दीपक मिश्रा
“आजकल की लड़कियाँ” ये लाइन हमें आसपास हमेशा सुनने को मिल जाती है अधिकतर नकारात्मक रूप में। पुरुषों का एक बड़ा वर्ग हो या पितृसत्तात्मक विचारों में जकड़ा हुआ समाज( महिलाएं भी शामिल हैं) हो जिन्हें “आजकल की लड़कियाँ” जाने क्यूँ सभ्य नहीं लगती।
इन की बातों को सुना जाए तो बड़ी हास्यास्पद होती हैं जैसे “अरे आजकल की लड़कियों के तो नख़रे अलग हैं” , “अरे इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है”, “इन्हें बस फेमस होना है उसके लिए कुछ भी करती हैं”, “देखो बेहुदा तरीके के कपड़े पहनती हैं”, “कितना बोलती है”, और भी कई तरह की बातें वैसे आप सभी भी सुनते रहते होगे और साथ में ठहाके भी लगाते होंगे।
आख़िर कौन हैं ये “आजकल की लड़कियाँ” वो जो अपनी जिंदगी के फैसले ख़ुद लेने में यक़ीन रखती है और तथाकथित ज्ञानियों से सलाह नहीं लेती, वे जो ख़ुद के पैरों पर खड़ी होना चाहती हैं, वे जो ज़िन्दगी को जीना चाहती हैं अपनी मर्ज़ी से, आज़ादी से, जो ख़ुद का नाम अपने काम से बनाना चाहतीं हैं नाकि अपने पति के उपनाम से।
इन “आजकल की लड़कियों” से ये परंपरावादी डरते हैं इसलिए उन्हें असभ्य और अश्लील कहने से भी नहीं चूकते। ये अपने विचारों में बढ़ने के नाम पर कहते हैं अरे लड़की काम करे अच्छी बात है पर ये भी चाहतें की इन्हें वो लड़की गोल रोटी भी रोज सुबह शाम खिलाए। इन्हें डर रहता है कि कहीं इन्हें कोई ये ना कह दे “अरे तू लड़की से पिछड़ गया”। क्यूँ लड़की आपसे बेहतर नहीं हो सकती है या बेहतर होने का ठेका आपका है जैसे दहेज लेने का।
ये किसी लड़की की सफलता की तारीफ भी ऐसे करते हैं “अरे लड़की होकर इतना कर गई बहुत बड़ी बात है” यहाँ ये जाहिर करने से नहीं चूकते कि बड़े काम करना तो इनकी बापौती है। ये जान लेना चाहिए जब समाज का कोई वर्ग किसी अन्य वर्गों की स्वछंदता और उनके अधिकारों को छीनने का प्रयास करने लगता है तो वो अपने पतन की दिशा में आगे बढ़ने लगता है।
“आजकल की लड़कियाँ” होने का मतलब स्वतन्त्र होना, खुश होना है तो इनकी संख्या रोज बढ़नी चाहिए और जररूत है कि ये संस्कृति के रक्षक महानुभव उनके हक़ पर अतिक्रमण करने की कोशिश न करें।