महिलाएं अपने स्वास्थ्य को लेकर हद दर्जा लापरवाह रहती हैं। ये बात सभी ने सुनी होगी। (कोई और उनकी परवाह कर ले तो कोई हर्ज नहीं वैसे)। बहरहाल दिक्कत की बात यह है कि प्रजनन स्वास्थ्य को लेकर लापरवाही से ज़्यादा डर, भ्रांतियां और शर्म-संकोच बैठा होता है मन में।
डर इतना कि यदि स्तन या गर्भाशय में कोई तकलीफ़ है तो यह किसी गम्भीर बीमारी की शुरुआत है(कैंसर का नाम लेना ऐसा ही है जैसे हॉगवर्ट्स में वोल्डेमॉर्ट का नाम लेना), श्वेत प्रदर(?) या व्हाइट डिस्चार्ज हो रहा है(90% केस में यह बीमारी वाला नहीं होता) तो हड्डियों का गूदा गलकर निकल रहा है, इसकी वजह से कमरदर्द हो रहा है।
अच्छा दूसरी बात यह कॉमन परसेप्शन कि डॉक्टर के पास जायेंगे, चेक अप कराएंगे या कोई जाँच कराएंगे तो वह कोई गम्भीर बीमारी बता देगा मने जाँच के दौरान बीमारी आपके शरीर में इम्प्लांट कर देगा जो पहले थी नहीं। कमाल है यह तो.
खुद डॉक्टर बनकर गूगल स्पेशलिस्ट की शरण में जायेंगे और ज़्यादातर बार पहले से ज़्यादा डर जाएंगे।
घरेलू नुस्खे आज़माएंगे या सहने की हद तक सहते जाएंगे।
डॉक्टर्स को पढाई के दौरान 2 बेसिक बातें बताई जाती हैं, एक तो यह कि अगर इलाज में खतरा हो तो तय करो कि ज़्यादा गम्भीर क्या है? बीमारी या दवा के दुष्प्रभाव। दूसरा और अहम, don’t go for the rarest first. अगर आपको सिर में दर्द हो रहा है सीधे ये न सोचो कि आपको ब्रेन ट्यूमर हो गया है। खाँसी आ गयी तो टीबी हो गयी या छींक लिये तो स्वाइन फ्लू।
गूगल एक सिम्पटम से जुड़ी सारी सम्भावनाएं आपके सामने प्रकट कर देगा, आप चकराते रहिये फिर।
यहाँ मैं यह बात क्यों कर रही हूँ। क्योंकि कुछ दिनों में लगातार चौथी घटना है ये। एक ही जैसी तकरीबन।
एक वृध्द महिला अपनी 2 अधेड़ बेटियों के साथ आयीं। 7-8 बीमारियां मुझे गिना दीं, जैसा कि अक्सर होता है। चेक अप कराने को समझाने के बाद भी राज़ी नहीं थीं। बिन कंसेंट के कर नहीं सकते। अल्ट्रा सोनोग्राफी और कुछ दवाएं लिख दीं उन्हें। थोड़ी देर में छूटा पर्स लेने का कहकर दुबारा केबिन में आईं, तब बताया उनको बदन(गर्भाशय) बाहर आने की शिकायत है।
मैंने यही कहा कि बिना एक्ज़ामिनेशन के नहीं कह पाऊंगी कुछ तब वे तैयार हुईं। देखने पर पता चला procidentia of uterus था। गर्भाशय पूरी तरह बाहर था और काफी छाले भी थे। मैंने कहा आपको सर्जरी करानी होगी इसके लिये।
तो कहने लगीं एक हफ्ते पहले एक अंग्रेज़ी डॉक्टर को बताया था उसने भी यही कहा इसीलिये आपके पास आई हूँ कि आप कोई आयुर्वेदिक दवाई दे दें। बेटियां साथ में थीं तो उस वक्त प्रॉब्लम बता नहीं पाई।
मैंने पूछा यह समस्या तो काफी पुरानी है। आपको ऑपरेशन रोकना था तो शुरुआत में ही इलाज क्यों नहीं कराया। तो कहने लगीं अब ये बातें किसी को बताने की तो होती नहीं। तकलीफ बर्दाश्त नहीं हो रही इसलिये मजबूरी में आना पड़ रहा है।
इस एक सप्ताह में यह तीसरा केस था जब शर्म, संकोच या डर के कारण किसी छोटी समस्या को लंबे समय तक पालते रहने से वह बड़ी हो गयी।
पर इसका जिक्र इसलिये किया कि महिला की आयु 60 पार थी। ससुराल का मामला भी नहीं था, फिर भी सगी बेटियों तक से नहीं शेयर किया। हाथ पैरों में चोट लगती है, मरहम पट्टी कराते हैं न। बुख़ार, सिरदर्द होता है तो दवा लेते हैं फिर प्रजनन अंगों के बारे में ऐसा क्यों कि तकलीफ़ होने पर भी बताया न जाये।
वे भी हमारे शरीर का ही भाग हैं न? और कितने महत्वपूर्ण हैं, बताने की ज़रूरत नहीं। तो क्यों न उनका भी विशिष्ट ख्याल रखा जाए?
ख़ैर उनकी बेटियों को दुबारा बुलाकर विस्तार से समझाकर भेजा। उनको ये सब जानकर बड़ा आश्चर्य, शर्मिंदगी और दुःख हुआ कि उनकी माँ ने उन तक को नहीं बताया था।।
लोग या तो ये समझते हैं कि आयुर्वेद कोई जादू की छड़ी है जो घूमकर सब कुछ सही कर देगी या यह कि आयुर्वेद बहुत धीरे असर करता है, बहुत परहेज़ करना होता है, इतना समय है किसके पास आजकल।
दोनों ही बहुत सरलीकरण करने वाली बातें हैं। पहली बात तो यह कि आप आयुर्वेद के विकल्प पर तब विचार करते हैं, जब दूसरे ‘फ़ास्ट’ उपचार असर करते नहीं दिखते। आप कई जगह से इलाज कराकर निराश होने लगते हैं। अब आप चाहें कि 15 साल पुरानी बीमारी 5 दिन में ठीक हो जाए, वह सम्भव नहीं। अंकुर फूटता है, पौधा छोटा होता है, उसे उखाड़ना आसान होता है। पेड़ बनने के बाद मुश्किल तो होगी न।
दूसरी बात परहेज़ दवाइयों के नहीं बीमारी के होते हैं। जो बातें तकलीफ बढ़ाएं, उन्हें अवॉइड करें बस।
तीसरी बात, चाहे किसी भी पैथी को प्रिफर करें एलोपैथी, यूनानी, होम्योपैथी, नेचुरोपैथी, हर पैथी की अपनी विशेषताएं और सीमाएं हैं, पर समस्या को शुरुआत में ही खत्म करने की कोशिश करें।
ये आपके लिये ही बेहतर होगा……