बहुत दिनों के बाद या यूं कहें सालों बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने प्रेस को एक इंटरव्यू दिया। या यूं कहें सम्बोधित किया। ब्रेकिंग खबर यह नहीं है कि उन्होंने क्या कहा। ब्रेकिंग खबर यह है कि, उन्होंने पहली बार प्रेस को इंटरव्यू दिया। सरकार बनने के बाद। प्रधानमंत्री जी, राष्ट्रीय मीडिया जिसमें सभी प्रमुख चैनल और सभी राष्ट्रीय अखबारों के संवाददाता हों के समक्ष सरकार की उपलब्धियों के बारे में एक खुला इंटरव्यू कम से कम एक घन्टे का क्यों नहीं देते हैं। उस इंटरव्यू में उनकी सहायता के लिये वरिष्ठ अधिकारी भी मौजूद रहे। हो सकता है कुछ सवालों के उत्तर उन्हें न पता हों या न देना चाहें या उनका जवाब देना देशहित में न हो तो वे उसे मना कर दें। पर इतने अधिक लोकप्रिय पीएम का अब तक दो ही इंटरव्यू देना, एक प्रसून जोशी को लंदन में, दूसरा स्मिता प्रकाश को दिल्ली मे यह जनसंवाद नहीं है। यह दोनों स्पॉन्सर्ड वार्तालाप सरीखे है। लगता है, पेपर सेट है, सवाल पता है, फिर भी परीक्षा में अगर नर्वसनेस है तो क्या कहा जाय। इंटरव्यू के लिये थोड़ी तैयारी की और ज़रूरत है। सरकार की उपलब्धियां भी तो कम नहीँ हैं। उन्हें खुल कर बताया जा सकता है।
कुछ दिनों पहले पीएम ने कहा था कि लोगों को सकारात्मक चीजें फैलानी चाहिये, नकारात्मक नहीं। दिक्कत यह है कि सकारात्मक हो या नकारात्मक यह सापेक्ष होती है। सरकार को सरकार की आलोचना नकारात्मक और विपक्ष को वही आलोचना सकारात्मक लग सकती है। वास्तविकता तो यह है कि, आलोचना नकारात्मकता नहीं है। यह उन विन्दुओं को परिमार्जित करने का एक अवसर है जिस से आलोचनाओं के स्वर उठते हैं। सरकार की आलोचना न केवल ज़रूरी है बल्कि यह संवैधानिक दायित्व भी है। इसी लिए संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष को भी उतना ही सम्मान प्राप्त है, जितना कि सत्ता पक्ष को। सत्ता पक्ष बहुमत में होता है और कभी कभी वह बहुमत भी बहुत मज़बूत होता है।
1952, 1971, 1984 की लोकसभा के आंकड़े देखिये सत्ता पक्ष कांग्रेस कितना मज़बूत था। 1952 में नेहरू का प्रभा मंडल इतना प्रखर था कि विरोध में राजे रजवाड़ों की पार्टी स्वतंत्र पार्टी को विरोध के लिए कोई मुद्दा ही नहीं मिला था। नेहरू ने विपरीत विचारधारा के लोगों को अपनी कैबिनेट में जगह दे कर न केवल अपनी विशाल हृदयता का परिचय दिया था बल्कि विरोध को भी उस कठिन समय में शांत कर दिया था। 1969 तक जब तक कांग्रेस सिंडिकेट और इंदिरा गुट में नहीं बंटी थी, तब तक देश की लोक सभा में कोई भी मान्यता प्राप्त विपक्ष भी नहीं था। जब इंदिरा के नेतृत्व में अलग कांग्रेस बंटी और संगठन कांग्रेस जो एस निजलिंगप्पा आदि पुराने कांग्रेसी नेताओं की थी तो उसके लोक सभा में नेता डॉ राम सुभग सिंह पहले नेता विरोधी दल के हुए जिन्हें नेता विपक्ष की मान्यता मिली थी। पर यह मान्यता भी 1971 के चुनाव में समाप्त हो गयी। 1977 में फिर मान्यता प्राप्त विपक्षी दल कांग्रेस बनी। लेकिन 1984 के चुनाव में कांग्रेस को इतना बड़ा बहुमत मिला कि, फिर कोई भी विपक्षी दल मान्यता नहीं पा सका। आज की लोक सभा में भी कोई भी दल मान्यता प्राप्त विपक्षी दल नहीं है। अपार बहुमत और लोकप्रियता के शिखर पर रहने के बावजूद 1947 से 1974 तक अभिव्यक्ति और सवाल पूछने पर सरकार प्रतिशोध के रूप में आ गयी हो, ऐसा उदाहरण कम ही मिलता है।
सत्ता में बहुमत का अर्थ यह बिल्कुल ही नहीं है कि सरकार निरंकुश है और उसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए। देश के संसदीय इतिहास में 1963 का साल बहुत ही उल्लेखनीय है। उस समय तक डॉ राम मनोहर लोहिया लोक सभा में पहुँच चुके थे। डॉ लोहिया , 1952, 1957, और 1962 के तीनों आम चुनाव हार चुके थे। विपक्ष के सबसे प्रखर नेता होने के बावज़ूद भी वे लगातार तीन चुनाव हार चुके थे। एक चुनाव 1957 का उन्होंने तो नेहरू के ही खिलाफ ही लड़ा था। उसे तो उन्हें हारना ही था, पर वे 1962 का भी चुनाव हार गए थे। 1963 में हुए एक उपचुनाव में वह फर्रुखाबाद से लोक सभा के लिए चुने गए। और फिर 1967 में वे दुबारा चुने गए। 1963 से 1967 तक उनके लोक सभा की गतिविधियों पर कई खण्डों में प्रकाशित पुस्तक लोक सभा में लोहिया का संपादन , डॉ कृष्ण नाथ ने किया है। इस पुस्तक को पढ़ने से, लोक सभा की बहसों का स्तर, विरोध की धार , सत्तारूढ़ दल की सोच और स्वस्थ संसदीय परम्पराओं का पता चलता है।
वह परम्परा आज की टीवी पर दिखने वाली नाटकीय बहसों से अलग थी। आंकड़ों और उद्धरणों से समृद्ध एक अकादमिक स्वरूप था बहसों में। 1963 में ही डॉ लोहिया ने नेहरू सरकार के खिलाफ पहली बार अविश्वास का प्रस्ताव लाया था। सरकार और विपक्ष दोनों ही जानते थे कि यह प्रस्ताव गिरेगा, पास नहीं होगा। पर इस प्रस्ताव के लाने का उद्देश्य, निरी आलोचना या निंदा नहीं थी, सरकार को यह आभास दिलाना और यह जताना भी था, उसे लाख जनता का विश्वास या बहुमत प्राप्त हो, पर विपक्ष भी खामखां ही अनायास लोक सभा में नहीं आया है। उसे भी इसी देश की जनता ने चुना है और उसका भी एक मक़सद है। अगर सत्तारूढ़ दल जनता की सेवा के लिये बहुमत से चुना गया है तो विपक्ष भी उसी जनता द्वारा ही चुना गया है। वह बेमतलब और अप्रासांगिक नहीं है। डॉ लोहिया द्वारा पेश किया गया अविश्वास प्रस्ताव, जैसी उम्मीद थी, वह पारित नहीं हो सका। पर उस पर जो बहस हुयी वह ऐतिहासिक हुयी।
जब कोई व्यक्ति देश बन जाय, उसकी आलोचना ईशनिंदा, सरकार और प्रधानमंत्री तथा देश की आलोचना का फ़र्क़ मिटा दिया जाय तो समझ लीजिये लोकतंत्र के गर्भ में फासीवाद आ गया है। तानाशाही की ओर बढ़ते हुए लोकतंत्र की तरह, जब एक व्यक्ति उभरता है, अच्छा वक्ता है, देश के लिए केवल मरने की बात को गौरवान्वित करता है, सेना की आड़ लेता है, और देश को अंध राष्ट्रवाद के ज्वर से संक्रमित कर देता है, तो समझ लीजिये, यह गर्व करने का नहीं, सतर्क हो जाने का समय आ गया है। 1920 से 1935 तक के यूरोप के इतिहास के अध्ययन के दौरान आप लोकतंत्र को इसी फार्मूले के अनुसार, तानाशाही में बदलते हुए देख सकते हैं। संतोष की बात यह है कि भारतीय सनातन परम्परा में फासीवादी या अधिनायकवादी तत्व सदैव हतोत्साहित किये गए हैं। एकराट , चक्रवर्ती सम्राट से ले कर राजा, राजन्य तक की परम्परा वाले इस महान देश में अकेली जनता का बेबस स्वर भी गूँजा है और सत्ता ने उनकी सुनी है। हमारी भारतीय परम्परा में आलोचना और निंदा को भी वही स्थान प्राप्त है जो, प्रशंसा को। बल्कि अतिशय प्रशंसा जो अक्सर चाटुकारिता लगती है उसे लोग उतना पसंद नहीं करते जितना सत्ता के समक्ष अकेले खड़े आलोचना के स्वर को।
सत्ता की आलोचना, विशेष कर राज सत्ता की आलोचना एक साहस का काम है। और साहस की सदैव प्रशंसा ही हुयी है। लेकिन इसी सनातन परंपरा के खिलाफ हिंदुत्व के सिद्धांतकार शातिराना चालों और छल से पवित्रता से भी पवित्र दिखने के आडम्बरी चोले में सामने आते हैं तो उन्हें पहचानना, और उनसे सतर्क रहना जरूरी हो जाता है। भारतीय परंपरा मूलतः धर्मनिरपेक्ष रही है। राजा का तो धर्म रहा है, पर राज्य का धर्म कभी भी नहीं रहा। सरकार कितनी भी सक्षम हो, समर्थ हो योग्य हो, राम की ही क्यों न हो, आलोचना के विंदु सदैव विद्यमान रहते हैं।
सरकार, अबाध राज करने के लिये नहीं राज्य के तंत्र के मुखिया के रूप में तंन्त्र के संचालन के लिये चुनी जाती है और उसकी जवाबदेही जनता के प्रति है तो जनता का यह परम दायित्व है कि वह सवाल उठाए, और सरकार को असहज करने वाले सवालों से घेरे। यह भूमिका जनता की ओर से मीडिया को निभाना है और उसे निभाना चाहिये। लेकिन जब मीडिया द्वारा सवाल उठाने पर कुछ सत्ता समर्थक तत्व मीडिया को ही कोसने लगते हैं तो यह समझ लीजिये कि तानाशाही का वायरस सक्रिय हो रहा है। और यही समय है जाग जाने का, अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो जाने का।