बुलंदशहर की हिंसा की तह में जाने से पहले 2002 के गुजरात में जाइए। गोधरा को याद किजिए, उसके बाद हुए दंगों को याद कीजिए। दंगों के बाद गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री हरेन पांडया की हत्या के पसमंजर को देखिए। हरेन पांडया के माता-पिता के दुख को महसूस कीजिए। सोहराबुद्दीन शेख का फर्जी एनकाउंटर याद किजिए। दंगों के बाद पत्रकार राना अयूब की ‘गुजरात फाइल्स’ पढ़िए। ‘तहलका’ स्टिंग को देखिए। जज लोया की मौत याद कीजिये। ये सब देखने के लिए आपको मेहनत करनी होगी। गूगल खंगालिए। सब कुछ वहां मौजूद है। उस समय की रिपोर्टिंग देखिए।
सब कुछ देखने के बाद उत्तर प्रदेश आ जाइए। करीब पौने दो साल के योगी शासन का बारीकी से अध्ययन कीजिए। सब कुछ साफ हो जाएगा। योगी, मोदी की तरह हिंदुओं के नेता बनना चाहते हैं। देश की सर्वोच्च कुर्सी पर विराजमान होना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने ‘गुजरात मॉडल’ चुना है। सरकारी इमारतों का भगवाकरण, सरकारी बसों को केसरिया रंग में रंगना, शहरों के नाम बदलना, बात-बात पर हिंदू मुसलमान करना मुख्यमंत्री योगी की आदत में शुमार हो गया है।
जरा सोचिए, बुलंदशहर के इतने बड़े इज्तिमा को योगी का शासन अनुमति दे देता है। अगर चाहते तो अनुमति नहीं मिलती। मुसलमान दो-चार दिन हायतौबा करके चुप बैठ जाते। लेकिन योगी सरकार में उत्तर प्रदेश क्या, देश के अब तक सबसे बड़े मुसलमानों के जमावड़े को बगैर किसी ‘किंतु-परंतु’ के अनुमति मिल जाती है। आप इसे क्या योगी सरकार की दरियादिली समझते हैं? ऐसा नहीं है। मेरा माथा तो तभी ठनका था, जब पता चला था कि बुलंदशहर में एक बहुत बड़ा इज्तिमा होने जा रहा है। कुछ कहने का मतलब नहीं था। कुछ कहने का मतलब था, कुफ्र का फतवा लग जाने की नौबत आ जाना। इशारों-इशारों में कुछ कहना भी चाहा तो वही सब कुछ सुनने को मिला, जिसकी उम्मीद थी।
यकीन मानिए, पूरे तीन दिन तक दुआ करता रहा कि इज्तिमा बिना किसी हादसे के ठीक-ठाक गुजर जाए। लोग अपने घरों में वापस आ जाएं। जब दिन के बारह बजे और मालूम हुआ कि इज्तिमा में दुआ हो गई और लोग अपने घरों को लौटने लगे हैं, तो मैंने अपने आप को कोसा कि मैं काल्पनिक खतरा महसूस कर रहा था। लेकिन तभी एक घंटे बाद स्याना में हिंसा की खबरें आने लगती हैं। कुछ खबरों में यह भी कहा गया कि इज्तिमा से लौटते हुए लोगों पर हमले हुए हैं। दिल एकबारगी कांप कर रह गया। टीवी के एंकर और हिंदूवादी नेता गौकशी को इज्तिमा से जोड़कर माहौल में तनाव भरने लगते हैं। स्याना में सुमित को गोली लगती है। वह मारा जाता है। बस शायद गलती यह हो गई कि इंस्पेक्टर सुबोध सिंह को गोली मार दी गई। चाल उल्टी हो गई। जरा कल्पना कीजिए। सिर्फ सुमित ही मारा जाता तो उसकी लाश के सहारे क्या कुछ नहीं किया जा सकता था? साजिश बड़ी थी, नाकाम हो गई।
आखिर में एक बात कहता हूं। आज के हालात में जब आए दिन कोई टोपी-दाढ़ी वाला, गाय पालक मॉब लिंचिंग का शिकार हो रहा है, इतना बड़ा इज्तिमा करना बचकाना था या नहीं?