देश की राजधानी से सटे गुड़गाँव में एक मस्जिद को सीज़ कर दिया गया, अल्पसंख्यक समुदाय के लोग वहाँ दो दिन से बाहर बैठे हैं पर राजधानी में कहीं कोई हलचल नहीं? आख़िर क्यों?
क्या इक्कीसवीं सदी के इस चमकते भारत में बहुसंख्यक गुंडागर्दी एवं आतंक के सहारे देश की व्यवस्था चलेगी? कानून एवं संविधान का राज क्या सिर्फ़ किताबों तक ही सीमित रहेगा? मुसलमानों के मसलों पर ‘राइट टू फ़्रीडम ऑफ़ रिलीजन’ कहाँ चला जाता है?
क्या देश का बहुसंख्यक समाज अब ये तय करेगा कि अल्पसंख्यकों को इबादत किसकी करनी है, खाना क्या खाना है, कपड़े क्या पहनना है?
धर्मनिरपेक्ष राजनीति क्या मर चुकी है जो ऐसे संवेदनशील मसलों पर ख़ामोश है? कहाँ गए राहुल, माया, अखिलेश?
दिल्ली में दिन रात जो सामाजिक न्याय की बात करते हैं, दलित-पिछड़ा एवं मुस्लिम एकता की बात करते हैं, वे लोग ऐसे मसलों पर बिल में क्यों घुस जाते हैं? क्या मुसलमानों का सिर्फ़ वोट चाहिए इसीलिए ये तमाम तरह की एकता का नाटक करते हैं?
पाँच लोगों की दिनभर के लिए हुई गिरफ़्तारी पर देश में फ़ासीवाद और लोकतंत्र की हत्या हो जाती है पर वहीं दूसरी तरफ़ हर रोज़ अल्पसंख्यक समुदाय के इबादतगाहों, उनके खान-पान उनके रहन-सहन, उनकी संस्कृति पर हमला किया जा रहा है पर इससे देश में फ़ासीवाद नहीं आता है। आख़िर क्यों?
मानवाधिकारों पर लम्बा लम्बा लेक्चर देने वाले राहुल गांधी क्या गुड़गाँव के मुसलमानों के बीच जाकर प्रशासन के इस नापाक हरकत का विरोध करेंगे। इस बेईमान धर्मनिरपेक्ष राजनीति की वकालत करने वाले लोग क्या अपने नेता की ख़ामोशी पर सवाल खड़ा करेंगे?