अगर अख़लाक़ के हत्यारों को सरेआम बीच चौराहे पे लटकाकर फाँसी दे दी गई होती तो फिर किसी में दोबारा हिम्मत नहीं होती इस तरह का आतंक फैलाने की। लेकिन उलटा उन हत्यारों को सम्मानित किया गया, हत्यारों के पक्ष में लोग बयान देने लगे। हत्या के आरोपी की मृत्यु पर उसके शव को तिरंगे से लपेटा गया, हत्या के आरोपियों को नौकरी तक दी गई।
ये सिर्फ़ अख़लाक़ हत्याकांड में ही नहीं हुआ बल्कि पहलू खान, जुनेद से लेकर अलीमुद्दीन, रकबर, मज़लूम अंसारी जैसे न जाने कितने लोगों के हत्यारों के पक्ष में हमारी विधायिका से लेकर मीडिया एवं समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा खड़ा होकर हत्यारों का मनोबल बढ़ाता आया है। मीडिया लगातार हिंदू-मुस्लिम करके समाज को दंगाई बनाती आई है। सूट बूट पहनकर न्यूज़ एंकर हत्यारों के पक्ष में लगातार बोलकर देश को नफ़रत की प्रयोगशाला बनाने में लगा है।
इसी देश में एक केंद्रीय मंत्री जेल से ज़मानत पर बाहर आए हत्यारों को फूल माला पहना का स्वागत करता है, इससे बड़ी शर्म की बात और क्या होगी? पहलू खान के हत्यारों को कोई भगत सिंह का ख़िताब देता है तो कहाँ मर गई थी इस समाज को संवेदना?
हत्यारे कोई आसमान से बनकर नहीं आते हैं, उन्हें सत्ता अपने सियासी मक़सद के लिए प्रशिक्षण देती है। हत्यारों को सत्ता का संरक्षण प्राप्त है। आप सोचिए कि जब विधायिका के लोग हत्यारों के पक्ष में खड़े होकर उनको सम्मानित करते हैं तो वहाँ कानून का राज कैसे स्थापित हो सकता है? असल में ये हत्यारों को सम्मानित करने का काल है, ये आतंककाल है।
रुक कर एवं ठहर कर सोचिए, जिस नफ़रत को आप बढ़ावा दे रहे हैं वो एक दिन आपके घर तक ज़रूर पहुँचेगी। कल अख़लाक़ मारा गया था, आज सुबोध जैसे बहादुर पुलिस अफ़सर की हत्या कर दी गई, वो आग कल आपके घर तक भी पहुँच सकती है।
इस आग को जल्द से जल्द बुझाइए। नफ़रत एवं हिंसा को बढ़ावा देने वाले तमाम संगठनों का बायकाट कीजिए, सबसे पहले अपने घरों में लगा हुआ टीवी जो दिन रात साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा है उसे तोड़ डालिए।