देशद्रोह कानून की ऐतिहासिकता और जेएनयू मामला

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संहिताबद्ध कानून अंग्रेज़ो की देन है जो ब्रिटिश न्याय प्रणाली से हमारे देश मे आयी है। प्राचीन भारतीय न्याय प्रणाली और देश के मुस्लिम हुक़ूमत में भी न्याय और विधि व्यवस्था कुछ संहिताबद्ध तो थी, पर ब्रिटिश राज में यह संहिताकरण व्यवस्थित रूप से हुआ जब शासन प्रशासन के लिये विधिवत कानून और उन कानूनों के लागू करने के लिये प्रक्रियागत कानून भी बने।1757 की प्लासी के युद्ध के बाद जब अंग्रेजों ने यहां पांव जमाये तो उन्होंने अपना  व्यापारिक लबादा उतार कर खुद ही बंगाल के सूबेदार हो गए। फिर तो सौ साल के बाद जब तक 1857 का विप्लव नहीं हो गया ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में वे देश पर शासन करते रहे और विप्लव के बाद 1858 ई में भारत बाकायदा ब्रिटिश उपनिवेश हो गया और 1860 / 61 में  आपराधिक न्याय व्यवस्था की नींव के रूप में भारतीय दंड विधान, जिसमे अपराधों का वर्गीकरण और उनकी प्रकृति के आधार पर उन्हें संहिताबद्ध किया गया है, दंड प्रक्रिया संहिता जिसमे उन अपराधों की विवेचना, ट्रायल, अपील, आदि के नियम संहिताबद्ध हैं, साक्ष्य अधिनियम जिनमे किन सुबूतों को कैसे और कब माना जायेगा का उल्लेख है  और भारतीय पुलिस अधिनियम, जिसके अंतर्गत एक व्यवस्थित पुलिस बल का गठन किया गया जो इन कानूनों को लागू करने के लिये जिम्मेदार है।
1857 का विप्लव हमारे लिये जितना गौरवशाली था अंग्रेजों के लिये यह उतनी अधिक चुनौती भरा रहा। अंग्रेज़ो ने इससे दो निष्कर्ष निकाले। एक उनके निज़ाम के लिये हिन्दू मुस्लिम एकता घातक है और दूसरा कोई न कोई ऐसा वैधानिक प्राविधान बनाया जाय जिससे ब्रिटिश सरकार के विरोध में खड़े हुये लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की जा सके। लोकतंत्र की जननी के उपाधि से अभिषिक्त ब्रिटेन का सारा साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और शासन प्रणाली सदैव एक कानूनी आवरण में रहा है। तभी से राजद्रोह की अवधारणा कानून में शामिल हुई। राजद्रोह से जुड़ा कृत्य एक अपराध है यह 1837 के ड्राफ्ट पेनल कोड के क्लाज़ 113 में लॉर्ड थॉमस बाबिंगटन मैकाले द्वारा सम्मिलित किया गया। इंडियन पेनल कोड ज़रूर 1860 में बना पर उसके ड्राफ्ट पर काम लॉर्ड मैकाले के समय से शुरू हो गया था। लेकिन 1860 की आइपीसी में यह कानून नहीं था।
देश मे पुनर्जागरण तो शुरू हो चुका था और ब्रिटिश राज के खिलाफ लोगों में चेतना फैलने लगी थीं। तत्कालीन कानून सचिव सर जेम्स फिटजेम्स स्टीफेन ने  1860 के एक्ट में यह धारा न जोड़े जाने का कारण इसे  एक भूल बताया और फिर राजद्रोह से जुड़ी यह धारा और अन्य उपधारायें 1870 ई में जोड़ी गयीं। राजद्रोह की विभिन्न धाराओं में परिभाषा, अपराध और दंड की बात कही गयी है। 1870 तक आते आते ब्रिटिश राज के खिलाफ कहीं न कहीं असंतोष उभरने लगा था और देश मे राष्ट्रवाद का उभार शुरू हो चुका था। 1857 के विप्लव से डरे अंग्रेज़ उसकी पुनरावृत्ति नहीं होने देना चाहते थे। अंततः एक लंबे विचार विमर्श के बाद अंततः 25 नवम्बर 1870 को आइपीसी की धारा 124 A को राजद्रोह के बड़े अपराध के रूप में आइपीसी में जगह दी गयी।
राजद्रोह या ट्रेजन की अवधारणा ब्रिटिश कानून के ट्रेजन फाल्कनी एक्ट पर अवधारित है। ब्रिटेन एक लोकतंत्र ज़रूर है पर वह मूलतः राजतंत्र था और आज भी वहां की रानी या राजा देश का संवैधानिक प्रमुख होता है, यह अलग बात है कि राजा एक प्रतीक के रूप में हैं पर सारी शक्तियां वहां की संसद में निहित हैं। लेकिन संसद देश का सारा कामकाज राजमुकुट जिसे क्राउन कहा गया है के नाम पर चलाती है। वहां की सरकार भी हिज मैजेस्टी या हर मैजेस्टी की सरकार कहलाती है। ब्रिटेन के ट्रेजन फाल्कनी एक्ट की धारा 7 में राजद्रोह को परिभाषित किया गया है। इस परिभाषा के अनुसार हर वह व्यक्ति जो इंग्लैंड की रानी के प्रति वफादार नहीं है वह राजद्रोह कर रहा है। राजा, जिसे क्राउन कहा गया है के प्रति वफादारी अनिवार्य है। ब्रिटेन पूर्णतः राजा या रानी या क्राउन का है अतः उसके प्रति उसके प्रजा जिसे सब्जेक्ट भी कहा गया है की वफादारी को एक अनिवार्य अंग माना गया है। अतः जो  भी क्राउन के विरुद्ध अविश्वास, और धोखा देने की नीयत के साथ ऐसा कोई आपराधिक कृत्य करता है तो वह राजद्रोह की श्रेणी में आएगा। इस प्रकार सेडिशन या राजद्रोह की मूल अवधारणा यहां से निकली है।
इसी के बाद 1870 में 124 (ए) की धारा राजद्रोह की धारा घोषित की गयी। यह प्राविधान 1898 तक बना रहा । राजद्रोह को दबाने के लिये तब और भी कानूनी प्राविधान लाये गये जैसे 1876 का वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट था। 1876 के बाद प्रेस में ब्रिटिश  सरकार की नीतियों की आलोचना को  रोकने के लिये 1878 ई में दूसरा वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1878 लाया गया। यह दोनों एक्ट इसलिए लाये गये थे कि 1876 – 78 में दक्षिण भारत के किसानों का एक बड़ा आंदोलन हो गया था जिसे देशी भाषाओं के प्रेस ने बहुत ही अधिक मुखर होकर सरकार की आलोचना की थी। अंग्रेजी प्रेस तो सरकार के पक्ष में था ही क्योंकि उसके सम्पादक और मालिक सभी अंग्रेज थे, जो स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश राज के वफादार थे। लेकिन भारतीय भाषाओं के प्रेस तो पढ़े लिखे भारतीयों के ही थे जो ब्रिटिश राज की कमियों के बारे में मुखर हो जाते थे। इसीलिए देशी भाषाओं के प्रेस को नियंत्रित करने के लिये यह दोनों वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट लाये गये थे।
इस प्रकार 1870 से अस्तित्व में आने के बाद सेडिशन कानून सरकार के विरुद्ध उठे आलोचनाओं के खिलाफ प्रयुक्त होने लगा। यह नौकरशाही के हांथ में एक ऐसा अधिकार था जिससे ब्रिटिश राज की आलोचना को दबाने के लिये अक्सर प्रयोग किया गया है। लेकिन, 1885 तक आते आते ब्रिटिश नौकरशाह यह समझ गए थे कि जन असन्तोष कहीं न कहीं पनप रहा है, और अगर उसे अभिव्यक्त करने का कोई उचित मार्ग नहीं मिलेगा तो जनाक्रोश की संभावना बन सकती है जो ब्रिटिश राज के लिये घातक होगा। तब तक यूरोपीय उदारवाद और प्रगतिशील विचार भारत आ चुके थे। भारत के अमीर तबके के युवा इंग्लैंड जाकर पढ़ने लगे थे। यूरोप और इंग्लैंड में जो वैचारिक खुलापन था उससे रूबरू होकर वह जब स्वदेश आते थे तो उन्हीं विचारों को वे अपने देश मे लागू करना चाहते थे। परतंत्रता एक अभिशाप है, यह बात धीरे धीरे फैलने लगी थी। अंग्रेज़ नौकरशाह इस वैचारिक परिवर्तन को बहुत गम्भीरता से देख रहे थे। इन्हीं में से एक एओ ह्यूम जो आईसीएस अफसर और 1857 के समय इटावा का कलेक्टर था ने असंतोष को एक सुरक्षित मार्ग देने के लिये सेफ्टी वाल्व के सिद्धांत पर इंडियन नेशनल कांग्रेस के गठन की बात सोची जो अंततः 1885 में उसी के पहल मूर्त हुयी। यह कांग्रेस निश्चित रूप से न तो आत्मनिर्णय के अधिकार और सम्पूर्ण आज़ादी को सोच कर नहीं बनायी गयी थी, बल्कि यह ब्रिटिश राज के खिलाफ उसे असंतोष को बहस आदि से सुलझाने के उद्देश्य से ताकि हिंसक आंदोलन न उभर सकें बनायी गयी थी। यह अलग बात है कि अपने शुरुआती दशक में ही यह संगठन देश की जनभावना का प्रतीक बन गया। राजद्रोह को लेकर कोई अकादमिक बहस नहीं होती थी। अंग्रेज़ अपनी सारी उदारवादी सोच के बावजूद राजद्रोह को और जटिल और दण्डनीय बनाने पर जोर दे रहे थे। उनके पास यही एक ऐसा अस्त्र था, जो स्वाधीनता की बात करने वालों के खिलाफ वे प्रयोग कर उन्हें डरा और विचलित कर सकते थे। इसलिए धारा 124 ए को संज्ञेय और अजमानतीय बनाया गया और इस अपराध की सज़ा आजीवन कारावास तक रखी गयी। ऐसे मामलों में जमानत मुश्किल से मिलती थी या मिलती ही नहीं थी। क्यों कि यह अपराध किसी व्यक्ति के विरूद्ध नहीं राज्य के विरूद्ध था। किसी व्यक्ति के प्रति किया गया अपराध सरकार के लिये उतना चिंताजनक नहीं था जितना राज्य को अस्थिर करने, उसे तख्तापलट करने का अपराध था।
राजद्रोह शब्द से देशद्रोह शब्द अंग्रेजी से हिंदी के अनुवाद का परिणाम है। अंग्रेज़ी में वॉर अगेंस्ट स्टेट और ट्रेजन शब्द का प्रयोग किया गया। ट्रेजन का अर्थ राजद्रोह होता है पर स्टेट जिसे राज्य समझा और पढा जाना चाहिये था देश पढ़ लिया गया और फिर वह राष्ट्र हो गया। समय के अनुसार राजद्रोह देशद्रोह और अब तो यह राष्ट्रद्रोह में बदल गया तथा यह देश के प्रति एक गम्भीर अपराध मान लिया गया। धारा 124 (ए) के अंतर्गत उन लोगों के खिलाफ अभियोग चलाया और गिरफ्तार किया जाता है जिन पर देश की एकता और अखंडता को तोड़ने का आरोप होता है | इस धारा में देशद्रोह की दी हुई परिभाषा के अनुसार,
” जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा, या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण द्वारा, या अन्यथा, विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घॄणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का प्रयत्न करेगा या अप्रीति प्रदीप्त करेगा, या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा। ”
एक वाक्य में कहा जा सकता है कि यदि आप लिखकर, बोलकर या किसी भी तरीक़े से देश की सरकार के ख़िलाफ़ घृणा फैलाएँगे या उसका अपमान करेंगे तो आप पर राजद्रोह का मुक़दमा चल सकता है। सेडिशन कानून की यह परिभाषा ही अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार की अवधारणा के विपरीत है।
ब्रिटिश राज में इस कानून के अंतर्गत सबसे पहला मुकदमा बंगबासी प्रकरण का माना जाता है जो जोगेश चन्दर बनाम महारानी ब्रिटेन के बीच चला था। 28 मार्च 1891 को बंगबासी पत्रिका में जोगेश चन्दर ने ब्रिटिश सरकार और बंगाल के गवर्नर की आलोचना में कई लेख लिखे थे। ये लेख आमादेर दशा शीर्षक से छपे थे । इस लेख में ब्रिटिश राज की निंदा और आलोचना के कारण जोगेश चन्दर और उनके साथियों पर इस 124 ए सेडिशन का कलकत्ता की प्रेसिडेंसी मैजिस्ट्रेट की अदालत में चला था। लेकिन सज़ा होने के पहले ही ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के महाराजा जोतेंद्र मोहन टैगोर की मध्यस्थता से सरकार ने इस मुक़दमे को वापस ले लिया।
दूसरा महत्वपूर्ण मुकदमा बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ चला था जिसमें उन्हें सात साल की सज़ा सुनायी गयी थी, और वे 1908 से 1914 तक जेल में थे। यही वह मुकदमा था जब तिलक ने भरी अदालत में सुनवायी के दौरान, ‘ स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूंगा’ कह कर पूरे साम्राज्य में सनसनी फैला दी थी। तिलक ने पुणे में फैले प्लेग और अकाल के संबंध में शासन की कटु आलोचना अपने अग्रलेख, जो उनके मुखपत्र ‘केसरी’ में प्रकाशित हुए थे, में की थी। इन्हीं के विरोध में अंग्रेज सरकार ने उनके ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चलाया था। बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेज़ फादर ऑफ द इंडियन अनरेस्ट कहा करते थे।
इस कानून का इस्तेमाल ब्रिटिश सरकार ने महात्मा गांधी के खिलाफ 1922 ई में किया था और उन्होंने अपना जुर्म स्वीकार भी कर लिया था जिसके कारण उन्हें छह साल के कारावास से दंडित किया गया । उनपर ब्रिटिश राज के खिलाफ असन्तोष फैलाने का आरोप उनके द्वारा यंग इंडिया पत्र में लिखे गए अनेक लेखों को आधार बनाकर लगाया गया था।
आज़ादी के बाद इस अपराध में सबसे चर्चित मुकदमा बिहार के केदारनाथ सिंह का है। 1962 में राज्‍य सरकार ने एक भाषण के मामले में उनके ऊपर देशद्रोह का मामला  दर्ज किया था, जिस पर हाई कोर्ट ने रोक लगा दी थी। यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा जहां सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की एक पीठ ने अपने आदेश में कहा गया था,

‘देशद्रोही भाषणों और अभिव्‍यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है, जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े.’

सर्वोच्च न्यायालय की यह व्यवस्था अब तक सेडिशन कानून 124 ए का आधार बनी हुयी है। अन्य प्रसिद्ध मुकदमों में-

  • 2010 ई में बिनायक सेन पर नक्सल विचारधारा फैलाने का आरोप लगाते हुए उन पर इस कानून के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया गया. इन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी लेकिन बिनायक सेन को 16 अप्रैल 2011 को सुप्रीम कोर्ट की ओर से जमानत मिल गई थी।
  • 2012 में काटूर्निस्ट असीम त्रिवेदी को उनकी सोशल मीडिया पर संविधान से जुड़ी भद्दी और गंदी तस्वीरें पोस्ट करने की वजह से इस कानून के तहत गिरफ्तार किया गया. यह कार्टून उन्‍होंने मुंबई में 2011 में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ चलाए गए एक आंदोलन के समय बनाए थे.
  • 2012 में तमिलनाडु सरकार ने कुडनकुलम परमाणु प्‍लांट का विरोध करने वाले 7 हजार ग्रामीणों पर देशद्रोह की धाराएं लगाईं थी।
  • 2015 में गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले हार्दिक पटेल को गुजरात पुलिस की ओर से देशद्रोह के मामले तहत गिरफ्तार किया गया था।
  • अब सबसे ताज़ा मामला जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का है। 9 फरवरी 2016 को जेएनयू में आपत्तिजनक नारे लगाने के आरोप में दिल्ली पुलिस ने जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बान के विरुद्ध आरोप पत्र दायर कर दिया है।

9 फरवरी 2016 को जेएनयू परिसर में देश के टुकड़े होने और हमे आज़ादी चाहिये के कई नारे लगाए गए थे। उसके वीडियो टीवी पर भी आये और फिर कन्हैया कुमार, उमर खालिद अनिर्बान, शेहला राशिद आदि के खिलाफ कुछ अन्य आइपीसी की धाराओं के साथ साथ धारा 124 ए के अंतर्गत भी मुकदमा कायम किया गया। तीन साल बाद दिल्ली पुलिस ने इस मामले में अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया है। 19 जनवरी से इस मामले में अदालत को सुनवायी करना था। लेकिन सीआरपीसी के प्राविधान के अनुसार आरोपपत्र दायर करने की अनुमति पुलिस ने दिल्ली सरकार से नहीं ली थी। अतः अदालत ने बिना राज्य सरकार की अनुमति के आरोपपत्र पर संज्ञान लेने से मना कर दिया।
धारा 124 ए सदैव से विवादों के घेरे में रही है। कुछ विधिवेत्ताओं की राय के अनुसार यह धारा मौलिक अधिकारों के विपरीत है तो कुछ के अनुसार राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिये इसका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिये। यह बहस शुरू हो चुकी है और अलग अलग दृष्टिकोण के लोग अपनी अपनी बात कह रहे हैं। पर कानून कभी भी भावुकता भरे तर्क से नहीं चलता है । अदालत का मौसम शहर के मौसम से हमेशा अलग रहता है। कानून की बारीकियों, अपराध के इरादे, उद्देश्य, मनोदशा, तात्कालिक स्थिति के अनुसार अभियोजन और बचाव पक्ष के लोग अपनी अपनी बात कहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस काटजू के अनुसार, जेएनयू मामले में सेडिशन यानी देशद्रोह का कोई मामला नहीं बनता है। उनकी इस धारणा इस मौलिक विंदु पर आधारित है कि, संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के अनुसार, सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है । यह तो सत्य है पर कोई भी अधिकार अबाध नहीं हो सकता है। उसपर कुछ चेक और बैलेंसेस या प्रतिबंध निश्चित रूप से होते हैं। पर क्या आज़ादी के बारे में नारे लगाना उक्त प्रतिबन्धों में आता है या नहीं ?

इस बारे में उन्होंने अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के एक मुक़दमे का हवाला दिया। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने एक मुक़दमे ब्रांडेनबुर्ग बनाम ओहियो राज्य 1969 के मामले में सुनवायी के बाद अपने फैसले में कहा है कि,

” अदालत ( अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ) संविधान द्वारा वाक स्वतंत्रता पर राज्य द्वारा प्रतिबंध लगाने के अधिकार या कृत्य को विधिसम्मत नहीं मानती, जब तक कि ऐसे उकसावे वाली कार्यवाही से तत्काल कोई कानून व्यवस्था की स्थिति या हिंसा की घटना न हो जाय, जिससे राज्य को तत्काल हस्तक्षेप करना पड़े। “

ऐसी स्थिति को तत्काल विधिविहीनता की कार्यवाही कह सकते हैं।  यानी हिंसक घटना तत्काल हो सकती है या हो गयी है और राज्य को तत्काल हस्तक्षेप करना पड़ सकता है।
अब ज़रा ब्रांडेनबुर्ग बनाम ओहियो राज्य के प्रकरण पर दृष्टि डालते हैं। 1864 की गर्मियों में कू क्लक्स क्लान नामक एक नस्लवादी संघटन के नेता क्लेरेंस ब्रांडेनबुर्ग ने क्लान की रैली में एक भाषण दिया था। उस भाषण में उसने अमेरिका की सरकार पर यह आरोप लगाया कि वह काकेशियन नस्ल का दमन कर रही है। उसे ओहियो राज्य में हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उस पर ओहियो आपराधिक सिंडीकैलिज़्म   कानून के अनुसार मुक़दमा चला। उक्त कानून में औद्योगिक और राजनीतिक सुधारों के लिये, अपराध, तोड़फोड़, हिंसा, और आतंकवाद को दंडनीय अपराध माना गया है। इन आरोपों में उसे सजा हो गयी और उसने फिर इस सज़ा के खिलाफ अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में अपील की। 9 जून 1969 को अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने ब्रांडेनबुर्ग की अपील स्वीकार की और उसे सजा से मुक्त कर दिया। अदालत ने ओहियो स्टेट कोर्ट के फैसले उसकी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अतिक्रमण माना और यह टिप्पणी की कि, अदालत ने उसके भाषण की पृष्ठभूमि और परिणामों के बारे में कोई विचार नहीं किया। क्योंकि ब्रांडेनबुर्ग के भाषण के बाद तत्काल विधिविहीनता की कोई स्थिति उत्पन्न ही नहीं हुयी थी।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के आलोक में भारत की सुप्रीम कोर्ट ने भी तीन मामलों में अपने फैसले दिए हैं। ये मामले हैं। ये मामले हैं, अरूप भईुयां बनाम आसाम राज्य,  इन्द्रदास बनाम आसाम राज्य और  आंध्र प्रदेश बनाम पी लक्ष्मी देवी। केदारनाथ का मामला इसके पहले का है। इन सभी मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय, सेडिशन कानून के इसी मौलिक धारणा पर आधारित रहा कि केवल भाषण देने और नारे लगाने से जब तक कि उस भाषण और नारेबाजी से कोई लॉ लेसनेस या विधिविहिनिता की स्थिति न उत्पन्न हो जाय यह धारा नहीं बनती है। इन मुकदमों में दी गयी व्यवस्था के आधार पर जस्टिस काटजू मानते हैं कि केवल भारत विरोधी या आज़ादी के नारे लगाने से, कोई उकसावे वाली स्थिति उत्पन्न नहीं हुयी है अतः यह तत्काल विधिविहीनता का कृत्य नहीं है। भारत मे बहुत से लोगों और संगठनों ने आज़ादी के नारे लगाए और आज़ादी की मांग की है। जैसे, खालिस्तान, कश्मीर और नागालैंड के आंदोलनकारी थे। अकालियों का आनन्दपुर साहब प्रस्ताव तो आज़ादी के समर्थन में ही था। लेकिन यह कोई अपराध नहीं माना गया। यह तभी अपराध होगा, जब कोई (1) हिंसा हो जाय, (2) संगठित हिंसा की घटना फैल जाय, या (3) हिंसा के लिये तत्काल लोगों को उकसाया या भड़काया जाय। लेकिन ऐसा कुछ भी जेएनयू के छात्रों द्वारा नहीं किया गया है। फिर भी यह मामला विचाराधीन न्यायालय है अतः कोई भी अंतिम निर्णय न्यायालय पर ही छोड़ा जाना उचित होगा।
1870 में देश आजाद नहीं था। अंग्रेज़ हम पर शासन कर रहे थे। उन्हें हर पल यह डर था कि हम कहीं मज़बूत होकर उनकी सत्ता को चुनौती न दे दें। इसीलिए फ्रांस की राज्यक्रांति से उपजे त्रिरत्न स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का दर्शन किताबी तो था पर वह ज़मीन पर न उतरे इसके लिये वे चौकस भी थे। लेकिन 1947 में आज़ादी के बाद जब हमने अपना संविधान बनाया तो उपरोक्त त्रिरत्न को हमने शब्द और भावनानुसार अंगीकार कर लिया। तब मौलिक अधिकारों के प्राविधान और राजद्रोही या देशद्रोह कानून का अंतर्विरोध सामने आ गया। देशद्रोह के कानून को लेकर संविधान में विरोधाभास भी है, जिसे लेकर अक्सर विवाद उठते रहे हैं। जिस संविधान ने देशद्रोह को कानून बनाया है, उसी संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भारत के नागरिकों का मौलिक अधिकार बताया गया है। मानवाधिकार और सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता इसी तर्क के साथ अपना विरोध जताते रहते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस कानून की कड़ी आलोचना होती रही है और इस बात पर बहस छिड़ी है कि अँग्रेज़ों के ज़माने के इस क़ानून की भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जगह होनी भी चाहिए या नहीं। लोकतंत्र में सरकार की आलोचना, सरकार से जवाबतलबी कोई अपराध नहीं है। अपनी बात कहने पर कोई रोक भी नहीं है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी है कि महज नारे लगाना, भाषण देना तब तक देशद्रोह नहीं है जब तक कि उसके आधार पर कोई हिंसक घटना या विधिविहिनिता की स्थिति न बन जाय।