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क्या बेटे के जन्म की इतनी कामना के पीछे जैव वैज्ञानिक कारण छिपे हैं?

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यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि हम लैंगिकतावादी समाज का हिस्सा हैं जहाँ बोये बेटे ही जाते हैं बेटियां तो बस उग आती हैं। चिंताजनक लिंगानुपात और कन्या भ्रूण हत्या रोकने के कड़े कानून इसी वजह से हैं। इसका कारण पितृसत्तात्मक समाज को माना जाता है। आज के समय में देखा जाए तो लिंगभेद बेमानी और बिल्कुल अतार्किक है। पर ये भी उतना ही सच है कि हम आज जो कुछ भी हैं, वह लाखों करोड़ों वर्षों में पीढ़ी दर पीढ़ी गुणसूत्र(chromosomes) से जीन्स के रूप में स्थानांतरित स्मृतियों का परिणाम है।इसे ठीक से समझने के लिए हमें शुरू से शुरुआत करना होगी। मानव सभ्यता नहीं मानव जीवन की शुरुआत से.

हमारा यह मानना रहा है कि धर्म, प्रशासन, शिक्षा संस्थान सब केवल पुरुषों द्वारा महिलाओं के दमन-शोषण का काम करते आए हैं जो कि काफी हद तक सही भी है। महिलाओं पर नियंत्रण का सबसे प्रभावी तरीका उनको गर्भवती बनाए रखना है। लेकिन इतना भर मान लेने से क्या हम अपनी जैविक विरासत से मुँह मोड़ रहे हैं? आखिर वे क्या कारण रहे कि हमेशा से पुरुषों का वर्चस्व रहा? पुरुषों ने इस संसार पर इतना अधिकार कैसे जमा लिया?

महिला और पुरुष की कार्यक्षमता, बुद्धिमत्ता और प्रतिभा एक जैसी है या नहीं यह बहस का मुद्दा हो सकता है पर जैव वैज्ञानिक रूप से देखें तो दोनों के मस्तिष्क की संरचना और शारीरिक बनावट में साफ अंतर है। हालाँकि न कोई किसी से बेहतर है न बदतर। बस वे अलग हैं। दरअसल विवाद और विरोध का मुद्दा स्त्री पुरुषों का एक समान होना न होना नहीं बल्कि लैंगिकतवादी सोच होना चाहिए। महिलाओं की अभिरुचियों और प्रकृति प्रदत्त विशेषताओं और प्रतिभाओं के अनुरूप कार्य न लेने के कारण ही महिलाओं का बड़ा वर्ग पिछड़ता गया।

अगर हम मानव विकास क्रम को देखेंगे तो पाएंगे कि मनुष्य का स्तनपायी मस्तिष्क (mammalian brain) उसे सामाजिक प्राणी होने के लिए प्रेरित करता है। इसी कारण नर-नारी साथ में रहने को उद्धत हुए। फिर उनके झुण्ड बने, कबीले बने, इलाके बने, तहसीलें, राज्य, देश बने। उस समय दोनों की भूमिका एकदम स्पष्ट थी। पुरुष का विकास एक शिकारी और रक्षक के रूप में हुआ जिसका लक्ष्य शिकार करना और परिवार को जीवित रखना था। साथ ही अपने बीज अधिक से अधिक फैलाकर अपने वंश और शक्ति को बढ़ाना था।

महिलाओं का काम सन्तानोतपत्ति एवं पालन पोषण था। दोनों लिंगों का शारीरिक मानसिक विकास इसी के अनुरूप हुआ। लम्बे समय तक दोनों एक दूसरे के साथ सामंजस्य में काम करते थे। पुरुष खतरनाक और असुरक्षित जंगलों में शिकार करने जाते थे इसीलिए उनका शरीर माँसल, बलिष्ठ, उछलने-कूदने, तेज़ दौड़ने के लिए उपयुक्त बना। शिकार का पीछा करने और उसे वापिस मारकर गुफा या घरौंदे तक लाने के लिए एक ही लक्ष्य पर केंद्रित चौकन्नी निगाहें, रास्ते याद रखने की क्षमता और दिशा ज्ञान बहुत आवश्यक था जो कि आज भी पुरुषों की विशेषताएं हैं।

महिला की भूमिका भी उतनी ही स्पष्ट थी। भोजन संग्रह की बेहतर व्यवस्था, पोषण सम्बन्धी ज्ञान, विषैली और खाने योग्य वनस्पतियों की पहचान, स्वाद-गन्ध ज्ञान, सन्तान को जन्म देकर उसके पालन पोषण की पूरी ज़िम्मेदारी की अपेक्षा के कारण आसपास के परिवेश को समझना, खतरे की आहट भाँप लेना (जिसे सिक्स्थ सेंस भी कहा जाता है अब), दोस्ताना और शत्रुतापूर्ण चेहरों की पहचान, बॉडी लैंग्वेज, आवाज़ के उतारचढ़ाव और मन के भावों को पढ़ लेने की क्षमता, एक ही समय में कई काम कर लेनाऔर अपने घर और बच्चों की सुरक्षा के प्रति सतर्कता उसके नैसर्गिक गुण थे और आज भी हैं। उस समय कोई जेंडर कन्फ्यूज़न नहीं था। आज भी हमारे देश की कई आदिवासी जनजातियां, उत्तरी अमेरिका की पैलियोइंडियन जनजातियां, अफ्रीका इंडोनेशिया, बोर्नियो की प्राचीन सभ्यताएं, न्यूज़ीलैंड की माओरी जनजाति, कैनडा व ग्रीनलैंड के इनुइट लोगों में यही साधारण सरल व्यवस्था लागू है।

यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि संसार पर हमेशा टेस्टोस्टेरोन हॉर्मोन की अधिकता वालों का शासन रहा है, चाहे वह शेर, हाथी, कुत्ते, बिल्ली हों या हमारे इतिहास के अद्भुत लीडर। पुरुषों में इसका स्तर महिलाओं से ज़्यादा होता है। किसी गृहिणी की अपेक्षा बाहर जाकर काम करने वाली महिला का टेस्टोस्टेरॉन स्तर अधिक होगा। यहाँ तक कि इतिहास की असाधारण महिलाओं मार्ग्रेट थैचर, जॉन ऑफ आर्क, गोल्डा मायर, माताहारी, मैडम क्यूरी आदि में भी अतिरिक्त नर हॉर्मोन थे। जिन लीडरों का टेस्ट नहीं करवाया गया, उनमें भी ये आवश्यक रूप से बड़ा हुआ ही होगा। इसका नकारात्मक पहलू यह है कि जेलों में कैद अधिकतर हिंसक और क्रूर अपराधियों में भी इसका स्तर बहुत अधिक होता है।

यह एक बहुत बड़ा तथ्य है कि नर शिशुओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम और मृत्यु दर मादा शिशुओं से कहीं अधिक होती है। नर भ्रूण के गर्भपात की आशंका भी कन्या भ्रूण से अधिक होती है। जन्म से लेकर एक वर्ष की आयु का समय भी उनके लिए संकटपूर्ण होता है। फिनलैंड, जापान, अमेरिका आदि अलग अलग देशों में अलग अलग समय पर हुए सर्वे में ये तथ्य सामने आया कि आपातकालीन परिस्थितियों में जैसे विश्वयुद्ध, जापान का विध्वंसक भूकम्प, 9/11 के आतंकी हमले आदि के दौरान महिलाओं के स्वतः गर्भपात के मामले बहुत बढ़ गए जिसमें से अधिकाँश नर भ्रूण थे। इस पर हुए शोधों में पता लगा कि सँकट की परिस्थितियों में शरीर में स्रावित स्ट्रेस हॉर्मोन अपेक्षाकृत ‘कमज़ोर’ भ्रूण को खुद ही हटा देते हैं ताकि कमज़ोर सन्तति के पालन पोषण में संसाधन खर्च होने की बजाय नई गर्भावस्था का मार्ग प्रशस्त हो। संकटकाल में पैदा हुए अधिकाँश बच्चे इसीलिए बहुत मज़बूत और स्थिर होते हैं।

मनुष्य के लाखों वर्षों के विकास क्रम में 90% मानव समाज बहुपत्नी व्यवस्था वाले हुए हैं। यौन स्वच्छंदता पुरुष के विकासक्रम का अनिवार्य भाग रही है। हमेशा हर युद्ध और आक्रमण में पुरुषों की संख्या एकदम से घट जाती थी। इसलिए सन्तुलन बनाने व अपने कबीले और वंश को सशक्त बनाने के लिए पुरुष अधिक से अधिक संख्या में कई मादाओं में अपने बीज रोपित करना चाहता था। विशेषकर किसी बड़े युद्ध से बचकर आने वालों की संख्या काफी कम होती थी इसलिए एक पुरुष कई स्त्रियों को संरक्षण में ले लेता था। इसी कारण पुत्र को जन्म देने वाली स्त्री पूरे समुदाय में प्रशंसा और सम्मान की अधिकारी होती थी। जिसके जितने अधिक पुत्र होते थे उसे उतना महत्त्व और गौरव मिलता था। इसके विपरीत कन्या का जन्म निराशा लेकर आता था क्योंकि महिलाएं पहले ही अधिक होती थीं और समुदाय की रक्षा के लिए पुरुषों की आवश्यकता होती थी।

आज के समय में दिक्कत यह है कि मनुष्य का जैविक विकास क्रम वर्तमान परिदृश्य के हिसाब से घोर अतार्किक और लगभग पूर्णतः अप्रासंगिक हो गया है। आज पुरुषों से यह अपेक्षा बिल्कुल नहीं की जाती कि वह भाला और तीर कमान लिए शिकार के पीछे दौड़े या तलवार निकालकर प्रतिस्पर्धी नर से द्वंद्व करे या अपनी पत्नी से विश्वासघात करे। इसलिए उसके वे कौशल जो उसे विशिष्ट बनाते थे अब उतने काम के रहे नहीं। इसी तरह महिलाएं केवल बच्चा पैदा करने और उनकी देखभाल करने तक ही नहीं सीमित रहना चाहतीं, अपनी प्रतिभा का पूरा उपयोग करना चाहती हैं। परिवार का अस्तित्व अब केवल पुरुषों पर निर्भर नहीं रहा। पर एक पुरानी कहावत है न कि “पुरानी आदतें इतनी जल्दी नहीं छूटतीं।” आज हम जो हैं करीब दस करोड़ वर्ष के विकास क्रम का नतीजा हैं। हमारी अनुवांशिक स्मृतियां ज़िंदा हैं और अभी भी काम कर रही हैं। यह लैंगिकतवादी मानसिकता जाते जाते ही जाएगी। इस अस्थायी संसार में केवल परिवर्तन ही स्थायी है। इसलिए लड़कों के प्रति ‘अतिरिक्त मोह’ और लड़कियों के प्रति उपेक्षा वाली सोच आज नहीं तो कल सबको बदलना ही होगी।

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