कम्यूटर और अन्य तकनीकी उपकरणों की पड़ताल और उन्हें डिकोड आदि करने में समय लगता है।
न्यूज़क्लिक ऑनलाइन न्यूज पोर्टल के करीब 10 परिसरों पर ईडी का छापा एक साथ शुरू हुआ था। इन छापों के बारे में, ईडी ने कहा है कि न्यूजक्लिक पर छापेमारी कथित मनी लॉन्ड्रिंग केस से जुड़ी हुई है और एजेंसी संगठन को विदेशों की संदिग्ध कंपनियों से धन मिलने की जांच कर रही है।
न्यूजक्लिक के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और वे 1977 की इमरजेंसी के समय में, छात्र आंदोलन में जेल भी जा चुके हैं। जबकि, हरिहरण जानी-मानी लेखिका हैं और उन्हें उनके पहले उपन्यास, ‘द थाउजेंड’ के लिए कॉमनवेल्थ राइटर्स प्राइज से सम्मानित किया जा चुका है। न्यूजक्लिक और उसके पत्रकारों के खिलाफ पहली छापेमारी, 9 फरवरी को ही हुयी थी।
हाल की इस छापेमारी में, ईडी की अलग-अलग टीमों ने दिल्ली और यूपी के गाजियाबाद में 10 परिसरों में छापा डाला। इनमें न्यूजक्लिक का दक्षिण दिल्ली स्थित सुलाजाब स्थित ऑफिस भी शामिल था। इसके अलावा न्यूजक्लिक की पैरेंट कंपनी पीपीके न्यूजक्लिक स्टूडियो पर भी छापेमारी की गई।
अब इधर सबसे बड़ी खबर छापों के बारे में आयी कि रिटायर्ड आईएएस अफसर हर्ष मन्दर के यहां छापा पड़ा है। 16 सितंबर को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने पूर्व आईएएस अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर के घर और दफ्तर पर छापेमारी की है। ईडी ने सुबह करीब आठ बजे वसंत कुंज स्थित उनके घर, अधचीनी में उनके एनजीओ सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज और महरौली स्थित बाल गृह पर छापेमारी की है।
यह कार्यवाई तब हुई है जब हर्ष मंदर और उनकी पत्नी नौ महीने की फेलोशिप के लिए जर्मनी के रोबर्ट बोस्च अकादमी गए हैं। पता चला है, कि यह छापेमारी मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़े मामले को लेकर की गई है। फरवरी में सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज (सीएसई) के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी. यह केस दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा (ईओडब्ल्यू) द्वारा दर्ज किया गया था।
हाल ही में हर्ष मंदर ने एक किताब, ‘दिस लैंड इज माइन, आई एम नॉट ऑफ दिस लैंड’ का संपादन किया था. यह किताब सीएए और नागरिकता पर लिखे लेखों का संग्रह है। साल 2020 में दिल्ली पुलिस ने हर्ष का नाम उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी में हुए दंगों से संबंधित चार्जशीट में भी दर्ज किया था।
इसकी निंदा करते हुए देश भर के करीब 160 प्रमुख शिक्षाविदों, कार्यकर्ताओं और कलाकारों ने उनके समर्थन में बयान जारी किया था। अक्टूबर 2020 में एनसीपीसीआर ने दिल्ली में दो बाल गृहों- उम्मीद अमन घर और खुशी रेनबो होम पर छापा मारा था, यह जानने के लिए कि कहीं यहां से किसी ने नागरिकता (संशोधन) बिल के विरोध में भाग तो नहीं लिया था।
इन्ही छापों के क्रम में एक चर्चित छापा फ़िल्म अभिनेता सोनू सूद के यहाँ पड़ा छापा है। सोनू ने लॉक डाउन के दौरान कामगारो के पलायन के समय खुलकर समाज सेवा से जुड़े थे। सरकार तो उस अवसर पर कहीं दिखी ही नहीं। यहां तक कि प्रधानमंत्री की घोषणा कि, बंदी के दौरान कामगारो को उनका वेतन दिया जायेगा, पर भी सरकार अमल नहीं करा सकी।
जब सुप्रीम कोर्ट में पलायन का मामला उठा तो सरकार ने झूठ बोला कि कोई मजदूर सड़क पर नहीं है। जबकि लगभग 700 कामगार सड़कों पर सैकड़ो किलोमीटर पैदल या जो भी साधन मिला, उससे अपने घर जाते हुए रास्ते मे ही मर गए। जब पूंजीपतियों ने सुप्रीम कोर्ट में बंदी की अवधि का वेतन देने में वित्तीय असमर्थता का रोना रोया तो, सरकार उस समय गरीब कामगारो के पक्ष में नहीं, बल्कि वह पूंजीपतियों के पक्ष में खड़ी हुई और वेतन देने के लिये सरकार ने पूंजीपतियों पर कोई ज़ोर नही दिया। ऐसे कठिन समय मे देश की बहुत-सी सामाजिक संस्थाएं और लोग कामगारों की मदद के लिये आगे आये थे। सोनू सूद भी उनमे से एक थे। सोनू अपनी सक्रियता से लोकप्रिय भी हुये। इस समय वह आम आदमी पार्टी से जुड़े हैं। ऐसे समय मे, उन पर, अचानक पड़ा यह छापा सरकार के इरादे के खिलाफ संदेह ही दर्शाता है।
जिनके यहां छापा पड़ा है, हो सकता है उनके खिलाफ शिकायतें भी हों और उन शिकायतों में दम भी हो, पर जिनके यहां छापा पड़ा है, उन सबमे एक चीज समान है कि सभी की विचारधारा सरकार विरोधी है। आखिर क्या कारण है कि जो प्रतिष्ठान, संस्था और व्यक्ति सरकार के मुखर आलोचक हैं, उनके ही खिलाफ शिकायतेँ मिली है और उन्ही के खिलाफ छापे भी पड़े हैं ?
ऐसा तो है नही कि, आजतक, ज़ी न्यूज़, इंडिया टीवी आदि न्यूज चैनल और दैनिक जागरण जैसे अखबार जो सरकार के प्रचार माध्यम तंत्र के रूप में लगभग बदल चुके हैं, वित्तीय रूप से बेहद साफ सुथरे हैं और उनके यहां कोई वित्तीय अनियमितता नहीं है ? क्या सरकार ने उनके यहां सर्वे कर के उन्हें पाक साफ पा लिया है, या वे सरकार के पाले में हैं ? यदि यही छापे सभी मीडिया संस्थान और अखबारों पर उनकी वित्तीय अनियमितता के बारे में छानबीन के लिये पड़ते तो इन छापों पर शायद ही चर्चा होती। पर यह छापे छांट के बेहद ग़ैरपेशेवर तरीके से सिर्फ उन्ही लक्ष्यों पर डाले जा रहे हैं जो सरकार के खिलाफ हैं तो, संदेह तो उठेगा ही और चर्चा भी होगी।
अगर भ्रष्टाचार की बात करें तो पनामा पेपर्स का खुलासा साल 2017 के अप्रैल में हुआ था। पनामा पेपर्स की लिस्ट में विश्वभर के तमाम लोगों के साथ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ नाम सामने आया था। पनामा पेपर्स में नाम होने के कारण आइसलैंड के प्रधानमंत्री को भी अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। इस लिस्ट में भारत की भी 500 से ज्यादा नामी गिरामी हस्तियों के नाम मौजूद हैं जो भारत से लगभग हर क्षेत्र से हैं। इनमे अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय बच्चन का नाम है तो बड़े कॉर्पोरेट घरानों में डीएलएफ के मालिक केपी सिंह तथा उनके परिवार के 9 सदस्य, अपोलो टायर्स और इंडिया बुल्स के प्रमोटर और गौतम अडानी के बड़े भाई विनोद अडानी का नाम भी इस सूची में शामिल है।
बंगाल के एक नेता शिशिर बजोरिया के अलावा लोकसत्ता पार्टी के नेता अनुराग केजरीवाल का भी नाम सामने आया है। तब तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संसद मे कहा था कि, भारतीयों की जांच करने के लिए एक मल्टी-एजेंसी ग्रुप (मैग) का गठन किया गया था और वह अपना काम भली भांति कर रही है। अब यही यह सवाल उठता है इस पनामा लीक मामले की जांच में क्या कार्यवाही हुई ? कोई दोषी मिला या नहीं ? क्या इस मामले में जुड़े व्यक्ति, अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या राय बच्चन, विनोद अड़ानी या अन्य के ऊपर सर्वे या छापा जो भी आप कह लें मारने की हिम्मत आयकर या ईडी में है ? आज की स्थिति में तो बिल्कुल ही नहीं है।
अक्सर कहा जाता है कि, छापों से करचोरी और वित्तीय अनियमितता करने वालों में भय उपजता है और ईमानदारी से कर अदा करने वाले विधिपालक नागरिकों में सिस्टम के प्रति सम्मान पैदा होता है। यह बात सही भी है। पर छापे ही किसी सिस्टम से नहीं, या सिस्टम तोड़ कर, डाले जांय तो इनका क्या असर जनता और ईमानदार कर दाताओं पर पड़ेगा ?
क्या यह छापे वित्तीय अनियमितता को उजागर करने के लिये डाले जा रहे हैं या इस छापों के माध्यम से सत्ता विरोधी खेमे में यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि, यदि खिलाफ हुए तो बख्शे नहीं जाओगे। वर्तमान समय मे जो भी छापे आयकर और ईडी के द्वारा डाले जा रहे हैं उनसे इसी बात की पुष्टि होती है कि यह छापे भयादोहन की रणनीति के अंतर्गत है, विशेषकर वे छापे जो अखबारों औऱ मीडिया के ऊपर डाले जा रहे हैं।
लंबे समय मे पुलिस में राजनीतिक दखलंदाजी की चर्चा होती रहती है औऱ उस दखलंदाजी को कम करने के रास्ते सुप्रीम कोर्ट से लेकर विभाग के आला अफसर तक ढूंढ रहे हैं। पर न तो वह दखलंदाजी कम हो रही है और न ही विभाग हिज मास्टर्स वॉयस के संक्रमण से बाहर आ रहा है। अब यही दखलंदाजी आयकर और ईडी में भी संक्रमित हो रही है।
सीबीआई तो तोता घोषित हो ही चुकी है। लॉ इंफोर्समेंट एजेंसियों का इस्तेमाल राजनीतिक स्वार्थ और प्रतिशोध के रूप में यदि होता रहा तो इन संस्थाओं के पेशेवर कामकाज पर बहुत विपरीत असर पड़ेगा। इससे उन अफसरों और कर्मचारियों के मनोबल पर भी असर पड़ेगा, जो एक प्रोफेशनल तरीके से अपना दायित्व औऱ कर्तव्य निभाना चाहते हैं।
राजनीतिक दलों को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि, कानून लागू करने वाली एजेंसियों को राजनीतिक द्वेष, प्रतिशोध और लाभ हानि का माध्यम नहीं बनाया जाना चाहिये। इसका परिणाम घातक ही होगा। यह प्रतिशोध का एक ऐसा अंतहीन सिलसिला शुरू कर देगा, जो राजनीतिक जमात के लिये भी कम घातक नहीं होगा और अपने उद्देश्य के लिये गठित यह लॉ इंफोर्समेंट एजेंसियां, अपने लक्ष्य, दायित्व और कर्त्तव्य से विचलित हो जाएंगी।