महात्मा गांधी द्वारा किया गया, नमक कानून का विरोध, जो, दांडी यात्रा के नाम से दुनियाभर में प्रसिद्ध है, के पहले देश की राजनीतिक स्थिति, बहुत कुछ निराशाजनक थी। गांधी 1924 में अपने दो लेखों के कारण देशद्रोह के आरोप में 6 साल के लिए सज़ा पा कर यरवदा जेल भेजे गए , हालांकि वे सज़ा की अवधि पूरी होने के पहले ही बीमार होने के कारण, छोड़ दिये गए थे और बम्बई में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। उसके काफी पहले, असहयोग आंदोलन के बीच, अचानक, चौरीचौरा हिंसा के बाद, कांग्रेस में मतभेद उभर आये थे और एक निराशा का वातावरण बन गया था।
राजनीतिक गतिविधियों के बजाय, गांधी जी ने खुद को समाज सुधार के कामों में व्यस्त कर लिया था। कांग्रेस के तत्कालीन नेता, मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास, स्वराज पार्टी का गठन कर के, केंद्रीय असेम्बली के लिए चुन लिए गए थे। स्वाधीनता संग्राम में यह काल, राजनीतिक गतिविधियों की अपेक्षा, सन्नाटे का था, पर यह शांति, आने वाले तूफान पूर्व की शांति थी। गांघी के मन मे क्या था, यह कोई भांप नहीं पा रहा था।
उस दौरान दो घटनाएं ऐसी घटी जिसने, स्वाधीनता संग्राम की दिशा ही बदल दी। एक थी, ब्रिटिश सरकार द्वारा साइमन कमीशन की घोषणा और दूसरा उसका प्रबल विरोध। साइमन कमीशन की सदारत, सर जॉन साइमन कर रहे थे, और उनके साथ, इस कमीशन में सात अन्य सदस्य थे, जो सभी ब्रिटेन की संसद के मनोनीत सदस्य थे। इसे ‘श्वेत कमीशन’ कहा गया।
साइमन कमीशन की घोषणा 8 नवम्बर, 1927 ई. को, की गई। कमीशन को इस बात की जाँच करनी थी कि, ‘क्या भारत इस लायक़ हो गया है कि यहाँ लोगों को संवैधानिक अधिकार दिये जाएँ। इस कमीशन में किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था, जिस कारण इसका बहुत ही तीव्र विरोध हो रहा था। यह कमीशन, भारत के लोगों को उनकी मर्जी से, स्वशासन की राह खोजने के लिये निकला था। इसके कार्यक्रम में बम्बई, मद्रास, कलकत्ता, लाहौर आदि शहरों में, जाकर भारतीयों से मिलना और उनके मन की थाह लेना था।
जैसे ही इस कमीशन के अध्यक्ष और सदस्यों के नाम की घोषणा हुई, वैसे ही, इसका प्रबल विरोध, भारत मे शुरू हो गया। साइमन कमीशन जिस दिन बम्बई में तट पर पहुंचा, उसी दिन बम्बई में एक व्यापक हड़ताल हो गई और किसी भी भारतीय नेता, चाहे वह कांग्रेस का हो, या मुस्लिम लीग का, ने कमीशन से मिलने से मना कर दिया। बम्बई ही नहीं, देश मे जहां जहां भी यह कमीशन गया, वहां वहां आम हड़ताल हुयी और साइमन गो बैक, के नारे लगाए गए।
रौलेट एक्ट के बाद यह एक बड़ा स्वयंस्फूर्त बहिष्कार आंदोलन था। गांधी ने लेख और पत्र लिख कर, ब्रिटिश सरकार के इस विश्वासघात पर, अपनी नाराजगी जताई और शांतिपूर्ण विरोध का आह्वान किया। असहयोग आंदोलन के अचानक वापस लेने के बाद, जो निराशा फैलने लगी थी, वह दूर होने लग गई थी।
इसी क्रम में, यह कमीशन, लाहौर पहुंचा। पंजाब की राजधानी लाहौर में, कमीशन का जबरदस्त विरोध हुआ, और वहां इस आंदोलन का नेतृत्व, पंजाब केसरी कहे जाने वाले पंजाब के सबसे सम्मानित नेता, लाला लाजपतराय ने किया। उनके द्वारा आयोजित एक शांतिपूर्ण आंदोलन पर पुलिस ने बर्बरता से लाठियां चलाई और उस बीभत्स बल प्रयोग से लाला लाजपतराय को बहुत चोटें आई और वे उस चोट से उबर नहीं सके तथा थोड़े दिनों में उनका देहांत हो गया। तभी उन्होंने कहा था, ‘मेरे ऊपर पड़ी लाठी की एक एक चोट, ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत की कील बनेगी।’
लाठीचार्ज का आरोप सांडर्स नामक एक पुलिस अफसर पर लगा था, हालांकि लाठीचार्ज का आदेश पुलिस सुपरिटेंडेंट स्कॉट ने दिया था। उसके भ्रम में क्रांतिकारी आंदोलन के बहादुरों ने लाहौर के एक चौराहे पर, 17 दिसंबर 1928 को शाम करीब सवा चार बजे, गलत पहचान के चलते स्कॉट की जगह सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पी़ सांडर्स की हत्या कर दी। इस दौरान चानन सिंह नाम का एक हैड कांस्टेबल भी मारा गया था जो क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए दौड़ रहा था। इसी सांडर्स हत्याकांड में भगत सिंह के ऊपर हत्या का मुकदमा चला जब, वे असेम्बली में धमाके वाला बम, फेंक कर, वहीं खड़े रह गए थे, वहां से भागे नहीं थे। भगत सिंह, और उनके कॉमरेड पकड़े गए और जेल भेज दिए गए।
उस समय, आज़ादी के लिये, हिंसा का रास्ता उचित है या अहिंसा का, इस पर लंबी बहस चली और यह बहस गांधी जी तथा, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के भगत सिंह आदि के बीच चली। इसी बीच, लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन भी, 1929 में आयोजित हुआ। कांग्रेस का अधिवेशन शुरू होने से ठीक पहले लाहौर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए, गांधी ने घोषणा की, ‘निर्दोष पुरुषों पर बम विस्फोट करके कभी भी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की जा सकती।’
कांग्रेस अधिवेशन समाप्त होने के बाद, गांधी, जब लाहौर से वापस रवाना हुए तो, ट्रेन में ही, गांधी ने अहिंसा के अपने संकल्प को दुहराते हुए एक महत्वपूर्ण लेख, का ड्राफ्ट तैयार किया।
यह लेख, यंग इंडिया के 1930 के पहले अंक के लिये, तैयार किया गया था। लेख उस पहले अंक में, प्रकाशित भी हुआ।
लेख की शरुआत, इस प्रकार होती है,
“भारत के राजनीतिक समाज के मस्तिष्क में और हमारे आसपास के माहौल में इतनी हिंसा फैल गई है कि, कभी यहां एक बम फेंका जाता है, और वहां एक बम फेंक दिया जाता है। गांधी ने महसूस किया और लिखा, ‘भारत में अपनी यात्रा में उन्होंने देखा कि, जनता का अधिकांश, इस तथ्य के प्रति जागरूक हो गया है कि, उन्हें स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, और वे हिंसा की भावना से भी दूर हैं।’
उस समय जैसी घटनाएं पंजाब में घट रही थीं और देश मे क्रांतिकारी आंदोलन भी, जगह जगह अपनी गतिविधियां संचालित कर रहा था, तब, स्वाधीनता संग्राम में, हिंसा के इस्तेमाल के खिलाफ, गांधी जी ने, दो व्यावहारिक तर्क दिए। उनका कहना था, ‘हिंसा से सरकार को दमन करने का अवसर मिलेगा। सत्ता कैसी भी हो, वह किसी भी हिंसक घटनाओं के खिलाफ अधिक तेजी और ताक़त से उस हिंसा का हिंसक दमन करने में सक्षम रहती है। उन्होंने कहा, ‘हर बार जब जब हिंसा हुई है तो हमें भारी नुकसान हुआ है, यानी सरकार के पुलिस और सैन्य खर्च में वृद्धि हुई है।
दूसरा तर्क उनका था, ‘हिंसा की संस्कृति या पंथ अंततः उस समाज को बदल देता है जो इसे पैदा करता है। क्योंकि, ‘विदेशी शासक के साथ की गई हिंसा से, अपने ही लोगों के प्रति हिंसा, जिन्हें हम देश की प्रगति में बाधक मान सकते हैं, एक सहज स्वाभाविक कदम होता है।’ गांधी का तर्क था, हिंसा भले ही विदेशी शासक के विरुद्ध हो, लेकिन उस हिंसा को उस शासन में काम करने वाला भारतीय भी भोगता है और इस प्रकार हिंसा, प्रतिहिंसा और प्रतिशोध का एक लंबा और अंतहीन सिलसिला बनता जाता है।
उसी लेख में गांधी कहते हैं, ‘हिंसा के माध्यम से अंग्रेजों को बाहर निकालने की कोशिश करना, स्वतंत्रता की ओर नहीं, बल्कि पूरी तरह से भ्रम की ओर ले जाएगा। हम अपने मतभेदों को मन और मस्तिष्क से चिंतन करते हुए, एक अपील के माध्यम से, आपस में एकता विकसित करके ही स्वतंत्रता पा सकते हैं, न कि, उन लोगों को आतंकित या मारकर, जिनके बारे में, हम सोचते हैं, कि वे हमारे पथ में, बाधा डाल सकते हैं। लेकिन इसके लिए, धैर्य और सौम्य व्यवहार से, प्रतिद्वंद्वी को परिवर्तित करना होगा …” गांधी अब भी अहिंसा पर अडिग थे। वे लगातार बढ़ती हिंसक घटनाओं से विचलित तो थे पर, अपने अहिंसा के सिद्धांत पर अटल थे।
गांधी के इस लेख को पंजाब के युवा क्रांतिकारियों ने पढ़ा और उन्होंने, इसका एक जुझारू जवाब तैयार किया, जिसे एक पैम्फलेट के रूप में छापा गया और उस पर्चे की एक प्रति साबरमती आश्रम में गांधी जी को डाक से भेजी गई। पर्चे की शुरुआत, क्रांतिकारी विश्वास के उत्साहजनक उद्घोष, इंकलाब जिंदाबाद के साथ हुई। एचएसआरए ने जुड़े क्रांतिकारी आंदोलन के साथियों ने कहा, “सशस्त्र संघर्ष, ‘उत्पीड़कों के दिलों में डर पैदा करता है, यह उत्पीड़ित जनता के लिए बदला और मुक्ति की आशा लाता है, यह डगमगाने वालों को साहस और आत्मविश्वास देता है, यह श्रेष्ठता के जादू को तोड़ देता है। शासक वर्ग और दुनिया की नजरों में प्रजा जाति का दर्जा ऊंचा करता है…”
क्रांतिकारियों ने दावा किया कि, “गांधी के विपरीत, वे जानते हैं, कि जनता कैसे रहती है और कैसे सोचती है। और ‘औसत इंसान’ ‘अहिंसा’ और ‘अपने दुश्मन से प्यार करने’ की सूक्ष्म धार्मिक बारीकियों को समझता है।”
पर्चे में आगे लिखा था, “संसार की रीति ही ऐसी है। तुम्हारे पास दोस्त हैं; तुम उससे प्यार करते हो, कभी-कभी इतना कि तुम उसके लिए मर भी जाते हो। तुम्हारा एक शत्रु है, तुम उससे दूर रहो, तुम उससे लड़ते हो, और यदि संभव हो तो उसे मार डालो। आदम और हव्वा के दिनों से यही रीति है और किसी को भी इसे समझने में कोई कठिनाई नहीं है।”
गांधी की अहिंसा और क्रांतिकारी आंदोलन की हिंसा के बीच यह एक वैचारिक वाद विवाद था
एचएसआरए पैम्फलेट 1930,के प्रकाशित होते ही, गांधी के राजनीतिक विरोधियों द्वारा गांधी की कई आलोचनायें की गई। उसी दौरान, ऋषिकेश से एक संस्कृत पढ़ने वाले छात्र का एक पत्र गांधी जी को मिला। उस छात्र ने अपने पत्र में अपनी बात लिखते हुए, गांधी से इस विंदु पर भी विचार करने का आग्रह किया कि, “हिंदू पुजारियों और विद्वानों का समुदाय ‘पंडित समाज’ आखिर, उनसे इतना नाराज क्यों है। क्या इसलिए नहीं कि, उन्होंने सहमति और विवाह की उम्र बढ़ाने वाले विधेयक का समर्थन किया था?”
दरअसल हुआ यह था कि, 28 सितंबर 1929 को इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में, लड़कियों के विवाह की आयु, 14 वर्ष और लड़कों की 18 वर्ष, जो पहले तय की गई थी, को बाद में बढ़ाकर, लड़कियों के लिए 18 और लड़कों के लिए 21 वर्ग कर दिया गया। इसके प्रायोजक हरविलास शारदा थे जिनके नाम पर इसे ‘शारदा अधिनियम’ के नाम से जाना जाता है। यह केवल हिंदुओं के लिए नहीं बल्कि ब्रिटिश भारत के सभी लोगों पर लागू होता है। यह भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन का परिणाम था। गांधी ने इस विधेयक का विरोध नहीं किया था।
पंडित समाज की, गांधी जी से नाराजगी का, यह भी एक कारण था। शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी में लिखने वाले युवा विद्वान ने, गांधी को बताया कि, “प्राचीन धर्म संहिता का उल्लंघन करके, इस विधेयक ने राष्ट्रीय एकता की जड़ को काट दिया है। भारत को समृद्ध होना है या उसका क्षय होना, यह हिंदू धर्म के पालन पर निर्भर करता है। अगर विश्वास चला गया, तो देश को कुछ भी नहीं बचा सकता है।”
गांधी पर वामपंथी क्रांतिकारियों, दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों और मध्यमार्गी उदारवादियों द्वारा भी हमले किये गये थे। गांधी इस प्रकार, हर विचारधारा के निशाने पर थे। पर वे अपनी सोच पर अटल रहे और विचलित नहीं हुए। ऐसा नहीं था कि, गांधी जी के विचारों की यह पहली आलोचना थी। एक तरफ, उनकी आलोचना, उनके अहिंसा के सिद्धांत के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष के हिमायती, क्रांतिकारी आंदोलन के साथियों ने किया, तो दूसरी ओर, उनके, शारदा विधेयक के समर्थन से नाराज, पंडित समाज ने, उन्हे हिंदू विरोधी कह कर उनकी आलोचना की।
इसी बीच, सत्यानंद बोस नामक एक बंगाली युवक, जिसने, 1915 में, गांधी जी के, ब्रह्मचर्य पर जोर देने की बात की आलोचना की थी ने, पंद्रह साल बाद, उसी सत्यानंद ने, महात्मा गांधी से आग्रह किया कि वे, अंग्रेजों के खिलाफ एक नया संघर्ष शुरू न करें। सत्यानंद बोस ने लिखा, “केवल एक विशेष उपाय के रूप में किसी समस्या विशेष के समाधान के लिए, सविनय अवज्ञा उचित हो सकती है, लेकिन, स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए सविनय अवज्ञा का उपयोग का सफल होना, मनोवैज्ञानिक रूप से असंभव है। इससे जनता की भावना नहीं जगेगी।”
गांधी की योजनाओं के आलोचक शौकत अली, जिन्हें उनका ब्लड ब्रदर यानी रक्त भ्राता कह कर संबोधित किया जाता था, भी थे। अली बंधु में बड़े भाई शौकत अली ने कहा कि, “हम निश्चित रूप से अब अलग हो गए हैं।’ इस अलगाव के लिए, उन्होंने गांधी को ही जिम्मेदार ठहराया। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि, अली बंधु, गांधी जी के साथ खिलाफत आन्दोलन से ही जुड़े थे ओर खिलाफत आंदोलन एक समय काफी लोकप्रिय भी हुआ था।
लाहौर कांग्रेस और पूर्ण स्वराज की घोषणा के संबंध में, गांधी के पूर्व सहयोगी, शौकत अली ने टिप्पणी की थी, “मुसलमानों से बिना परामर्श किए, सरकार के खिलाफ युद्ध की कोई भी घोषणा शायद सफल नही होगी, बल्कि, इससे आपसी मतभेद ही बढ़ेंगे, जिससे गृहयुद्ध की स्थिति आ सकती है। आपस में हो सकने वाले, ऐसे, कटु विवाद, आपके या हमारे द्वारा बनाई गई सभी योजनाओं की विफलता का कारण बनते हैं।”
महात्मा गांधी और अली बंधुओं के संबंध पहले जैसे नहीं रह गए थे और उन्होंने, कांग्रेस की बैठकों में भाग लेना बंद कर दिया था। नेहरू रिपोर्ट, जो मोतीलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत की गई थी पर भी अली बंधु ने, सार्वजनिक रूप से, नाराजगी जताई। नेहरू रिपोर्ट भारत के लिए प्रस्तावित नए डोमिनियन के संविधान की एक रूपरेखा थी। 10 अगस्त, 1928 को प्रस्तुत (28-31 अगस्त के बीच पारित) यह रिपोर्ट ब्रितानी सरकार द्वारा, भारतीयों को, संविधान बनाने के लिए अयोग्य बताने की चुनौती का, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में दिया गया सशक्त प्रत्युत्तर था।
गांधी एक नया आंदोलन शुरू करना चाहते थे, पर उनके सहयोगी और पुराने साथी भी असमंजस में थे। कहीं न कहीं एक अविश्वास का वातावरण था। हालांकि शौकत अली की सलाह का समर्थन, गांधी के नजदीकी, कांग्रेसी नेता, एमए अंसारी ने स्वतंत्र रूप से तो नहीं किया लेकिन, एक लंबे, और संशय भरे पत्र में, डॉ अंसारी ने, गांधी जी से कहा कि “आप सरकार के खिलाफ युद्ध की घोषणा करके खुद पर एक बड़ी जिम्मेदारी ले रहे हैं’, क्योंकि ‘आज की स्थिति 1920 में जो थी, उसके बिल्कुल विपरीत है, जब आपने शुरुआत की थी।”
कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का संकल्प ले लिया था तो अब उस संकल्प के लिए प्रयास भी तो करना था। जाहिर था, जब होमरूल, अधिराज्य जैसी आधी आजादी तक देने में जब ब्रिटिश आनाकानी कर रहे थे, तब भला, बिना किसी आंदोलन या संघर्ष के वे पूर्ण स्वतंत्रता के लिए राजी होते ! डॉ अंसारी, विशेष रूप से हिंदू-मुस्लिम संबंधों के संबंध में, असहयोग आंदोलन से, अलग वर्तमान परिस्थितियों की बात कर रहे थे। डॉ अंसारी ने, सन 1920 और 1930 की राजनीतिक स्थिति का भी आकलन किया और अपने पत्र में, उन्होंने दोनो ही काल खंड की परिस्थितियों का उल्लेख किया।
अपनी किताब गांधी, द़ इयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड में, रामचंद्र गुहा ने डॉ अंसारी के अध्ययन की एक तालिका दी है, जिसके अनुसार, सन 1920 में
- प्रथम विश्वयुद्ध के समय, ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए वादों को पूरा न करने के कारण, अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारी असंतोष था।
- रॉलेट एक्ट, मार्शल लॉ, के खिलाफ, देश भर में व्यापक असंतोष था।
- खिलाफत के खिलाफ ब्रिटिश रवैए से, मुस्लिम, अंग्रेजी राज से नाराज थे और वे आंदोलन चाहते थे।
- समाज में हिंदू-मुस्लिम एकता थी और पंजाब में ब्रिटिश दमन के कारण, सिख पूरी तरह से गांधी के आंदोलन के साथ थे।
- कांग्रेस के अंदर पूर्ण एकता थी। कार्यकर्ताओं में गजब का उत्साह था।
जबकि 1930 में
- बड़ी संख्या में लोग लेबर सरकार की सद्भावना और वायसराय की ईमानदारी को लेकर एकमत नहीं हैं।
- हिंदू-मुस्लिम एकता में गिरावट आई है।
- सिख, किसी अहिंसक आंदोलन के पक्ष में, लगभग पूरी तरह खिलाफ न भी हों तो, वे पूरी तरह से साथ भी नहीं है।
- कांग्रेस में, क्या किया जाय, इस स्पष्ट उद्देश्य के अभाव के कारण फूट है। कार्यकर्ताओं में, किसी आंदोलन को लेकर, उत्साह नहीं है।
- हिंसा और अहिंसा के वैचारिक मतभेदों के कारण कांग्रेस वैचारिक रूप से बिखर रही है।
डॉ अंसारी का मत था कि, ‘ब्रिटिश राज का मुकाबला करने के बजाय, कांग्रेस को पहले मुसलमानों को सांप्रदायिकता और प्रतिक्रियावादी नेताओं के प्रभाव से दूर करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए और “राष्ट्रवाद” के संदर्भ में सोचना और कार्य करना चाहिए।’
डॉ अंसारी, किसी भी आंदोलन की योजना बनाने के पहले, हिंदू मुस्लिम साम्प्रदायिकता को खत्म करना चाहते थे। एक प्रकार से डॉ अंसारी का विचार और उनके संशय आधारहीन थे भी नहीं। पर क्या, जब तक, साम्प्रदायिकता की समस्या का, पूर्ण समाधान न हो जाय, तब तक कोई भी ब्रिटिश राज विरोधी आंदोलन, छेड़ा ही न जाय। जबकि, यह समस्या भी ब्रिटिश साम्राज्य की ही देन थी और उनके साम्राज्यवादी नीति, फूट डालो और राज करो की नीति से संचालित हो रही थी। इसका समाधान इतना आसान भी नहीं था। गांधी का यह भी मानना था कि, ‘आजादी सबसे पहली और जरूरी प्राथमिकता है और अन्य मुद्दे, बाद में हल किए जा सकते हैं।’
गांधी ने, क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े साथियों, हिंदू प्रतिक्रियावादी तत्वों, मॉडरेट कहे जाने वाले ड्राइंग रूम एक्टिविस्ट, या इस्लामी कट्टरपंथी लोगों के पत्रों का, कोई जवाब नहीं दिया और न ही वे, उनसे किसी बहस में उलझे। यह गांधी जी की उस आदत के विपरीत था, क्योंकि, वे हर प्राप्त पत्र का, उत्तर जरूर देते थे, लेकिन इस बार वह चुप रहे। लेकिन, उन्होंने अपने मित्र और साथी कांग्रेस नेता डॉ. अंसारी के पत्र का जवाब भी दिया और उनकी शंका निवारण की कोशिश भी की।
वह डॉ अंसारी की इस बात से सहमत थे कि ‘हिंदू-मुस्लिम समस्या, समस्याओं की समस्या है’। लेकिन, उन्होंने डॉ अंसारी को पत्र लिख कर कहा, “ब्रिटिश सत्ता को निष्फल करना होगा… इसलिए उन लोगों द्वारा सविनय अवज्ञा को दिन-प्रतिदिन गढ़ा जाना चाहिए, जो मानते हैं कि, अहिंसा से कोई बच नहीं सकता है और हिंसा से भारत को कभी स्वतंत्रता नहीं मिलेगी।” गांधी ने अपने संशयवादी सहयोगी से कहा कि “मुझे लगता है कि मैं अब अपना रास्ता साफ देख रहा हूं …. अगर यह सब मतिभ्रम है तो मुझे अपनी ही आग की लपटों में नष्ट हो जाना चाहिए।” गांधी, अहिंसा पर भी दृढ़ थे और ब्रिटिश राज के खिलाफ एक सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने पर भी। आलोचनानाओ, निंदा, संशय और आक्षेपों के बीच वे अडिग और विचलित बने रहे।
एमए अंसारी ने गांधी जी को भेजे,अपने पत्र की एक प्रति मोतीलाल नेहरू को भी भेजी थी, और उन्हे उम्मीद थी कि, एक संविधानवादी होने के कारण, मोतीलाल नेहरू, अंसारी के संशय और सांप्रदायिक समस्या के समाधान को प्राथमिकता देंगे और वह मुसलमानों के बिना एक जन आंदोलन शुरू करने के बारे में, अंसारी की आपत्ति का समर्थन करेंगे। लेकिन जवाहरलाल नेहरू, जिनकी सदारत में, कांग्रेस से, पूर्ण स्वराज्य का संकल्प लिया था ने, अंसारी और अपने पिता के बीच हो रहे इस संवाद में दखल दिया और वे, पूरी तरह से गांधी के पक्ष में खड़े हो गए। जवाहरलाल नेहरू का मत था कि, ‘याचिकाओं और प्रतिवेदन का समय, अब नहीं रहा।’
मोतीलाल नेहरू भी अब लगभग सत्तर वर्ष के हो चुके थे; उनका स्वास्थ्य भी खराब था। लेकिन उनके बेटे और गांधी के जुनून ने उनकी सारी आशंकाओं को दूर कर दिया था। उन्होंने अब अंसारी को उत्तर दिया, “सबसे बड़े प्रयास और सबसे बड़े बलिदान का समय आ गया है। मुझे अपनी उम्र में और अपनी शारीरिक अक्षमताओं के साथ और अपने पारिवारिक दायित्वों के साथ खुद को सामने आने के लिए प्रेरित करना होगा। मैं देश की स्पष्ट पुकार सुन रहा हूं। ” अब ब्रिटिश विरोधी आंदोलन का स्वरूप क्या होगा, कैसे होगा, किस तरह होगा, यह सब एक ही व्यक्ति के दिमाग में था, और वह थे गांधी। यह तूफान के पहले का सन्नाटा था। (क्रमशः)
(विजय शंकर सिंह)