क्या भारतीय मुस्लिम "राजनीतिक अछूत" हो गए हैं ?

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दोस्तों के साथ बैठा बैठा ये बात कर रहा था, कि मुल्क कितना बदल गया है. अब हर चीज़ हिंदू -मुस्लिम करने की कोशिश की जाने लगी है. आखिर इसका ज़िम्मेदार कौन है ? खूब बातें हुईं अलग-अलग नतीजे निकले – किसी ने कहा नेता लोग अपने बयानों से ये माहौल बना चुके हैं. तो किसी ने कहा कि नहीं ऐसा नहीं है, मीडिया ने उन बयानों को बढ़ावा देकर ये माहौल बनाया है. तो किसी ने कहा कि नहीं इस माहौल को बनाने में भाजपा आईटी सेल का काम है, उसने सोशल मीडिया से नफ़रत को बढ़ावा दिया. सभी लोग अपनी -अपनी बातें रखते गए. इसी बीच मेरा ध्यान कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद के बयान पर गया, जो उनोने देश के सांप्रदायिक माहौल पर टिप्पणी करते हुए दिया.
सर सैय्यद डे पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाब नबी आज़ाद ने कहा था कि बीते चार सालों में मैंने पाया है कि अपने कार्यक्रमों में बुलाने वाले जो 95 फीसदी हिंदू भाई और नेता हुआ करते थे, अब उनकी संख्या घटकर महज 20 फीसदी रह गई है। उन्होंने बताया था कि देशभर में कैंपेन होते थे और इसमें उन्हें बुलाने वालों में 95 फीसदी हिंदू भाई और नेता हुआ करते थे, जबकि सिर्फ 5 फीसदी ही मुसलमान उन्हें बुलाते थे। गुलाम नबी आज़ाद के इस बयान को मीडिया में हिंदुओं के अपमान की तरह पेश किया गया.
जबकि गुलाम नबी आज़ाद ने अपने बयान के ज़रिये देश की जनता की बदली मानसिकता और मुस्लिमों के नाम या उनकी उपस्थिति को लेकर बहुसंख्यक समाज के अन्दर बनाये गए डर व इस डर के कारण मुस्लिमों से राजनीतिक दलों और मुस्लिम राजनीतिज्ञों के नाम पर हिंदू वोट के कटने के डर के कारण किये जाने वाले राजनीतिक अछूत जैसे वर्तमान व्यवहार को दर्शाने की कोशी की है.
 
अब आप ही तय करें कि क्या देश में ऐसी मानसिकता नहीं बना दी गई है, क्या गुलाम नबी आज़ाद का दर्द देशहित में नहीं था. क्या भारत की एकता और अखंडता के ताने बाने को नुक्सान नहीं पहुंचा है. क्या देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के दिलों में मुस्लिमों के प्रति नफरत भरने के प्रयास नहीं किये गए.
वो पार्टियां जो खुदको सेकुलर कहने का दम भरती हैं, वो अब मुस्लिम उम्मीदवारों से इसलिए किनारा करने लगी हैं, क्योंकि उनके ऊपर मुस्लिम पार्टी होने का टैग लग गया है. मध्यप्रदेश में ऐसी खबर बहुत जोर शोर से चल रही है, कि कांग्रेस मात्र 2 या 3 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारने वाली है. क्योंकि कांग्रेस को डर है, कि मुस्लिम उम्मीदवार उतारने पर उसे हिंदुओं का वोट नहीं मिलेगा. दरअसल इसी समस्या की तरफ गुलाम नबी आज़ाद ने इशारा किया था.
अब सवाल ये उठता है, कि आखिर इस साम्प्रदायिकता को फ़ैलाने और बढ़ावा देने का ज़िम्मेदार कौन है? वैसे इस माहौल के लिए बहुत से लोग ज़िम्मेदार हैं, पर भाजपा नेताओं और सोशल मीडिया से ज़्यादा ज़िम्मेदार मैं कुछ मीडिया चैनल्स को मानता हूँ. जिन्होंने पिछले 4-5 सालों में बिना रुके हिन्दू मुस्लिम मुद्दों पर चर्चा की. उन्होंने देश को बांटने में अहम भूमिका निभाई. जी हना देश को मानसिक रूप से विभाजित करने में उन एंकर्स का बड़ा रोल रहा है. जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ हिन्दू मुस्लिम, पाकिस्तान , राष्ट्रवाद और ऐसे ही मुद्दों को अपना चैनल समर्पित कर दिया था.
क्या आपने नहीं देखा था कि कैसे लव जिहाद जैसे फ़र्ज़ी मुद्दे पर कैसे टीवी डीबेट्स चलाये गए थे. कैसे पाकिस्तान, सऊदी अरब और अन्य गल्फ कंट्रीज से इस फ़र्ज़ी मुद्दे के तार जोड़े गए थे. दरअसल देश की बड़ी आबादी के दिल व दिमाग में इतना कचरा पिछले दिनों में भर दिया गया है, कि किसी न्यूज़ एंकर ने अगर किसी मुस्लिम देश का नाम लेकर बोल दिया कि फलां देश से हो रही है, हिंदुओं के खिलाफ़ साज़िश. फलां देश में हिन्दू खतरे में है,…. फिर क्या हमारे देश की बड़ी आबादी इस बिना पर भारत के मुस्लिमों को अपना दुश्मन मान बैठती है.
लव जिहाद जैसा फ़र्ज़ी मुद्दा ख़त्म हुआ नहीं था, कि मुस्लिमों की आबादी, फिर रोहिंग्या, तीन तलाक़, मस्जिद मदरसों को आतंकी फंडिंग जैसा सफ़ेद झूठ और इतने में बस नहीं हुए. हर नेता के बयान को हिन्दू विरोधी बताकर पेश करना. यही सब हुआ है पिछले कुछ सालों में आप डेली उठाये जाने वाले मुद्दों को तो देखिये. कितनी बार किसानों के मुद्दों पर बहस हुई. कितनी बार बेरोज़गारी पर चैनल्स के प्राईम टाईम हुए. हाँ चर्चा हुई इन विषय पर, पर कैसी चर्चा ? जो आवाज़ उठता था उसे नक्सल बता दिया जाता. देश के विरुद्ध साज़िश करने वाला बता दिया जाता. अति तो तब हो जाती है, जब इन सब की आवाज़ उठाने वालों के तार भी पाकिस्तान से जोड़ने की कोशिश की जाती.
मुस्लिम गद्दार है, मोदी विरोधी देश के विरोधी हैं. क्योंकि मोदी जी हिन्दुहित की बता करते हैं, इसलिए उनका विरोध किया जाता है….आदि. इतना सब से काम न बने तो बाबरी मस्जिद और राम मंदिर का मुद्दा तो है ही. ये ऐसा मुद्दा है कि भावनात्मक ब्लैकमेलिंग की जा सकती है. अब जब दिन रात आम इंसान यही देखेगा तो उसके दिमाग में क्या बैठेगा? ये आप और हम अच्छी तरह से जानते हैं. ये मोब लिंचिंग का जो दौर चला था न, वो इन्ही टीवी डीबेट्स और इनके साथ साथ सोशल मीडिया में फैलाए जाने वाले ज़हर का ही नतीजा था. आपको क्या लगता है, कि शम्भूलाल रैगर ने अफराज़ुल की हत्या ऐसे ही सोशल मीडिया में फैलाए जाने वाले ज़हर को पढ़कर आकर दी होगी ? सुनिए साहब ये उन टीवी डीबेट्स का ज़हर था. जो वो देखकर अपने मस्तिष्क में ग्रहण कर रहा था. गाये के नाम पर होने वाले हत्याएं हों या फिर बुद्धिजीवियों की हत्याएं.
आपको आसिफा के बलात्कारियों और हत्यारों के समर्थन में निकाला गया जुलूस और फ़ेसबुक पोस्ट याद हैं कि भूल गए. या फिर आये दिन सोशल मीडिया में वायरल होने वाले वीडियो. इन सब में एक चीज़ कॉमन थी. और वो थी नफरत और किसी का खौफ न होना. आखिर वो नफरत आई कहाँ से? कौन है इसका ज़िम्मेदार ?
एक किस्सा और सुनिए मैं बाईक से जा रहा था, मैंने मुंह पर गमछा लपेटा हुआ था. थोड़ी देर चलने के बाद एक बुज़ुर्ग ने लिफ्ट मांगी, मैंने उन्हें अपनी बाईक पर बैठा लिया. थोड़ी दूर चलने के बाद, मैंने बुज़ुर्ग से पूछा – “काका जी वोट किसको दोगे, चुनाव आ गव है”, वोह बुज़ुर्ग शख्स बोले – भैया भाजपा को देंगे. मैंने पुछा ऐसी क्या वजह है कि भाजपा को वोट दिया जाये – काका जी बोले भैया अपन लोग हिन्दू हैं, और भाजपा अकेली हिंदुओं की पार्टी है. कांग्रेस अगर सत्ता में आई तो मुसलमान पॉवर में आ जायेंगे. मैंने तुरंत काका जी से कहा , काका जी कैसे आ जायेंगे, विधायक से लेकर मुख्यमंत्री तक. सब हिन्दू, फिर मुसलमान कैसे पॉवर में आ जायेंगे. तब उन्होंने कहा – बेटा इन लोगों की तादाद बहुत तेज़ी से बढ़ रही है. पहले इतने नहीं थे. ये लोग हिंदुओं से नफरत करते हैं. कुल मिलाकर वो बुज़ुर्ग मुस्लिमों से डर का इज़हार कर रहे थे. अब वो काका जी फ़ेसबुक तो चलाते नहीं होंगे. जैसा कि उन्हें देखकर महसूस किया. आखिर इस डर और नफरत को पैदा करने वाले वही टीवी डीबेट्स हैं. जो दिन रात TRP के नशे में मदहोश रहते हैं, और हिन्दू मुस्लिम मसाला पेश करते रहते हैं.
इस तरह मुस्लिम अब राजनीतिक अछूत बन गए हैं, राजनीतिक पार्टियाँ अब डरती हैं. कि कहीं मुस्लिम उम्मीदवार होने या मुस्लिम कार्यकर्ताओं के नज़र आने की वजह से हिन्दू वोट हमसे दूर न हो जाये.