कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कहा है कि
” जम्मू कश्मीर में सशस्त्र बल अधिनियम और अशांत क्षेत्र अधिनियम की समीक्षा की जायेगी।. सुरक्षा की ज़रूरतों और मानवाधिकारों के संरक्षण में संतुलन के लिए कानूनी प्रावधानों में उपयुक्त बदलाव किए जाएंगे। सशस्त्र बलों की तैनाती की समीक्षा करने, घुसपैठ रोकने के लिए सीमा पर अधिक सैनिकों को तैनात करने, कश्मीर घाटी में सेना और सीआरपीएफ की मौजूदगी को कम करने और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए जम्मू कश्मीर पुलिस बल को और अधिक ज़िम्मेदारी सौंपने का वादा करती है। ”
इस वादे पर विवाद हो गया है। आइए पहले इस कानून की पृष्ठभूमि और इतिहास पर चर्चा करें।
लोकतंत्र का एक उद्देश्य कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। एक ऐसी सरकार और ऐसी व्यवस्था जो जन कल्याण को अपना लक्ष्य बना कर चले। भारत के महान नेताओं ने जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में भारत को आज़ाद कराने के लिये अपनी अपनी तरह से उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी ताकत से लोहा और आज़ादी दिलाई ने एक कल्याणकारी राज्य का ही सपना देखा था। 1947 में आज़ाद होने के बाद देश के सामने नवस्वतंत्र देश को बचाने और उसे जनकल्याण के प्रगति पथ पर ले जाने की चुनौती थी। उस समय जो भी देश का नेतृत्व था उसने उन चुनौतियों का सामना किया और उस हंगामाखेज माहौल में जो बेहतर हो सकता था, उन्होनें किया।
आज़ादी के बाद पाकिस्तान के पश्चिमी और पूर्वी इलाकों से आये शरणार्थियों के पुनर्वास, देसी रियासतों के शांतिपूर्ण विलय, भयंकर साम्प्रदायिक दंगों के बीच पनपे वैमनस्य, पाकिस्तान का कश्मीर पर हमला, संविधान का निर्माण, लोकतांत्रिक परंपराओं की स्थापना आदि बड़ी चुनौतियां थी, जिसे उस समय के नेताओं को उनका सामना करना पड़ा था।
उसी में एक समस्या थी नार्थ ईस्ट की जो देश की मुख्यधारा से अलग था। स्वाधीनता संग्राम में नार्थ ईस्ट के आसाम का ज़िक्र तो मिलता है पर अन्य छोटे छोटे राज्य मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, मिजोरम आदि के योगदान की चर्चा कम मिलती है। इसका कारण वे इलाके जंगलों और नदियों से भरे पटे थे, आबादी कम थी और अंग्रेजों का भी ध्यान उधर नहीं था। ये भूभाग थे तो भारत मे ही पर आवागमन के कठिन साधनों ने उन्हें भौगोलिक रूप से अलग थलग कर रखा था।
बंटवारे के दौरान जिन्ना की मुस्लिम लीग बंगाल और आसाम दोनों चाहती थी। पर जब सीमा आयोग बाउंड्री कमीशन ने सीमा बनायी तो बंगाल का एक तिहाई भाग हमे मिला और शेष पूर्वी पाकिस्तान में गया जो आज बांग्लादेश है। त्रिपुरा तो रियासत थी जो भारत मे मिल गयी। आसाम एक प्रान्त बना जिसमे पूरा नार्थ ईस्ट आ गया। फिर बाद में 1960 से 70 तक अलग अलग समय पर नागालैंड, मेघालय और मिजोरम राज्यों का गठन किया गया। नेफा ( नार्थ ईस्टर्न फ्रंटियर एजेंसी ) को अरुणांचल प्रदेश के नाम से एक अलग राज्य बना दिया गया। त्रिपुरा तो रियासत थी ही, वह भी अलग राज्य बन गया।
आज़ादी के बाद नॉर्थ ईस्ट में अलगाववादी विचार ने जोर पकड़ना शुरू किया। नागालैंड ने भारत से अलग होकर एक आज़ाद मुल्क की बात की। इसका कारण इन इलाकों की अलग अलग संस्कृति और इनकी कबीलाई पद्धति थी। यह सामाजिक संरचना सभी पहाड़ी और अलग थलग पड़े आटविक क्षेत्रों में होती है। इस अलगाववादी आंदोलन से भारत सरकार को जूझना पड़ा और उसी क्रम में अलग अलग छोटे छोटे राज्य बनाये गए। आर्थिक दृष्टि से ये छोटे छोटे राज्य इतने सक्षम नहीं है कि उनकी सरकार अपने अपने टैक्सों से ही अपना काम चला ले तो यह सारा व्यय भारत सरकार पर ही पड़ता है।
पूर्वोत्तर के इन राज्यो में पुलिस व्यवस्था सुदृढ नहीं थी। छोटे छोटे जिले और एक जिले में दो तीन ही थानें थे। भारत मे भी केंद के पास पर्याप्त पुलिस या अन्य सुरक्षा बल उतना संगठित नहीं था जितना आज है। तब तक बीएसएफ, का गठन भी नहीं हुआ था। सीआरपीएफ ज़रूर थी, पर वह भी उतनी अधिक सुदृढ नहीं थी, जितनी आज है। जब नार्थ ईस्ट के छोटे छोटे राज्यों में अलगाववादी आंदोलन ने जोर पकड़ा तो सरकार को उसे नियंत्रित करने के लिये सेना की मदद लेनी पड़ी। सेना और पुलिस के अधिकारों में अंतर है। जब सेना को जो युद्धों का मुकाबला करने के लिये बनी है आंतरिक शांति व्यवस्था के काम मे लगाया गया तो उसे कुछ विशेष अधिकार दिए गये। ये अधिकार आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट AFSPA हिंदी में अफ्सपा कहलाये।
AFSPA अफ्सपा कानून 1958 में संसद द्वारा पारित किया गया। इस कानून का उद्देश्य यह है कि जब भी देश के किसी भाग में ऐसी उपद्रव ग्रस्त अशांत स्थिति किन्ही उग्रवादी या अलगाववादी गतिविधियों के कारण बढ़ने लग जाय और पुलिस बल उन्हें संभाल न सके तो सेना को विशेष अधिकार देकर उस स्थिति से निपटा जाता है। AFSPA के अंतर्गत मुख्य रूप ने सेना को विशेषअधिकार प्राप्त होते हैं।
अफस्पा के अनुसार, जो क्षेत्र “डिस्टर्ब” घोषित कर दिए जाते हैं वहाँ पर सशस्त्र बलों के एक अधिकारी को निम्नलिखित शक्तियाँ दी जाती हैं –
- अलगाववादियों को सेना द्वारा चेतावनी के बाद, यदि कोई व्यक्ति कानून तोड़ता है और अशांति फैलाता है, तो सशस्त्र बल के विशेष अधिकारी द्वारा आरोपी की मृत्यु हो जाने तक अपने बल का प्रयोग किया जा सकता है।
- अफसर अलगाववादियों के किसी आश्रय स्थल या ढांचे को तबाह कर सकता है जहाँ से हथियार बंद हमले का उसे अंदेशा हो।
- सैनिक टुकड़ी किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकती है।
- गिरफ्तारी के दौरान उनके द्वारा किसी भी तरह की शक्ति , जो वे उचित समझें का इस्तेमाल किया जा सकता है।
- अफसर संदिग्ध अलगाववादियों के परिवार के किसी भी व्यक्ति की सम्पत्ति, हथियार या गोला-बारूद को बरामद करने के लिए बिना वारंट के घर के अंदर जा कर तलाशी ले सकता है और इसके लिए जरूरी, बल का इस्तेमाल कर सकता है।
- एक वाहन को रोक कर या गैर-कानूनी ढंग से जहाज पर हथियार ले जाने पर उसकी तलाशी ली जा सकती है।
- यदि किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो उसको जल्द ही पड़ोसी पुलिस स्टेशन में अपनी गिरफ्तारी के कारण के साथ उपस्थित होना होता है कि उसको क्यों गिरफ्तार किया गया।
- सेना के अधिकारियों को उनके वैध कार्यों के लिए कानूनी संरक्षण दिया जाता है।
- सेना के पास इस अधिनियम के तहत अपने बचाव के अनुकूल या अन्य कानूनी कार्यवाही का भी अधिकार होता है।
- उसे अदालतों में सरकारी अभियोजन की सहायता लेने का भी अधिकार है।
- सेना के प्रति शिकायतों पर केवल केंद्र सरकार ही हस्तक्षेप कर सकती है।
60 साल पहले संसद ने “अफस्पा” यानी आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट 1958 को लागू किया था, जिसे “डिस्टर्ब” क्षेत्रों में कानून व्यवस्था लागू करने के लिये बहाल किया जाता है। अफस्पा को सबसे पहली बार 1 सितंबर 1958 को असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड सहित भारत के उत्तर-पूर्व में लागू किया गया था। इन सभी राज्यों में अलगाववादी गतिविधियां तेजी बढ़ गयी थी। जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं, कि पुलिस और आर्म्ड पुलिस बल व्यावस्था तब इतनी सुदृढ नहीं थी। नागा, मिजो, त्रिपुरा के अनेक छोटे छोटे उग्रवादी संगठन भारत गणराज्य से अलग हो जाना चाहते थे। भारतीय संघ से अलग होने की ज़िद ठाने ये उग्रवादी संघटन सामान्य जनजीवन के लिये खतरा बन गए थे अतः पूर्वोत्तर राज्यों में हो रही व्यापक हिंसा को रोकने के लिए यह कानून लागू किया गया।
1980 के बाद पंजाब में भी पाकिस्तान की शह पर कुछ आतंकी गतिविधियां हुयी । खालिस्तान के नाम पर अनेक छोटे छोटे गुट हिंसा लूटमार में संलग्न हो गए। 1983 की 25 अप्रैल को, अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में पंजाब पुलिस के डीआईजी एएसअटवाल की मत्था ठेक कर हरमंदिर साहब से बाहर आते समय हत्या कर दी गयी। तब तक खालिस्तान आंदोलन का नेता जरनैल सिंह भिंडरावाला ने स्वर्ण मंदिर में कब्ज़ा जमा चुका था। तब अलगाववादी गतिविधियों के बढ़ने के बाद पंजाब और चंडीगढ़ भी इस अधिनियम के दायरे में आ गए । पंजाब में कुल 12 साल के उपद्रव के बाद शांति स्थापित हुई और 1997 में इस कानून को वहाँ से हटा दिया गया। अफस्पा उसके बाद 1990 में, जम्मू कश्मीर में तब लगा जब आतंकी घटनाओं से जम्मू और कश्मीर अशांत हो गया था। यह कानून तब से जेके में लगा है। 1990 में ही कश्मीरी पंडितों का पलायन कश्मीर घाटी से हुआ था।
अशांत क्षेत्र घोषित करने का कोई तय पैमाना नहीं है। पर जब विभिन्न धार्मिक, नस्लीय, भाषा, क्षेत्रीय समूहों, जातियों,समुदायों के बीच मतभेद या विवादों के कारण, हिंसक गतिविधियां बढ़ जाती हैं और सामान्य पुलिस व्यवस्था के बस में नहीं रहती हैं विभिन्न खुफिया रपटों के आधार पर केंद्र सरकार या राज्य सरकार, राज्य या राज्य के किसी एक क्षेत्र को “डिस्टर्ब” घोषित करती हैं। राज्य या केंद्र सरकार के पास किसी भी भारतीय क्षेत्र को “डिस्टर्ब” घोषित करने का अधिकार है।
इस अधिनियम की धारा (3) के अंतर्गत राज्य सरकार की सहमति आवश्यक है, क्योंकि कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है । राज्य की सहमति का होना जरुरी है कि क्या एक क्षेत्र “डिस्टर्ब” है या नहीं ? अगर ऐसा नही है तो राज्यपाल या केंद्र द्वारा इसे खारिज किया जा सकता है।
अफस्पा अधिनियम की धारा (3) के तहत राज्य या संघीय राज्य के राज्यपाल को बजट की आधिकारिक सूचना जारी करने के लिए अधिकार देता है, जिसके बाद उसे केंद्र के नागरिकों की सहायता करने के लिए सशस्त्र बलों को भेजने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। विशेष न्यायालय अधिनियम 1976 के अनुसार, एक बार “डिस्टर्ब” क्षेत्र घोषित होने के बाद कम से कम 3 महीने तक वहाँ पर स्पेशल फोर्स की तैनाती रहती है। फिर समय समय पर स्वतः समीक्षा होती है। मई 2015 में, त्रिपुरा में कानून व्यवस्था की स्थिति की संपूर्ण समीक्षा के बाद, 18 सालों के बाद अंत में अफस्पा को इस राज्य से हटा दिया गया था। यह प्राविधान वर्तमान एनडीए सरकार ने ही हटाया था।
इस कानून के दुरुपयोग की शिकायतें भी कम नहीं हुयी हैं। नार्थ ईस्ट में इस कानून के अंतर्गत सेना की ज्यादती जांच के लिये सुप्रीम कोर्ट ने जीवन रेड्डी कमीशन का गठन किया, जिसकी रिपोर्ट में यह उल्लेख है कि , 2004 में मणिपुर की एक महिला थंगाजम मनोरमा का शव मिला था। उसे रात को उठाकर ले जाया गया और अगले दिन गोलियों से छलनी उसका शव मिलता है। उसकी हत्या का आरोप असम राइफल्स लगा था। इसी के खिलाफ 15 जुलाई 2004 को इंफाल में 14 महिलाओं ने कांगला फोर्ट के बाहर निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया था। यह तस्वीर गूगल कर के आप देख सकते हैं। इसके बाद ही सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी कमीशन बनी थी. जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया है। इस कमीशन ने सुझाव दिया था कि “अफस्पा को समाप्त कर देना चाहिए. यह कानून नफरत और भेदभाव का प्रतीक बन चुका है।”
सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई कि मणिपुर में 1980 से 2011 के बीच सेना, अर्धसैनिक बलों, मणिपुर पुलिस ने 1528 लोगों की एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्या की है. इसकी जांच कराई जाए। सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए।. इस फैसले के खिलाफ जब 700 सेना के पूर्व अधिकारी मिलकर कोर्ट गए कि ऐसा नहीं होना चाहिए। सीबीआई जांच नहीं कर सकती और न ही एफआईआर हो सकती है । उन्होंने अधिनियम की विशेष धारा और शक्ति का हवाला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका को रद्द कर दिया था। इस याचिका को केंद्र सरकार ने भी समर्थन दिया था। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस यूयू ललित ने कहा था कि ” उन्हें सेना के मनोबल को लेकर राजनीति करने वालों को याद रखना चाहिए. कि सेना, अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस के मनोबल गिरने के भूत को खड़ा करना सही नहीं है। ” शर्मिला इरोम का लंबा अनशन इसी कानून के दुरुपयोग के विरोध मे हुआ था।
पिछले कुछ वर्षों में, अफस्पा के लागू होने के कारण सरकार की बहुत सारी आलोचनाएं हुई हैं। मानवाधिकार संगठनों ने व्यापक दमनकारी प्राविधानों के कारण इसकी आलोचना की। इसका कारण यह है कि इस अधिनियम के तहत कोई भी अधिकारी बिना किसी कारण के जाने ही बल प्रयोग कर सकता है। 31 मार्च, 2012 को संयुक्त राष्ट्र ने भारत से कहा कि भारतीय लोकतंत्र में अफस्पा का कोई स्थान नहीं है इसलिए इसको रद्द कर दिया जाए। ह्यूमन राइट्स वॉच ने इस अधिनियम की आलोचना की है जिसमें दुरुपयोग, भेदभाव और दमन शामिल हैं। हालांकि, जब निकटता से देखा गया, तो जम्मू और कश्मीर क्षेत्र में आतंकवादी गतिविधियों की कमी के कोई संकेत नहीं दिखाई दिए। अफस्पा के बिना भारतीय सशस्त्र सेनाओं को आतंकवाद का सामना करने में कठिनाई आएगी।
इस अधिनियम की समीक्षा और इस पर चर्चा करने से पहले इस तथ्य पर विचार करना आवश्यक है कि यह एक असामान्य और असाधारण अधिकारों वाला विधेयक है और असामान्य परिस्थितियों में ही इसे लागू किया जाता है। यह देश का सामान्य कानून , लॉ ऑफ द लैंड नहीं है। जब सभी सामान्य कानून लगभग असफल होने लगते हैं और लोक व्यवस्था टूटने लगती है तो यह कानून सामने आता है। लेकिन इस असाधारणता और असामान्यता के कानून के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जब यह लंबे समय तक किसी भी क्षेत्र में लागू होता है तो सेना या जो भी बल हो उसके दुरुपयोग की शिकायतें आने लगती हैं।
दुनिया मे ऐसा कोई भी कानून आज तक नहीं बना है जिसका दुरुपयोग न हुआ हो। अफस्पा भी इसका अपवाद नहीं है। दुरूपयोग की बहुत शिकायते नार्थ ईस्ट, पंजाब और जम्मू कश्मीर से मिली हैं और आज भी मिल रही हैं। हो सकता है कुछ शिकायतें जानबूझकर कर करायी गयी और झूठी हों, पर सभी को झूठा मान कर खारिज करना जनता में तंत्र, सशस्त्र बल और सरकार के प्रति अविश्वास की जड़ जमाना होगा। जब अतिशय अधिकार प्राप्त होता है तब अतिशय सतर्कता की भी ज़रूरत पड़ती है। यह जिम्मेदारी सशस्त्र बल के अफसर की है कि वे कितनी प्रशासनिक दक्षता और कुशलता से अपने अधीनस्थ अधिकारियों पर नियंत्रण रख पाते हैं।
एक बात कटु सत्य है कि केवल सशस्त्र बल के भरोसे लंबे समय तक किसी अशांत क्षेत्र को शांत नहीं किया जा सकता है। शुरू में सशस्त्र बलों को मिलने वाले इन अधिकारों से जन मानस में डर रहता है पर जब यही डर आदत बन जाती है तो यह डर निकल जाता है। अधिकार का दुरूपयोग इस डर को निकाल कर जनमानस को और संगठित ही कर देता है। अलगाववाद हो या आतंकवाद की समस्या, इसका सबसे उपयुक्त हल है राजनीतिक स्तर से समाधान निकालना। यह राजनीतिक दलों के नेताओ की क्षमता, नीतियों और कुशलता पर निर्भर है कि कैसे वे इस अशांति से निपटते हैं। सशत्र बल और इस प्रकार के विशेष अधिकार प्राप्त कानूनों के ही बल पर किसी भी अशांत क्षेत्र को सामान्य नहीं बनाया जा सकता है।