सीमा पर चीन के साथ गहराते तनाव के बीच रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का पूर्व निर्धारित लद्दाख दौरा टलवाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद चीफ ऑफ डिफेंस स्टाॅफ व सेनाध्यक्ष के साथ खुद वहां जाकर न सिर्फ सेना की तैयारियों का जायजा लिया, बल्कि 15 जून को गलवान घाटी की हिंसक झड़प में घायल जवानों से मिलकर उनका हालचाल पूछा, तो उसकी आलोचना नहीं की जा सकती। प्रधानमंत्री के नाते यह उनका कर्तव्य था, जिसे निभाने में वे थोड़ी और तत्परता बरतते तो बेहतर होता। उनका यह दौरा थोड़ा और पहले होता तो सारे देश के अपनी सेना के पीछे खडे़ होने और उसके पराक्रम पर गर्व करने की जो बात उन्होंने मुंह से बोलकर कही, उसका संदेश बिना कुछ कहे ही संप्रेषित हो जाता और कहीं ज्यादा सार्थक होता। सीमाओं पर खतरे की चुनौती से निपटने में कुछ भी उठा न रखने वाले जवानों को तब और गहराई से महसूस होता कि वहां दुश्मन के खिलाफ वे अकेले नहीं खड़े हैं।
प्रधानमंत्री सचमुच खुद को उस ऊंचाई पर स्थापित कर लेते तो देश और देशवासियों की छाती चैड़ी ही होती। लेकिन मुश्किल यह है कि इन समर्थकों के चलते अपने प्रधानमंत्रित्व के छः सालों में एक बार भी, यहां तक कि 2019 में दोबारा कहीं ज्यादा जनादेश के साथ चुनकर आने के बाद भी अपने नारे के विपरीत न वे सारे देश विश्वास अर्जित कर पाये हैं, न सबके साथ और सबके विकास में अपना व अपनी जमातों का यकीन ही असंदिग्ध बना पाये हैं। समर्थक जमातों का वह पिछड़ा हुआ चिन्तन तो जैसे उनकी नियति ही बना हुआ है, जिसके कारण इस वक्त जब उन्हें सारे देश को एकजुट करने के अपने सामथ्र्य का प्रदर्शन करना था, ऐसा जता रहे हैं जैसे ‘दुष्ट’ चीन से ज्यादा दिक्कत उन्हें देश के राजनीतिक विपक्ष से है, जो बार-बार ऐसे सवाल पूछने पर आमादा है, जिनका उनके पास जवाब नहीं हैं। जैसे-तैसे एक सर्वदलीय बैठक निपटाने के बाद उनका सीमा पर संकट की बाबत विपक्ष से कोई संवाद नहीं है। उस बैठक की बाबत भी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को शिकायत थी कि उसे बुलाने में जानबूझकर देर की गई।
इसे विडम्बना ही कहेंगे कि प्रधानमंत्री का लेह का भाषण भी इस पिछड़े चिन्तन से मुक्त नहीं ही रह सका। उनके समर्थक कह रहे हैं कि उससे देश के जवानों का मनोबल ही नहीं बढ़ा, ‘विस्तारवादी’ चीन को कड़ा संदेश भी गया है। इस संदेश की कड़ाई चीन की वह तात्कालिक प्रतिक्रिया ही साफ कर देती है, जिसमें उसने कहा कि उसे विस्तारवादी के तौर पर देखना कतई आधारहीन है और इस तरह बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने से सीमाविवाद को लेकर चल रही द्विपक्षीय वार्ता में बाधा ही आयेगी।
लेकिन चीन अपनी जगह रहे, प्रधानमंत्री, उनकी सरकार और समर्थक इस सवाल का सामना करने को भी तैयार नहीं हैं कि जब प्रधानमंत्री चीन को यह प्रमाणपत्र दे चुके हैं कि उसने कहीं कोई घुसपैठ की ही नहीं है तो उसे कोई कड़ा तो क्या नरम संदेश देने का भी क्या तुक है और क्या ऐसी क्लीन चिट के साथ उस पर हमारे देश के सन्दर्भ में विस्तारवाद का आरोप चस्पां किया जा सकता है? अगर उसने कुछ किया ही नहीं है तो हम उसके 58 ऐपों को बैन करके उससे आयात बन्द, उसकी कम्पनियों पर रोक और उसके उत्पादों के वहिष्कार के नारे लगाकर उससे किस बात का बदला ले रहे हैं?
लेकिन बात यहीं तक नहीं है। प्रधानमंत्री ने विस्तारवाद के युग को गया हुआ बताया तो उसे विकासवाद से प्रतिस्थापित किया। हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री तुकबन्दी के शौकीन हैं। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होंने महज तुकबन्दी के लिए ऐसा नहीं किया। भारत की लोकतांत्रिकता को आगे कर ‘कम्युनिस्ट’ चीन की तानाशाही की खिल्ली उड़ाने की सुविधा के सहज सुलभ होने के बावजूद उन्होंने उसका लाभ नहीं उठाया तो इसलिए कि उन्हें मालूम था कि वे विस्तारवादी तानाशाही को लोकतंत्र से प्रतिस्थापित करने चलेंगे तो दल-दल में और गहरे धंस व फंस जायेंगे। क्योंकि तब देश में इन दोनों के खस्ताहाल से जुड़े सवाल कहीं ज्यादा तेजी से उनका पीछा करने लगेंगे।
सवाल तो खैर उनके द्वारा प्रवर्तित विकास को लेकर भी कम नहीं हैं। कई लोग तो उसे पागल हुआ तक करार दे चुके हैं। आखिर यह कैसा विकासवाद है, जिसमें ‘विस्तारवादी’ चीन ने अपने सस्ते उत्पादों से संसार भर में तहलका मचा रखा है-प्रधानमंत्री के ‘विकासवादी’ भारत में भी, जो अपनी रक्षा के लिए भी दुनिया के सबसे बड़े अस्त्र शस्त्र आयातक देशों में अपना नाम लिखाने को मजबूर है-और उनके समर्थक उसके वहिष्कार के मन्सूबों में अपनी मोहताजी का गम कम करना चाहते हैं।
लेकिन सवाल है कि इस तरह गम कम होगा या और बढ़ जायेगा? इसे इस अंतर्विरोध से समझा जा सकता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के विकासवादी प्रधानमंत्री ने वीरता को शांति की पूर्व शर्त बताया और कहा कि निर्बल तो शांति ला ही नहीं सकते! इस बात को थोड़ा और आगे बढ़ायें तो लगता है कि प्रधानमंत्री के कहने का आशय यह है कि निर्बल किसी भी क्रांति या परिवर्तन के वाहक नहीं हो सकते। तो क्या अब तक जो विचारक अन्याय व शोषण के खात्मे और बराबरी की प्रतिष्ठा को, जिसमें कोई निर्बल व कोई सबल रह ही न जाये, दीर्घकालिक विश्वशांति के लिए सबसे जरूरी बताते आ रहे थे, वे सबके सब गलत थे? शासकों के ईवीएमों से चुनकर आने के इस दौर में भी प्रधानमंत्री द्वारा वसुन्धरा को ‘वीरभोग्या’ ही बनाये रखने के आईने में कुद ऐसा ही नहीं लगता क्या? शायद इसीलिए प्रधानमंत्री के समर्थक उनके विचारों के बजाय 56 इंच के सीने की ज्यादा चर्चा करते हैं।
जो भी हो, प्रधानमंत्री श्रीकृष्ण की बांसुरी और चक्र सुदर्शन दोनों को अपने भाषण के बीच में ले आये तो अंदेशा होने लगा कि कहीं वे अपने द्वारा प्रवर्तित विकासवाद को इस बेहिस प्रतीक या कि मिथकवाद में न उलझा दें। फिर इसका हासिल क्या होगा? 1962 के भारत चीन युद्ध के वक्त संसद में उन्हीं की जमात के एक सज्जन ने कहना शुरू किया कि एक दिन हमारी तलवारें पीकिंग, जी हां तब उस शहर का यही नाम था, तक चमकेंगी तो किसी ने उन्हें टोकते हुए कहा था कि अब लड़ाइयां तलवारों से नहीं हुआ करतीं।
क्या आज देश में है कोई, जो प्रधानमंत्री को बता सके कि मामला अंतरराष्ट्रीय हो यानी दो देशों के बीच का, सीमा और विदेशनीति से जुड़ा हुआ तो उसमें ऐसे देसी, एकरेखीय और पुराने मिथक या प्रतीक काम नहीं आते। ठोस सच्चाइयों पर निर्भर करना पड़ता है। ऐसे मिथक या प्रतीक पल भर को जोश भले दिलाते हों, जैसे ही होश वापस आता है, उनकी निरर्थकता प्रमाणित करने लगता है। ये सार्थक होते तो बुद्धमत के अनुयायियों का देश चीन विस्तारवादी क्योंकर होता और क्योंकर बुद्ध के देश से दुश्मनी ठानता?