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कुपोषित बच्चों को सही देखभाल एवं मार्गदर्शन की ज़रूरत

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कल उज्जैन में एक एनजीओ द्वारा संचालित होस्टल में दो छात्रों की सांप काटने से मृत्यु हो गई और शासन ने जिला प्रशासन के सी ई ओ को आदेशित किया है कि जांच करें. खबरों के अनुसार बच्चे जो सौ की संख्या में है उन्हें बेहद गलीज हालात में रखा जाता है और नीचे सुलाया जाता है. बच्चे देश की संपत्ति है और वे भावी नागरिक भी है परन्तु यह बात सिर्फ किताबी बनकर रह जाती है जब बच्चों के देखभाल और शिक्षा की बात आती है. मप्र में बचपन बेहद असुरक्षित है यह बात बार बार उभरकर आती है.
यदि उनके जन्म से लेकर बड़े होने तक के जीवन चक्र को देखें तो वे प्रायः कोख से ही असुरक्षित होते है , जन्म लेते ही कुपोषण का बदनुमा दाग उनके माथे पर लिखा होता है, अपर्याप्त देखभाल और उपेक्षा उन्हें स्वाभाविक बचपन नहीं जीने देती और उनका मासूम बचपन खत्म हो जाता है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार मप्र में कुपोषण की दर सबसे ज्यादा है, वही निम्न शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं में बचपन खत्म होता जाता है. हम सब जानते है कि मप्र एक आदिवासी बहुत राज्य है और यहाँ शिक्षा की स्थिति बहुत ही खराब है. आदिवासी बच्चों को शासन प्राथमिक स्तर से लेकर महाविद्यालयीन शिक्षा तक होस्टल की सुविधा उपलब्ध कराता है.
आलीराजपुर जिले के कट्ठीवाड़ा क्षेत्र में कल्याणी संस्था के प्रयासों से पिछले बीस वर्षों में पुरे क्षेत्र में जागरूकता आई है और लडकियां और लड़के अपने गाँवों से बाहर निकलकर शिक्षा की ओर उन्मुख हुए है परन्तु शासन ने इन बच्चों और किशोरों के लिए होस्टल में संख्या बढ़ाई नही, संस्था के लाख प्रयास करने के बाद भी उल्लेखनीय सीट्स नही बढ़ी, आखिर संस्था ने अपने होस्टल शुरू किये और लड़कियों को सुविधाएं दी आज पुरे इलाके में ग्रामीण स्तर पर काम करने वाली शिक्षिकाएं, ए एन एम, नर्स या आंगनवाडी कार्यकर्ता शिक्षित है और इनके विद्यालय और होस्टल से निकली हुई है. आज तक इस कल्याणी संस्था से 1500 से ज्यादा लडकियां पढ़कर निकल चुकी है जो उच्च शिक्षा भी ली है डाक्टर भी है और इंजीनियर भी. सबसे बड़ी बात यह है कि इनमे से किसी ने भी बाल विवाह नहीं किया और शादी के बाद अपना परिवार भी छोटा रखा है. झाबुआ जिले के पेटलावद ब्लोक के ग्राम रायपुरिया में सम्पर्क नामक संस्था ने सन 2004 में जब आवासीय विद्यालय शुरू किया था तो ये समस्या थी कि जागरूकता के बाद जब आदिवासी समुदाय ने बच्चों के पढने के लिए होस्टल और स्कूलों में सम्पर्क किया तो उन्हें जगह नही मिली फलस्वरूप प्रक्षाली और नीलेश देसाई से लोगों ने जिद की कि वे अपना स्कूल और होस्टल शुरू करें, आदिवासियों ने फीस के रूप में अनाज देने की बात की. मप्र में संभवतः गांधीजी के सिद्धांत पर आधारित बुनियादी तालीम का यह अपने तरह का अनूठा आवासीय विद्यालय है. आज इस विद्यालय में 280 बच्चे रहते है और फीस उन्हें नगद मिल जाती है. नीलेश देसाई कहते है कि पेटलावद आज शिक्षा का हब बन गया है बच्चे पढ़ रहे है, सरकारी होस्टल में संख्या नहीं बढ़ी है , हमारी संस्था कि भी एक सीमा है अस्तु वे कमरे लेकर रहते है और पढ़ते है. सबसे अच्छी बात यह है कि आज तक ना तो कट्ठीवाड़ा में या रायपुरिया में कोई बच्चा गंभीर बीमार हुआ ना मौत हुई किसी की. कारण है समर्पण और प्रतिबद्धता से देखभाल और उचित प्रबन्धन.
सरकारी संस्थाओं में अक्सर वार्डन बाहर रहते है और वार्डन होने के साथ वे अध्यापकीय दायित्व भी निभाते है इससे उनका ध्यान होस्टल पर कम होता है. दूसरा, होस्टल में मिलने वाले फंड्स में नियमितता का अभाव – अक्सर अनुदान नियमित नही होता जिससे बच्चों की देखभाल प्रभावित होती है और उनके भरण पोषण के लिए लगने वाली खाद्य सामग्री में कोताही बरती जाती है, होस्टलों की स्थिति बहुत खराब है और वहाँ मूल सुविधाओं का अभाव है बिजली पानी शौचालय आदि पर बात करना कई बार बेमानी हो जाता है. रसोईघरों में टपकती छत से लेकर गुणवत्तापूर्ण भोजन भी एक बड़ी समस्या है. जब उज्जैन जैसे जिला मुख्यालय और स्मार्ट सीटी में बच्चों के होस्टल में यह हालत है तो ज़रा विचार करिए झाबुआ, आलीराजपुर, शहडोल, मंडला, डिंडौरी या बालाघाट जैसे आदिवासी बहुल के दूरस्थ जिलों में दूर दराज के होस्टल्स में क्या हाल होते होंगे और कई बार तो रपट भी दबा दी जाती है और मामला रफा दफा हो जाता है. जबकि ठीक इसके विपरीत होस्टल्स के लिए पर्याप्त धन आता है, सुविधाओं और मेंटेनेंस के नाम पर प्रतिवर्ष विभाग पर्याप्त राशि उपलब्ध भी करता है ताकि हेंडपंप, शौचालय, बिजली, नल, पानी, भोजन आदि के लिए कोई कमी ना हो. पलंग – बिस्तर से लेकर बच्चों को दी जाने वाली दैनिक उपयोग की सामग्री भी इस सबमे निहित है पर इस तरह की लापरवाही यह दर्शाती है कि इस सबका कोई अर्थ नहीं है जब तक कड़ी निगरानी, और पर्याप्त रूप से ध्यान ना दिया जाये, अनुश्रवण ना किया जाए. इसके साथ ही साथ समर्पण, सेवा का भाव जब तक हम कार्यरत कर्मचारियों में नहीं उपजायेंगे तब तक बच्चों की इसी तरह से उपेक्षा होती रहेगी . उपरोक्त दो संस्थाओं के उदाहरण हमें सिखाते है कि शिक्षा के साथ बच्चों को सुविधाएं, मार्गदर्शन और संस्कार भी जरुरी है ताकि वे सही अर्थों में जीवन मूल्य सीखकर समाज में अच्छे नागरिक बन सकें. इन दो बच्चों की मौत एक सवाल है जो हमें रोज पूछना चाहिए अपने आप से कि हम अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार कर रहे है ?