आसान भाषा में समझिए कि जिसे आप कुछ नहीं मान रहे वो असल में कितना सीरियस मामला है। आपकी शक्ल किस एक्टर से मिलती है, आप अगले जन्म में क्या बनेंगे, आप की पर्सनैलिटी में सबसे शानदार क्या है? इस तरह के फालतू सवालों का जवाब कितना गंभीर होता है ये आप भी जानते हैं, लेकिन टाइमपास करने के फेर में आप क्लिक के बाद क्लिक किए जाते हैं और अपनी राय या जानकारियां उस पार बैठी किसी अनजान पेशेवर कंपनी से साझा कर लेते हैं।
हो सकता है कि आपके लिए आपकी राय दो कौड़ी की हो, मगर डाटा कलेक्शन के धंधे में उतरे पेशेवरों के लिए ये आंकड़े हीरे-मोती हैं। फेसबुक इस्तेमाल करनेवाले औसत बुद्धि हिंदुस्तानी की अक्ल कैसे काम करती है ये इन विदेशी कंपनियों को बखूबी पता है और इसीलिए बेतुकी ऐप्लीकेशन्स के ज़रिए प्राइवेसी की दीवारें तोड़कर आसानी से डाटा इकट्ठा कर लेती हैं।
भारत इंटरनेट की दुनिया में अभी नाबालिग है। जो देश इस राह में बहुत पहले आगे बढ़ चुके हैं वहां की सियासत इंटरनेट पर उपलब्ध डाटा के इस्तेमाल के तरीके को भी जानती है, और वहां के लोग भी इस गोरखधंधे को लेकर खूब संवेदनशील हैं। यहां तो हालत ये है कि लोग आधार कार्ड के कथित नफे के सामने नुकसान की बात सुनना भी नहीं चाहते। जिन लोगों ने अमेरिकी टीवी सीरीज़ ‘हाउस ऑफ कार्ड्स’ देखी है, वो जानते हैं कि डाटा का इस्तेमाल चुनाव प्रभावित करने के लिए कैसे किया जाता है। सबसे आपत्तिजनक ये है कि ऐसा किया जाना अवैध है।
जनमत को इन तरीकों से प्रभावित करना लोकतंत्र के साथ चीटिंग है। अमेरिका में पहले भी सरकारी स्तर और खुफिया तरीकों से नागरिकों की जानकारी इकट्ठा किया जाने का ज़बरदस्त विरोध होता रहा है। अमेरिकी नागरिकों की जागरुकता अमेरिकी नेताओं को ऐसा करने से रोकती रही है। आतंकवाद के नाम पर लोगों की निजी जानकारी संग्रह करने की योजना और भी खुलकर चलने लगी थी, मगर पढ़े-लिखे अमेरिकियों की जमात को ये आसानी से समझ आ गया कि उन्हें आतंकवाद का डर दिखाकर नेता मनचाहे कानून बना रहे हैं। ये कानून सिर्फ उनकी सत्ता को मज़बूत करने के काम आएंगे।
भारत की स्थिति अलग है। इस देश में नेता देवता होते हैं जो कभी कुछ गलत कर ही नहीं सकते। ये स्थिति तब है जब हमारे नेताओं की डिग्री से लेकर पत्नी तक दशकों तक छिपे रह जाते हैं और हम उनके बारे में कभी भी ठीक ठीक पता नहीं कर पाते। ऐसे में सोचिए कि अगर भारतीय चुनावों में कैंब्रिज एनेलिटिका जैसी कंपनियां सक्रिय रही हों तो भला हमें कौन बताएगा और कैसे पता चलेगा।
आज रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वो 2019 के चुनाव में कैंब्रिज एनेलिटिका की सेवाएं लेना चाह रही थी, तो सुरजेवाला ने बीजेपी पर आरोप लगाया कि 2010 के बिहार चुनाव में बीजेपी ने तो इस कंपनी की सेवाएं ली भी हैं। और तो और जेडीयू वाले केसी त्यागी के बेटे अमरीश त्यागी का नाम भी आ रहा है। अमरीश गाज़ियाबाद में एवेलेनो बिज़नेस इंटेलिजेंस चलाते हैं जो एससीएल लंदन का हिस्सा है। एससीएल ही कैंब्रिज एनेलिटिका की पेरेंट कंपनी भी है। अमरीश की कंपनी अपने संबंधों को एससीएल या कैंब्रिज एनेलिटिका से स्वीकारती तो है लेकिन फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म के साथ मिलकर काम करने से इनकार करती है।
दरअसल कैंब्रिज एनिलिटिका एक ब्रिटिश कंपनी है। कंपनी का मालिक है रॉबर्ट मर्सर जो डोनाल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी का दानदाता है। उसकी कंपनी पर इल्जाम है कि 2016 के अमेरिकी चुनाव में उसने ट्रंप की पार्टी को ये समझने में गैर कानूनी ढंग से मदद की , कि अमेरिकी जनता का रुझान क्या है। वहीं ब्रिटेन की जनता को यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलने के लिए भी कंपनी ने उकसाया था।
कैंब्रिज एनेलिटिका में काम करनेवाले 28 साल के क्रिस्टोफर विली ने खुलासा किया है कि कंपनी ने 5 करोड़ अमेरिकियों का फेसबुक डाटा एक्सेस करके इस तरह डिज़ाइन किया कि लोगों का ब्रेनवॉश हो और वोटर्स ट्रंप के पक्ष में वोटिंग करने लगें। लोगों को ट्रंप से जुड़े पॉजिटिव विज्ञापन खूब दिखाए गए। फेसबुक कहता रहा है कि वो किसी ऐप्लीकेशन को बहुत कम डाटा एक्सेस करने देता है लेकिन इस बार आरोप है कि फेसबुक ने जानबूझकर कैंब्रिज एनेलिटिका को ज़्यादा डाटा इकट्ठा करने दिया।
असल कहानी शुरू होती है साल 2014 से जब कैंब्रिज विवि में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ एलेक्ज़ेंडर कोगान को कैंब्रिज एनालिटिका ने 8 लाख डॉलर दिए। उन्हें एक ऐसी ऐप्लीकेशन डेवलप करने का काम दिया गया जो फेसबुक यूज़र्स का डाटा निकाल सके।
उन्होंने जो ऐप बनाई उसका नाम था दिस इज़ योर डिजिटल लाइफ। 2 लाख 70 हज़ार लोगों ने इस ऐप को डाउनलोड किया वो भी बिना जाने कि जिस ऐप को वो डाटा एक्सेस करने दे रहे हैं वो दरअसल इस डाटा का इस्तेमाल क्या, कहां और किसके लिए करेगी। कोगन ने सारा डाटा कैंब्रिज एनेलिटिका को बेच दिया। कैंब्रिज एनेलिटिका ने इस सारे आंकड़े के आधार पर लोगों की साइकोलॉजिकल प्रोफाइल तैयार कर ली। इसमें उनके रुझान, नापसंदगी , आदतों का सारा चिट्ठा था। आरोप है कि इन्हीं 5 करोड़ प्रोफाइल्स को फोकस करके डोनाल्ड ट्रंप के चुनावी प्रचार अभियान की योजना बनाई गई।
जब कैंब्रिज एनेलिटिका की हरकतें पकड़ में आईं तो उसने एक और खेल खेला। आरोप है कि उसने डोनाल्ड ट्रंप को बचाने के लिए अपने कागज़ातों में ऐसे हेरफेर किया कि पड़ताल में निष्कर्ष कुछ ऐसा निकले कि सारा डाटा रूस की मदद से इकट्ठा किया गया है। मुसीबत में फंसे फेसबुक ने कहा है कि 2015 में ही उन्होंने इस ऐप को हटा दिया था। ऊपर से उसने ये भी कहा कि ऐप को अपना एक्सेस लोगों ने खुद दिया जो एक हद तक सच तो है ही।
अब दुनियाभर में फेसबुक के खिलाफ गुस्सा है और जमकर अभियान चल रहा है। वॉट्सएप के सह संस्थापक ब्रायन एक्टन ने तो ट्विटर पर लिखा भी कि फेसबुक को डिलीट कर दें। वॉट्सएप वही है जिसे फेसबुक ने हाल ही में खरीदा था। अमेरिका और यूरोपीय सांसदों ने तो फेसबुक से जवाब मांगा है और मार्क जुकरबर्ग को पेश होने के लिए कहा है। अमेरिका में उपभोक्ता एवं प्रतिस्पर्धा संघीय व्यापार आयोग भी जांच शुरू करने जा रहा है। वहां भी कांग्रेस जुकरबर्ग को तलब करने वाली है।
फिक्र तो इस बात की है कि फेसबुक के सबसे ज़्यादा ग्राहक भारत में हैं। गूगल के साथ फेसबुक मिलकर अब एक ट्रिलियन डॉलर यानि 65 लाख करोड़ रुपए की कंपनी होने जा रही हैं। ये इतना पैसा है कि कई देशों की अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दे।
कांग्रेस और भाजपा नेताओं के आरोपों से साफ है कि इन दोनों ही पार्टियों ने फेसबुक और कैंब्रिज एनेलिटिका जैसे एजेंसियों से खुलकर या छिपकर हाथ तो मिलाए हैं। दोनों ही पार्टियां डिजिटल स्पेस पर कब्ज़े के लिए आईटी सेल्स खोलकर सेनाएं तैयार कर रही हैं। ज़ाहिर है, जीतने के लिए नेता उसी मॉडल पर चलने में नहीं हिचकिचाएंगे जिस पर ट्रंप की टीम चली है।
फिलहाल भारत के नेता फेसबुक को बचाते दिख रहे हैं। ऐसा होने के पीछे कई कारण हैं। फेसबुक इतनी भारी भरकम कंपनी बन चुकी है कि सरकारें और पार्टियां उसके भारी दबाव में हैं। ओड़ीशा के साथ फेसबुक ने मिलकर महिलाओं को उद्यमी बनाने की योजना शुरू की है। आंध्र में वो सरकार के साथ डिजिटल फाइबर प्रोजेक्ट चला रही है। केंद्रीय मंत्री किरण रिजीजू तो आपदा प्रबंधन के मामले में फेसबुक के गले में हाथ डाले खड़े हैं।
ये कंपनियां समाजसेवा में क्यों उतरती हैं इसे जो आज नहीं समझता वो सिर्फ मूर्ख है। व्यापारी कुछ भी मुफ्त में नहीं देता, यहां तक कि मुफ्त दी जा रही चीज़ भी असल में मुफ्त नहीं होती है। ये सिर्फ भारत की जनता के बीच छवि निर्माण का इन कंपनियां का तरीका है । सरकारों के कामकाज में घुसने की रणनीति है। भारत तो बस एक नया मैदान है। कंपनियां इस खेल को हमेशा खेलती और जीतती रही हैं।
वैसे फेसबुक का खेल खुलते ही उसके शेयरों का नुकसान पहुंचा है। ज़ुकरबर्ग ने शातिराना ढंग से दो हफ्ते पहले ही 11.4 लाख शेयर बेचे थे। पिछले तीन महीने में जुकरबर्ग वॉल स्ट्रीट में सबसे ज़्यादा शेयर बेचने वाले प्रोमोटर बन गए। दो ही दिनों में 49 लाख डॉलर का नुकसान झेल रही फेसबुक में सबसे ज़्यादा सुरक्षित भी ज़ुकरबर्ग ही रहे।
इससे पहले भी फेसबुक सबको इंटरनेट देने के नाम पर इंटरनेट को कंट्रोल करने की साज़िश रच चुका है। दक्षिण कोरिया में तो फेसबुक और इंस्टाग्राम पर 39.6 करोड़ वॉन का जुर्माना लगा है। कंपनी पर ये जुर्माना यूजर्स के लिए सेवाओं की उपलब्धता सीमित करने के लिए लगाया गया है। फेसबुक ने लोगों को मिलनेवाली इंटरनेट स्पीड धीमी कर दी थी।
ये तो मुश्किल है कि लोग फेसबुक से एकाउंट डिलीट करें मगर अब जो हो सकता है वो यही है कि अपना डाटा यूं ही किसी को ना दें। फालतू के गेम्स और ऐप्लीकेशन्स को इस्तेमाल ना करें। ये मासूम सी लगनेवाली ऐप हमारे देश और लोकतंत्र के लिए खतरनाक हैं। इन कंपनियों को ईस्ट इंडिया कंपनी ना बनने दें जिसने हमारे ही देश के राजाओं के साथ हाथ मिलाकर हम पर राज किया।