मद्रास हाईकोर्ट ने चाइल्ड रेप के मामले में एक बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा है कि इस तरह के केस में अदालत को हमेशा बलात्कार पीड़ित बच्चों की गवाही पर ही भरोसा करना चाहिए। कोर्ट को इस तरह की गलतफहमी को नजरअंदाज करना चाहिए कि पीड़ित बच्चे किसी तरह के दबाव या कसम की वजह से झूठ बोलते हैं।
जस्टिस एस वैद्यनाथन ने कहा, “बलात्कार पीड़ितों के मामलों में न्यायालय को बच्चे द्वारा कही गई बातों पर विश्वास करना होगा। ये गलत धारणाएँ हैं कि बच्चे झूठ बोलते हैं या फिर माता-पिता उन्हें दूसरों के खिलाफ छेड़छाड़ की झूठी शिकायतें करना सिखाते हैं। न्यायालय द्वारा बाल शोषण के मामलों पर प्रतिक्रिया देते समय इस तरह की मिथकों का प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।”
उच्च न्यायालय ने इसका अवलोकन 2011 में हुए एक मामले की सुनवाई करते हुए किया, जिसमें एक व्यक्ति ने पाँच वर्षीय लड़की का यौन उत्पीड़न किया था। बार और बेंच में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक एक ट्रायल कोर्ट ने गणपति को दस साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई और उस पर 2,000 रुपए का जुर्माना लगाया। गणपति ने विभिन्न मामलों में ट्रायल कोर्ट की सजा को चुनौती दी, जिसमें दो दिन देरी से पुलिस शिकायत और दुश्मनी निकालने के लिए गवाही देना आदि शामिल था।
हालाँकि, न्यायमूर्ति वैद्यनाथन ने बचाव पक्ष के वकील द्वारा दी की गई कई दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि कोई भी पीड़ित व्यक्ति से शिकायत करने के लिए पुलिस स्टेशन जाने की उम्मीद नहीं कर सकता है, क्योंकि किसी लड़की के साथ बलात्कार का न केवल पीड़िता के शरीर पर बल्कि उसकी विनम्रता/ शालीनता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
अदालत ने मेडिकल परीक्षक की गवाही पर ध्यान देते हुए कहा कि इससे उबरने के लिए पीड़िता को जिस दर्द का सामना करना पड़ता है, उसका अनुकरण नहीं किया जा सकता है। इसके साथ ही न्यायालय ने ये भी पाया कि आरोपित ने जो पीड़िता के माता-पिता पर दुश्मनी की वजह से रेप लगाने की बात कही थी, वह भी निराधार निकली।
जिसके बाद अदालत ने आरोपित के अपील को खारिज कर दिया था और बलात्कार के लिए ट्रायल कोर्ट की सजा को बरकरार रखा था। साथ ही कोर्ट ने यह भी ध्यान दिलाया कि आंशिक पेनेट्रेशन भी बलात्कार है। कोर्ट ने यह भी कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक बच्ची के साथ हुआ बलात्कार किसी व्यस्क महिला के साथ हुए बलात्कार से अधिक गंभीर है।
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