उत्तरप्रदेश सरकार लखनऊ के मशहूर चौराहे ” हज़रतगंज” का नाम बदल कर अटल चौक रख रही है. जिसका काफी विरोध हो रहा है. दरअसल हज़रत गंज चौराहे का नाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हज़रत महल के नाम पर रखा गया था. पत्रकार पंकज श्रीवास्तव कहते हैं – “हज़रतगंज,बेग़म हज़रतमहल नहीं वाजिदअली शाह के पिता अमजदअली शाह के नाम पर है जिन्हें हज़रत कहा जाता था।”
अपनी सांप्रदायिक कार्यप्रणाली के लिए मशहूर योगी आदित्यनाथ सरकार हर उस नाम को बदल रही है. जिसका सम्बन्ध मुस्लिमों से है. इस नाम बदलने की राजनीति पर सोशल मीडिया में लोग तरह तरह की प्रतिक्रिया दे रहे हैं.
समाजसेवी नदीम खान अपनी फेसबुक वाल पर लिखते हैं
प्रथम स्वाधीनता संग्राम का पूरे अवध में नेतृत्व करने वाली हज़रत महल के नाम से मशहूर हज़रत गंज चौराहे के नाम ,अंग्रेज़ो के मुखबिर अटल बिहारी के नाम पर रख दिया गया है. ठीक है 23 अपराध में शामिल अपराधी की सरकार है जब तक है ये सब होगा. सवाल उन महान लोगो से है जिन्होंने एक मुखबिर के मरने के बाद उसको महान बनाया था.
महान आपने बनाया महानता हम झेलें, आप उसकी मुखबिरी भूल गए, आपको नेली में उनका भाषण याद नही रहा आप उनकी समतलीकरण योजना भूल गए, दुसरो को राजधर्म की बात करने वाले खुद राजधर्म भूल गए और हज़ारो को मरता देखते रहे फिर गोआ में ज्ञान दिया कि मुसलमान मिल कर नही रह सकते दंगे करते है, ओडिशा में ग्राहम स्टेन और उनके बच्चों की लींचिंग को सही बताने वाले को आप महान, भारत रत्न और सेक्युलर बताएंगे तो यही होगा.
जिस तरह अटल के मरने के बाद गंगा जमनी के रास्ते चलने वालों ने उन्हें महान बनाया उसके बाद लग रहा है कि आडवाणी और तोगड़िया के मरने के बाद भी आप उन्हें भी महान बना देंगे क्योकि मुल्क के सेक्युलरिज़्म का भार आपके कंधे में ही रखा है.
जब आप अटल की साम्प्रदायिकता को नार्मल बना देंगे तो आपको आडवाणी मिलेंगे और जब आप आडवाणी को नार्मल करेंगे तो मोदी मिलेंगे और मोदी के बाद योगी और ये सिलसिला चलता रहेगा, लेकिन इसका खामियाजा उनको भुगतना पड़ेगा जिन्होने इस मुल्क के लिए जान माल सब कुछ दिया लेकिन उनका नाम तो क्या निशा भी नही रहेगा.
पत्रकार और युवा स्तंभकार असद शेख इस विषय पर प्रतिक्रिया देते हुए लिखते हैं
बेगम हजरत महल के नाम के चौराहें को बदला गया है, आप अगर स्कूलों में पैटर्न पर गौर करके देखेंगे तो आपको वीर शिवाजी,महाराणा प्रताप की तस्वीरें नज़र आएंगी और आनी भी चाहिए, लेकिन कभी आपने बाबर, अकबर, औरंगजेब या अलाउद्दीन खिलजी की तस्वीर देखी है?
चलिये जी औरंगजेब, अलाउद्दीन तो “कट्टर” थे, मगर अकबर वो तो सुलहे कुल वाला शासक था,वो तो अपने दरबार में “नवरत्न” रखता था,उसकी भी तस्वीर नही होती है? और जब स्कूलों में ही तस्वीरें नही होती है कैसे नई पीढ़ी को “इतिहास” का पता चले, कैसे वो यकीन करें कि अकबर के सेनापति “मान सिंह” ने ही अकबर को “शासक” बनाया था, और महाराणा प्रताप से जंग की थी, और कैसे वो ये जाने की अलाउद्दीन खिलजी वो शासक था जिसने राज्य या राजसिंहासन में धर्म का हस्तक्षेप खत्म किया था, कैसे वो यह जाने की इतिहास क्या है ? कैसे है?
वो बस बाबर,अकबर,हुमायूं और औरंगजेब “हमलावर” कहना ही जानता है, वो यह नही जानते है कि बूढ़े हो चुके “बहादुर शाह को 1857 की “क्रांति” में ज़्यादातर “हिन्दू” क्रांतिकारियों ने अपना “बादशाह” बनाया था, नई पीढ़ी को जो बताया,सुनाया और पढ़ाया जा रहा है वो “नफरत” है वो “गद्दी” की जंग को “धर्म” की जंग दिखाना है.
वरना क्या यह सवाल नही है कि आज भी इंडोनेशिया अपनी हज़ारों साल पुरानी संस्कृति को याद रखे है और “मुस्लिम मुल्क” होने के बावजूद भी अपनी करेंसी पर “गणेश” भगवान की तस्वीर गर्व के साथ पब्लिश करता है,पता है क्यों क्योंकि उसे अपने संस्कृति, अपने इतिहास और उससे जुड़ी चीजों से मोहब्बत है, वो उन्हें ज़िंदा रखना चाहता है और हम क्या कर रहें है?
हम इतिहास से जुड़े तमाम नामों को तो बदल ही रहे है, बल्कि आज़ादी की जंग लड़ने वाली बहादुर बेगम हज़रत महल ही का नाम बदल रहें है तो सवाल सिर्फ सरकार ही का नही है सवाल उस “धारणा” का है जो हमे हमारे इतिहास से “दूर” कर रही है,सवाल सबका है,सवाल इतिहास का है.
समाजशास्त्र के विद्वान और युवा समाजसेवी तारिक अनवर चम्पारणी लिखते हैं
संघियों को खूब पता है कि हजरतगंज का नाम बेग़म हज़रत महल के नाम पर है. आने वाली नस्लें जब अपने इतिहास को खंगालती तो बेग़म हज़रत महल जैसी वीरांगना नज़र आती जिसने अंग्रेजों को दाँतों तले चने चबवा रखी थी. यानी जब झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की बात होती है तब बेगम हज़रत महल की भी बात होती है.
यह इसबात को साबित करने के लिए काफ़ी थी कि देश के लिए मुसलमानों की क़ुर्बानी किसी से भी कम नहीं है. आज जब भाजपा ने हजरतगंज का नाम बदल कर अटल चौक कर दिया है तब आप यक़ीन रखिये की आने वाली किसी भी सरकार में इतनी हिम्मत एवं साहस नहीं होगी की अटल चौक का नाम बदलकर पुनः हजरतगंज कर दे.
जब सरकारी दस्तावेजों से हजरतगंज नाम हटाकर अटल चौक कर दिया जाएगा तब एक नस्ल से दूसरी नस्ल एवं तीसरी नस्ल आते-आते हजरतगंज को लोग अटल चौक बोलना शुरू कर देंगे. इस तरह से बेगम हज़रत महल नामक एक वीरांगना के इतिहास को आने वाली नस्लें भूलती जाएगी और बची रहेगी तो सिर्फ़ झाँसी वाली रानी. आप नाम बदलने को इतने हल्के में ले रहे है जो मेरी समझ से बाहर की बात है.
यूपी के सिद्दार्थनगर के मशहूर अधिवक्ता सरफ़राज़ नज़ीर लिखते हैं
समर शेष है, नही पाप का भागी केवल व्याघ्र
जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध
कवि रामधारी सिंह “दिनकर” की ये पंक्तियाँ मैं आज अपने बहुसंख्यक दोस्तों को समर्पित करता हूँ जो लखनऊ के हज़रतगंज चौराहे का नाम अटल चौक रखे जाने पर तटस्थता का रूख अपनाए हुए हैं.
बहरहाल हिंदोस्ताँ के अतीत में बेगम हज़रत महल जैसे लाखो मुसलमानों ने सुनहरे अक्षरो से इतने अध्याय लिखे हैं कि भाजपा अब से 50 साल तक सत्ता पर काबिज़ रहे और हर पन्ने फाड़ती रहे तो भी मुसलमानों के निशाँ मिटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.
मेरे बहुसंख्यक दोस्तों, जब कल को आपके बच्चे स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास पढ़ेंगे और बेगम हज़रत महल का 1857 के गदर में अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ अवध के मोर्चे पर बेगम को अग्रिम पंक्ति में लड़ता पाएंगे और बेगम की अंग्रेज़ो से इस शिकायत पर गौर करेंगे कि ” लखनऊ की सड़के मंदिर और मस्जिद तोड़कर क्यो बनाई जा रही है?
क्या आप इसाई धर्म के प्रचार के लिए मंदिरो और मस्जिदो को तोड़ेंगे फिर कहेंगे की ये धर्म में हस्तक्षेप नहीं है? ” तो इस बेगम हज़रत महल के नाम पर बने हज़रतगंज का नाम एक ऐसे व्यक्ति के नाम पर बदला जा रहा है जिसने ठीक अंग्रेज़ी हुकूमत की तर्ज पर एक समुदाय के उपासना स्थल को समतल करने का आह्वान किया था कि उसके आराध्य का मंदिर वहाँ बन सके?
तो क्या जवाब देंगे आप? बहरहाल आपकी खामोशी मायूस करने वाली है, अभी तक मुगलो को टारगेट करने का प्लान आपने व्हाटस्एप यूनिवर्सिटी के बल पर सफल बना लिया लेकिन हज़रत महल तो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थी, लखनऊ गजेटियर पढ़िए या विकिपीडिया, हर जगह हज़रत महल छाई है, अमिट है, आपकी इस करतूत पर आपके बच्चे थूकेंगे. लिख कर रख लीजिए. साॅरी बेगम हज़रत महल, फासीवाद से लड़ने वाले तटस्थता की अफीम चाट कर चिर निंद्रा में सो गए हैं.