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संघ जो छवि पेश करता है, उसे पर्दे और टीवी पर फैला रहे निर्माता

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“पद्मावत” रिलीज़ भी हो गयी और उसकी कमाई ने कई रिकॉर्ड्स तोड़ नए नए कीर्तिमान भी दर्ज कर दिए,इस फ़िल्म की शुरुआत में कुछ एक सिनेमाघरों को छोड़ दें तो,”पद्मावत” रिलीज़ हो गयी है,फ़िल्म एक फ़िल्म के ऐतबार से केसी है इसको लेकर मिलीजुली प्रतिक्रिया सामने आ रही है,क्योंकि जिस तरह कड़ी सुरक्षा के बीच फ़िल्म रिलीज़ हुई थी वो एक रुकावट तो थी। लेकिन फ़िल्म फिर भी रिलीज़ हो गयी है। आने वाले दिन आना वाला वक़्त और इतिहास हमेशा याद रखेगा की हां एक फ़िल्म की वजह से बसें जलाई गई थी,एक फ़िल्म की वजह से एक लकीर बीच मे खींच दी गयी थी,और एक फ़िल्म ही ने बवाल खड़ा किया था।
असल में फिल्मों के साथ दो पहलू होते है,पहला ये की ये एक छवि का निर्माण करता है और एक तस्वीर दिमाग मे बैठा देता है कि “हां ऐसा ही हुआ था” और “ऐसा ही है” इसके बाद कोई भी गुंजाइश कोई भी बचाव या कोई तथ्य बच नही पाता है और सभी तथ्यों और अहम चीजों की जगह वो फ़िल्म या दृश्य ले लेती है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण है “जोधा अकबर” जैसे ही हम “अकबर” का ज़िक्र करते है तो एक तस्वीर हमारे सामने बन जाती है।
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जिसमे “हां अकबर वेसा ही होगा” जो जो उस फिल्म में दिखाया गया है वैसा ही वो होगा और इससे भी अहम चीज़ ये है कि कुछ गिने चुने लोगों को छोड़ दें तो बहुत बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जो फ़िल्म इतिहास समझने के लिए नही देखता है,तो इतिहास पढ़ेगा भी नही तो अंदाज़ा लगाइये स्थिति क्या बनी? स्थिति सिर्फ ये बनी की सभी तथ्यों और इतिहास से जुड़ी चीजों की जगह बहुत बड़े हुजूम के सामने फिल्मों ने ले ली।
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अब आइये दूसरे पहलू पर की संजय लीला भंसाली अपनी इस फ़िल्म की शुरूआत में एक मिनट का डिस्क्लेमर दिखाते है,जिसमे किसी भी ऐतिहासिक तथ्यों के होने की बात को नकारते हुए “पद्मावत” काव्य पर आधारित बताते है। लेकिन मेरे इस फ़िल्म को लेकर कुछ सवाल है कि क्या वहां ऐतिहासिक तथ्यों का इस्तेमाल नही किया गया है? क्या वहां रानी पद्मावती के चरित्र को उतारा नही गया है?
रानी पद्मावती के चरित्र और उनके मुख से सुनवाई गयी बातें क्या ये बता नही रही है कि यही रानी पद्मावती है? फ़िल्म में नमाज़ के वक़्त हमला करने वाली बात राजपूतों के मुंह से कही गयी बात राजपूत रियासत की सलाहियत का मज़ाक नही है? क्या संजय लीला भंसाली जी ये भूल गए कि राजपूत वीर योध्दा है वो ऐसी बात कह सकतें है क्या? क्या मान सिंह जैसे बहादुर योद्धा जो राजपूत ही थे उन ही राजपूतों के बारे सोच सकतें है क्या?और ये बात असलियत में नही की गई और उसे यहां कहलवा दिया गया तो क्या राजपूत समाज पर सवाल आने वाली बात नही है?
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क्या “अलाउद्दीन ख़िलजी” के चरित्र को “क्रूरतम” नही दिखाया गया है। अब जब ये ऐतिहासिक चीज़ नही है जिसे लिख कर बताया भी गया है लेकिन अलाउद्दीन खिलजी के चरित्र को “क्रूर” दिखाया गया है तो अब बताइये क्या तमाम आवाम के सामने,तमाम लोगों के सामने अलाउद्दीन खिलजी क्रूर नही बन गया है? और अगर बन गया है तो संजय लीला भंसाली इस बात के तथ्य दे पाएंगे ? और इस बात को सिद्ध कर पाएंगे कि जो हुक्मरान “चंगेज़ खान” के खिलाफ खड़े होकर अपनी हुक़ूमत,उसकी आवाम की हिफाजत कर रहा है क्या वो क्रुर होगा? सवाल बहुत अहम है कि कब ये सब नही तो इतिहास के साथ मजाक क्यों?
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अब कितना भी “अभिव्यक्ति की आज़ादी” कि बात का ढिंढोरा पीटा जाएं लेकिन इतिहास भी एक अहम चीज़ है उसके साथ होने वाला खिलवाड़ उचित है क्या? क्यों कोई इस चीज़ को बोल नही पा रहा है? इस बात को इस तरह भी समझें कि हजारों पन्नो में लिखे इतिहास के साथ जब आप न्याय नही कर पा रहें तो क्यों ऐतिहासिक फिल्मो का बनाया जाना जरूरी है? क्या मंशा है? क्या वजह है? और ये भी ध्यान रखें जाने की बात है कि जो इतिहास नहीं पढ़ता है तो उसके लिए यही इतिहास है और ये तोड़ा मरोड़ा गया है , बाकी ठीक है.

असद शैख़