“क्लासिक” फ़िल्म देखना चाहते हैं तो लाल सिंह चढ्ढा ज़रूर देखिये

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एक बुझ बुझे से रहने वाले बच्चे की कहानी जो अपनी मां के आँचल के तले दुनिया को देखता है। जो थोड़ा सा “स्पेशल” चाइल्ड है और जिसे हर बार और बार परेशान किया जाता रहा है।

आमिर खान ने बहुत अच्छे से इस फ़िल्म में अपने रॉल को निभाया है,साथ ही करीना जो बार बार गायब हो रही थी अपने रोल में अच्छी नज़र आती हैं साथ ही साथ मोना सिंह ने वाक़ई कमाल की कलाकारी की है।

फ़िल्म शुरू से लेकर आखिर तक बंधी हई है कही भी उसमें ढिलाई नहीं बरती गई है,बहुत अच्छे मौकों पर गाने हैं और ज़रूरत के मौके पर कॉमेडी सीन हैं और रोमांटिक दास्तान का मिक्सर तैयार किया गया है।

कहानी के मामले में 1977 से लेकर 2014 तक की कई अहम घटनाओं को बहुत खूबसूरती से और कम वक्त दिखाया गया है जो काफी अरसे तक याद रखा जाएगा क्योंकि ऐसा एक्सपेरिमेंट कम हुआ है हमारे यहां और भी होना चाहिए।

इस फ़िल्म में अगर किसी दृश्य को अवार्ड दिया जाना चाहिए तो वो है “सिख नरसंहार” 1984 में लाल और उसकी मां के उस बवाल में फंस जाने का दृश्य है । यह दृश्य एक मां को लेकर है जो अपने बच्चे की जान चले जाने का खतरा महसूस करती है।

वो उस सिख बच्चे के केश (बाल) वहाँ पड़े कांच से काट देती है। बेहद मार्मिक और तकलीफदेह दृश्य है क्या बीती होगी उस मां पर कितना बोझा होगा उस पर ये सोच कर आँसू आ जाते हैं।

इस फ़िल्म की कमी है आमिर खान… जो थोड़ा सा ज़्यादा “एक्टिंग” कर गए हैं,क्योंकि ये फ़िल्म “फारेस्ट गम्प” का रीमेक है तो समझना चाहिए कि टॉम हैंक्स ने खुद को शांत रखा और शांत रहते हुए उन्होंने सब कुछ कह देने की कोशिश की है।

वहीं आमिर खान “उम्म” की थोड़ी सी बढ़ोतरी कर गए हैं जिसके बिना काम हो सकता था और भी अच्छा हो सकता था।

फ़िल्म को देख सकते हैं, अच्छी कहानी है,निराश नहीं होंगे क्योंकि बहुत अलग फ़िल्म है जैसी अक्सर हमारे यहां नहीं बनती है।