पहले यह प्रसिद्ध उद्धरण, जो जवाहरलाल नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया से लिया गया है को पढें।
” कभी ऐसा भी होता कि जब मैं किसी जलसे में पहुंचता, तो मेरा स्वागत ‘भारत माता की जय’ नारे के साथ किया जाता। मैं लोगों से पूछ बैठता कि इस नारे से उनका क्या मतलब है? यह भारत माता कौन है जिसकी वे जय चाहते हैं। मेरे सवाल से उन्हें कुतूहल और ताज्जुब होता और कुछ जवाब न सूझने पर वे एक दूसरे की तरफ या मेरी तरफ देखने लग जाते। आखिर एक हट्टे कट्टे जाट किसान ने जवाब दिया कि भारत माता से मतलब धरती से है। कौन सी धरती? उनके गांव की, जिले की या सूबे की या सारे हिंदुस्तान की?
इस तरह सवाल जवाब पर वे उकताकर कहते कि मैं ही बताउं। मैं इसकी कोशिश करता कि हिंदुस्तान वह सबकुछ है, जिसे उन्होंने समझ रखा है। लेकिन वह इससे भी बहुत ज्यादा है। हिंदुस्तान के नदी और पहाड़, जंगल और खेत, जो हमें अन्न देते हैं, ये सभी हमें अजीज हैं। लेकिन आखिरकार जिनकी गिनती है, वे हैं हिंदुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे लोग, जो इस सारे देश में फैले हुए हैं। भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं और भारत माता की जय से मतलब हुआ इन लोगों की जय। मैं उनसे कहता कि तुम इस भारत माता के अंश हो, एक तरह से तुम ही भारत माता हो और जैसे जैसे ये विचार उनके मन में बैठते, उनकी आंखों में चमक आ जाती, इस तरह मानो उन्होंने कोई बड़ी खोज कर ली हो। “ ( जवाहरलाल नेहरू, डिस्कवरी ऑफ इंडिया )
भारतमाता पर जवाहरलाल नेहरु की अवधारणा की विवेचना करती हुयी एक और नयी पुस्तक हाल ही में प्रकाशित हुयी है। जिसका संपादन डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल,Purushottam Agrawal ने किया है। केवल दिखावे के लिये भारत माता की जय बोलकर खुद को देशभक्त होने की सनद दे देने वाले, स्वयम्भू नवराष्ट्रवादी मित्रो से अनुरोध है, कि भारत माता की अवधारणा, हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में क्या रही है। इसका अनुसंधान करने के लिये, वे डिस्कवरी ऑफ इंडिया, जिसका हिंदी अनुवाद भारत एक खोज है, तो पढें हीं। इसके अतिरिक्त, Who Is Bharat Mata हू इज़ भारतमाता, यह नयी पुस्तक भी पढें।
भारत माता शब्द में, ‘भारत माता ग्राम वासिनी धूल भरा मैला सा आंचल’ से लेकर विभिन्न रूपों में देश की कल्पना, मातृ रूप की गयी है। जन्मभूमि सदैव जननी के पर्याय के रूप में ही मानी गयी है। वंदे मातरम हो, या मां तुझे सलाम, यह अलग अलग भाषा और बोली में अभिव्यक्त होता हुआ, स्वाधीनता संग्राम का अमर घोष, भारत माता या मदर इंडिया या मादरे वतन को संबोधित करने का ही एक रूप है। हर कण में मनुज रूप और जीवन देखने के अद्भुत दर्शन से जुड़ा हमारा देश, यहां मातृ रूप में उभर कर आ जाता है। हम सब अपनी अपनी कल्पना से उस उभरे मातृ रूप के विशाल और असीम कैनवस में अपनी अपनी रूचि से रंग भरते हैं। अपनी मां को हम अपनी ही नज़र से देखते हैं, और उसी नज़र में वह संसार की सबसे सुंदरतम स्त्री लगती हैं। यह शब्द और अवधारणा देश के प्रति हमारे लगाव की चरम अभिव्यक्ति है।
लेकिन देश एक ज़मीन का टुकड़ा ही नहीं है। कोई भी इलाका, कितना भी, खुशहाल और सरसब्ज़ हो अगर वह वीराना है तो देश कैसा? देश बनता है उसके नागरिकों से। पर नागरिकों की भीड़ से नहीं। एक सुगठित, सुव्यवस्थित, स्वस्थ, सानन्द और सुखी समाज से। एक उन्नत, प्रगतिशील और सुखी समाज, एक उदात्त चिंतन परम्परा और समरस की भावना से ही गढ़ा जा सकता है । देश को अगर मातृ रूप में हम स्वीकार करते है, तो निःसंदेह, हम सब उस माँ की संताने हैं।
स्वाधीनता संग्राम के ज्ञात अज्ञात नायकों ने न केवल एक ब्रिटिश मुक्त आज़ाद भारत की कल्पना की थी, बल्कि उन्होंने एक ऐसे भारत का सपना भी देखा था, जिसमे हम ज्ञान विज्ञान के सभी अंगों में प्रगति करते हुये, एक स्वस्थ और सुखी समाज के रूप में विकसित हों। इन नायकों की कल्पना और आज की जमीनी हकीकत का आत्मावलोकन कर खुद ही हम देखें कि हम कहां पहुंच गए हैं और किस ओर जा रहे हैं। भारत माता की जय बोलने के पहले यह याद रखा जाना जरूरी है कि, दुनिया मे कौई माँ, अपने दीन हीन, विपन्न, और झगड़ते हुए संतानों को देखकर सुखी नही रह सकती है।
© विजय शंकर सिंह