“वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे, जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे, हम जीते जी मसरूफ रहे”
एक फौजी अफसर, एक पॉलिटिशियन, एक डिप्लोमेट, एक क्रांतिकारी, और उर्दू अरबी का अध्येता, फैज अहमद फैज की मसरूफ जिंदगी का किस्सा स्यालकोट से शुरू होता है। अंग्रेजी में एमए फ़ैज़ , ब्रिटीश आर्मी के अफसर हुए। लेफ्टिनेंट कर्नल की पोजिशन तक पहुँचे थे, जब हिंदुस्तान का बंटवारा हुआ।
लेफ्टिनेंट कर्नल साहिब ने इंडिया से कश्मीर युद्ध लड़ा। इनके जनरल थे, अकबर खान जो फ़ैज़ की तरह कम्युनिस्ट थे। कम्युनिस्ट सब कुछ हो सकता है, धार्मिक रूढ़िवादी और कम्यूनल नही। युध्द के बाद फ़ैज़ ने फ़ौज छोड़ दी, अखबार शुरू किया और पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी बनाई। अकबर खान फ़ौज में रहे, प्रधानमंत्री लियाकत के खिलाफ एक तख्तापलट की योजना बनाई..पकड़े गए। और पकड़े गए फ़ैज़ भी, जेल दाखिल हुए।
चार साल जेल के बाद, जब सरकार बदली उनके साथियों ने फ़ैज़ की सजा माफ करवाई। शर्त थी कि देश छोड़ देंगे। फ़ैज़ चले गए रशिया.. मगर लौट आये। सरकार ने फिर जेल डाल दिया। जेल में ही उन्होंने नज्में लिखी, शायरी की।
सरकार फिर बदली, फिर जेल से छूटे निर्वासन की शर्त पर, लन्दन चले गए। लेनिन पीस प्राइज मिला, जो तब नोबल पीस प्राइज का रशियन जवाब हुआ करता था। इधर दोस्त जुल्फिकार सरकार में आ गए। फ़ैज़ लौटकर गवर्मेंट में आ गए। लेकिन फिर जुल्फीकार अली भुट्टो को जिया ने अपदस्थ किया, जेल डाला, फांसी दी। फ़ैज़ पाकिस्तान से गायब हुए, बेरूत में दिखे। और तब ही वो नज्म लिखी-“हम देखेंगे”
पाक में जिया जैसा शासक कोई नही हुआ। मास्टर ऑफ एवरीथिंग। जिन्ना की सोच का पाकिस्तान एक सेक्युलर देश था। जिन्ना का “रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान” उनकी मौत के दस साल बाद “इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान” हुआ। मगर अयूब से जुल्फी तक, राजनीति और धर्म को काफी हद तक अलग रखे थे। जिया ने इसे पूर्णतः इस्लामी स्टेट बना दिया। अल्लाह का राज कायम किया- निजामे मुस्तफा। मने राम-राज्य टाइप।
और खुद ही मुस्तफा बन बैठे। जनता को इस्लाम की घुट्टी दी, हर अधिकार छीना। बदले में दिया शरिया, ईशनिंदा कानून, शिक्षा का तालिबानीकरण, और बेतरह पाबंदियां। फ़ैज़ ने लिखा – जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से, सब बुत उठवाए जाएँगे।
जिया को चेतावनी दी- जिस अल्लाह के नाम पर तुम और तुम्हारे लोग जो ईश्वर की मूरत बने बैठे हो, हमारे रहते ही वो वक्त आएगा कि तुम्हे उठा दिया जाएगा। और हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम, मसनद पे बिठाए जाएँगे।
डेमोक्रेसी का सपना देखने वाला फ़ैज़ अपने सर्वशक्तिमान डिक्टेटर को कहता है- सब ताज उछाले जाएँगे। सब तख़्त गिराए जाएँगे। तुम्हारे हटने के बाद , बस नाम रहेगा अल्लाह का। जिस अल्लाह के नाम के सहारे तुमने अपनी हुकूमत कायम की है, तुम्हारे बाद ही उसका असली परचम लहरायेगा।
“बस नाम रहेगा अल्लाह का , जो ग़ायब भी है हाज़िर भी, जो मंज़र भी है नाज़िर भी । उठेगा अन-अल-हक़ का नारा, जो मैं भी हूँ और तुम भी हो। और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा, जो मैं भी हूँ और तुम भी हो”
जिया खत्म हो गए। पाकिस्तान में लोकतंत्र आया, जुल्फी की बेटी गद्दी पर आई। मगर फ़ैज़ ये देख न सके। वे 1984 में इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे। मौत के वक्त लिटरेचर के नोबल के लिए नामित हो चुके थे।
मौत के पैंतीस साल बाद जिसके लफ्जो को का वजन तौलने के लिए, हिन्दोस्तां के मिस्त्री मैकेनिकों ने असबाब खोल लिए हैं। कुछ ऐसे बुतपरस्तों की शिकायत पर, जिनने खुदा के एक बन्दे को खुदा मान रखा है। जिसकी ताकत और तरीके जिया से कहीं कम नहीं।
चलिये, फ़ैज़ की एक और नज़्म गुनगुनाने का वक्त है।
दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।