क्या वामपंथ और नास्तिकता की आड़ में इस्लामोफोबिया परोसा जा रहा है?

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मैंने तकरीबन चार साल पहले एक थ्योरी बनाई थी। बैलेंसवाद। कुछ लोग मुंसघी करके एक टर्म यूज़ कर रहे थे। मैंने उन सबको टोका। मना किया। लेकिन अहंकार और व्यक्तिगत लड़ाई में एक दूसरे को कितना नीचे गिरा देना है, यही सोच कर वे सब मुसंघी शब्द का इस्तेमाल करते रहे। असल में इसकी शुरूआत एक वामपंथी ब्राह्मण ने की थी जो खुद को नास्तिक बताता फिरता था लेकिन उसे धार्मिक उत्सवों, कर्मकांड से ज़रा भी परहेज नहीं था। वह उन्हें देश की संस्कृति और उत्सवधर्मिता बता कर मना लिया करता था।

हर दिन नरेंद्र मोदी का विरोध करता था। सुबह शाम भाजपा को गाली देता था। दंगे फसाद के वक्त वह पीड़ित पक्ष का साथ देता था। आदमी कायदे का था लेकिन था बहुत काईंया। ऐसे दबे तरीके से चाल चलता था कि ठीक ठाक समझ वाले लोग भी समझ न पाएं। लिबरल हिंदू जो वाकई पंथनिरपेक्ष भारत, धर्मनिरपेक्ष भारत और बेहतर समाज का निर्माण चाहते थे, वे भी उसके तर्कों के समक्ष नतमस्तक थे। एक तरफ टीवी तथा सोशल मीडिया ने यह कुतर्क गढ़ दिया कि देश में हिंदुओं के साथ दोहरा रवैया अपनाया गया। मतलब हिंदुओं के गौरवशाली इतिहास, भूगोल, कला और बाक़ि तमाम चीज़ों के साथ जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेई तक ने गलत नज़रिया अपनाया और मुसलमानों तथा इस्लाम को हमेशा पुचकारा गया। पप्पी झप्पी ली गई। कोई भी पढ़ा लिखा और समझदार शख्स इस घटिया तर्क को पचा नहीं पाएगा।

यह झूठ इतनी बार बोला गया कि फेसबुक और ट्विटर पर आई नई पीढ़ी ने इसे सच मान लिया। अधेड़ तो वैसे ही इस झूठ के सहारे अपने बाल पका रहे थे कि हिंदुओं के साथ सबने गलत किया। और यह तर्क आरएसएस एवं उसके बाकि संगठनों ने लोगों के मन में डाल दिए। इससे हुआ यह कि हिंदुओं में अचानक से हिंसक प्रवृत्ति आ गई। कहीं दाढ़ी तो कहीं टोपी चेक की जाने लगी। गाड़ी में गाय और फ्रिज में गोश्त के नाम पर हत्या होने लगी। प्रेम को लव जिहाद और नॉर्मल मार पिटाई को भी धार्मिक रंग में रंगा जाने लगा। जिस सनातन धर्म में अहिंसा को सर्वोपरी माना गया, उसी सनातन की आड़ में भगवा गौरव की गाथा लिखी जाने लगी।

यह सब चलता रहा। हर बार हिंसा के बाद वामपंथी और उदारवादी साथी पीड़ित के साथ खड़े हुए। लेकिन इनकी गलती यह रही कि ये हिंदू धर्म को गरियाने लगे। जबकि आलोचना होनी थी उस खास समूह की न ही सभी हिंदुओं की। लाइन यहां से चेंज हुई। अब हर एक मॉब लिंचिंग पर तुरंत ही हिंदू धर्म पर सवाल खड़े कर दिए जाते। हिंदुओं के अराध्य-देवताओं पर कटाक्ष करती हुई फेसबुक पोस्ट दिखने लगती और मुसलमान उसे बड़े पैमाने पर शेयर करते। लिखने वाले हिंदू नामी प्रोफाइल की रातों रात लंबी पूछ (पूंछ नहीं) हो जाती। अब यही पूछ हर मामले में अटकने लगी। यहां जितने भी नास्तिकता के चैंपियन जमे हुए हैं सबकी पूछ उठाइए, कुछ न कुछ धार्मिक दिख ही जाएगा। या तो जांघिया या फिर तौलिया। दिखेगा ज़रूर।

अब जिस प्रोफाइल से हर दिन मोदी/हिंदू/हिंदुत्व/सनातन/ब्राह्मण की आलोचना हुआ करती थी उधर थोड़ा सा बिरयानी का भी लुत्फ उठाइए। फ्रांस पर भी गाली खाइए। हजरत मोहम्मद पर उपदेश सुनिए। कुरान पर तीखी टिप्पणी का मज़ा लीजिए। सेलीब्रेटी तो आपने ही बनाया है न।

क्या किसी को लगता है कि देश के मुसलमानों के पास संघ जैसी ताकत कभी आ सकती है? क्या कोई मुस्लिम संगठन कभी आरएसएस जैसी पकड़ देश पर बना सकता है? नहीं। कभी नहीं। तो फिर किस बात का मुसंघी? फेसबुक पर दो चार गाली लिख देने पर? संघ के बराबर तो क्या संघ के पैरों कि धूल भी देश का कोई मुस्लिम संगठन नहीं बन सकता। आरएसएस बड़ी चीज़ है, इसे किसी मुसलमान से तुलना करने वाला या तो बहुत बड़ा बकलोल है या धूर्त। ऐसा करने वाले लोग असल में बैलेंस बना कर रखना चाहते हैं। इनकी रीढ़ इतनी मजबूत नहीं की ये सीधे बैठ जाएं। आँख मिलाएं और बात करें देश के हर उस सिस्टम पर जहां वाकई में पक्षपात होता है, किसके साथ होता है यह बताने की ज़रूरत नहीं।

दुर्गा प्रतिमा जुलूस के वक्त मुंगेर जला दिया गया। थाना- चौकी सब फूंक दिया गया। कुछ लोग मारे गए। एसपी का तबादला हो गया। पुलिस वाले थाना छोड़ कर भाग गए। हमने अशोक पांडेय, महेंद्र यादव, पुरोषत्तम अग्रवाल, ओम थानवी, शकील खान, जावेद अख़्तर से कहा कुछ? नहीं। लॉ एन ऑर्डर का मामला है। राज्य पुलिस और सरकार देखे। पुलिस ने थाना जला रहे लोगों पर एक गोली नहीं दागी।

याद है बेंगलोर के एक थाने पर कुछ मुसलमान एक फेसबुक पोस्टकर्ता की शिकायत लेकर गए थे। पुलिस की फायरिंग हुई और पूरे देश के लिबरल-नास्तिक-वामपंथियों ने घटना को ऐसे पेश कर दिया कि मुसलमानों ने बेंगलोर जला दिया। जबकि भीड़ पुलिस की गोली के बाद आगजनी करने लगी थी। कहीं की भी भीड़ हो वह ऐसा ही करती है। चाहे दुर्गा पूजा की भीड़ चाहे मोहर्रम की भीड़। मसअला यह है कि मुंगेर में जो हुआ वह ईद मिलादुन्नबी के जुलूस के वक्त होता तो क्या होता? वही होता। आप सबसे माफीनामा लिखवाया जा रहा होता। इस्लाम के खत्म होने की घोषणा हो रही होती। NRC/CAA लागू करवा कर मानेंगे, ऐसी बाते लिखी जा रही होती।

यही चेहरा इस देश के जाहिल और कम पढ़े लिखे नास्तिक एवं कथित वामपंथियों का। मैंने कभी इनको तरजीह नहीं दी। पढ़ता हूं। लेकिन कभी आँख मूंद कर दरी नहीं बिछाने लगता। बहुत कम पढ़ता हूं इन सबको। कुछ ने तो मुझे ब्लॉक कर रखा है। कुछ के पोस्ट लोग भेज देते हैं। ये जिस अभिव्यक्ति की आज़ादी की बातें करते हैं, ज़रा इनसे तर्क करके देखिए, पूछिए की आपकी कोई तस्वीर बिना कपड़ों की, आपके ही घर के बाहर दरवाज़े पर, कॉर्टून की शक्ल में टांगी जाए तो क्या प्रतिक्रिया होगी।

“पर उपदेश कुशल बहुतेरे ,जे आचरहिं ते नर न घनेरे।” – श्री रामचरित मानस

आज कल उपदेशक बहुत हो गए हैं। अमलकर्ता कम। दूसरों को जो उपदेश दिया करते हैं, उनका खुद का आचरण देख लीजिए बस। हर एक धर्म का नियम है। जैसे हमारे देश का संविधान किसी राजनैतिक पार्टी के नियम कायदे। घर परिवार या फिर रिश्तों का कायदा। वैसे ही इस्लाम के भी नियम हैं। नहीं है कोई तस्वीर। नहीं बनेगा कॉर्टून। इस्लाम एकेश्वरवाद की अवधारणा पर निहित धर्म है। कॉर्टून बना। फिर तस्वीर बनी। लोग घर-दुकान पर लगा कर अगरबत्ती सुलगाने लगेंगे। इसकी मनाही है इस्लाम में। यहूदियों और ईसाईयों की हमेशा कोशिश रही कि इस्लाम के मूलस्वरूप को खत्म कर दिया जाए लेकिन वे हमेशा से नाकामयाब होते रहे। सैकड़ों सालों तक धार्मिक युद्ध होता रहा। फ्रांस जो कुछ कर रहा है वह क्रुसेड है न कि लिबरिल अप्रोच। उकसावे से कभी शांति नहीं स्थापित होती हम सबको पता है। आप थप्पड़ मारते रहें और इस बात की उम्मीद लगाएं कि हम कुछ बोले भी न। कोई ज़बरियन आकर आपके घर के छज्जे को गिराने लगे तो क्या आप मुंह थकते रहेंगे? विरोध करेंगे न। वहीं विरोध मुसलमान कर रहे हैं। हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए। हत्या करना कभी सही नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन थोड़ी सी आलोचना उनकी भी होनी चाहिए जो ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करते हैं।

खिलाफत आंदोलन तो सभी ने पढ़ा होगा। भारत की भूमि से ऐसा कौन नेता नहीं था जिसने बढ़ चढ़ कर हिस्सा न लिया हो। गाँधी से लेकर तमाम बड़े हिंदू नेता उस वक्त खिलाफत मूवमेंट के पक्ष में खड़े थे। वह भी शुद्ध मुस्लिम मुद्दा था। इस्लाम से जुड़ा हुआ। फ्रांस में कॉर्टून का बनाना भी शुद्ध इस्लामिक मुद्दा है। हमारी आस्था का सवाल है। हमने तो कभी किसी अराध्य के ग़ैर ज़रूरी कॉर्टून नहीं बनाए, न उनका समर्थन किया। तो फिर हम मुसलमानों का विरोध सिर्फ इसलिए कि वर्तमान की राजनीति ने हमें हिंदुओं से अलग थलग कर दिया है। हम अभिव्यक्ति की झूठी शान में इतने मदहोश हो गए हैं कि दुनिया की दो अरब की आबादी के यकीन और संवेदनाओं की खिल्ली उड़ाने लग जाएं। हमें खुद के भीतर झांकना ही होगा कि हम क्या और क्यों कर रहे हैं। इतना बेहिस हो जाना ठीक बात नहीं।

धन्यवाद सहित

आपका , अनस।

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