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क्यों गलत है JNU की फीस वृद्धि ?

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11 नवंबर को दिल्ली में जेएनयू के छात्र एवं छात्राओं ने फीस वृद्धि के विरोध में एक बड़ा प्रदर्शन किया था, जिसमें दिल्ली पुलिस ने भारी लाठीचार्ज किया। प्रदर्शन की तस्वीरें और वीडियो आने के बाद एक बड़ा तबका इन प्रदर्शनों के समर्थन में तो दूसरा विरोध में खड़ा हो गया। तरह तरह की बातें सोशलमीडिया से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया में की जाने लगी हैं। इसी बीच बीबीसी के पूर्व पत्रकार जे. सुशील ने अपनी फ़ेसबुक वाल पर एक के बाद एक कई मार्मिक पोस्ट लिखकर उन व्यक्तियों को जवाब दिया है, जो इस फीस वृद्धि को मामूली बताकर प्रदर्शन करने वाले छात्रों को अपशब्दों से नवाज़ रहे हैं।

देखें क्या लिखते हैं जे सुशील

जेएनयू में एडमिशन के दौरान और बाद में उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, तब के दिन याद करते हुए सुशील लिखते हैं –

मैं आईआईएमसी से पास हुआ तो मुझे कोई नौकरी नहीं मिली. जबकि मैं सेकंड टॉपर था क्लास का. नौकरी किसी को नहीं मिली थी. जेएनयू कैंपस देखा था तो इच्छा थी कि यहां पढ़ लें. पहली बार अप्लाई किया नहीं हुआ.
अगले साल आते आते अमर उजाला की नौकरी से निकाला जा चुका था. घर से पैसे आने नहीं थे. रहने को घर नहीं था. खाने को पैसा नहीं. मैंने जेएनयू का फॉर्म भरा था लेकिन तैयारी करने को किताबें नहीं थीं.
मैं दोस्तों से उधार ले लेकर ऐसी हालत में था कि शर्म आती थी पैसा मांगने में किसी से. ऐसे में जेएनयू में कई बार मेस में जाकर चुपचाप थाली उठा लेता था. मेस वर्कर ने एक बार कहा कि पर्ची कहां है…. मेरी शकल पर ही लिखा था मैं भूखा हूं…..
एक बार मैंने कहा- बहुत भूख लगी है….तो मेस वर्कर ने थाली में सब्जी डाल कर बोला. बैठ जाओ. आगे बढ़ने पर मेस मैनेजर के टोकने का खतरा था. ऐसा तीन चार बार हुआ.
ये लिखते लिखते हाथ कांप रहे हैं. मैं कई रातों को जेएनयू के बस स्टैंड पर सोया हूं क्योंकि मेरे पास सोने की जगह नहीं थी. ऐसे ही कई दिन मुझे जेएनयू के दोस्तों ने देखते ही नाश्ता कराया है बिना ये पूछे कि मेरा क्या हाल है. सब जानते थे मेरी हालत ठीक नहीं है.
मेरी ऐसी हालत देखने वाले कुछ लोग अभी भी फेसबुक पर मेरी मित्र सूची में हैं. ऐसे ही एक दिन जेएनयू के एक सीनियर ने देखा तो बातचीत होने लगी. बातों बातों में उन्होंने कहा कि सोने की दिक्कत हो तो कमरे में आ जाया करो. कभी कभी चेकिंग होता है लेकिन संभाल लेंगे. मैं गया नहीं.
जेएनयू के ही एक छात्र ने पुरानी किताबें दी तैयारी करने के लिए. मैं बिना अतिश्योक्ति के ये कह रहा हूं कि भूख लगने पर मैंने भीगा गमछा पेट पर बांधा है और पढ़ाई की है. उस पर भी बस नहीं हुआ. परीक्षा से पहले एडमिट कार्ड नहीं आया तो जेएनयू के उस समय के छात्र नेता ने खुद जाकर एग्जाम कंट्रोलर से लड़ाई कर के मुझे एडमिट कार्ड दिलाया.
जेएनयू में आज भी एमए की लिस्ट में मेरी फोटो नहीं है क्योंकि मेरे एडमिट कार्ड में फोटो नहीं था. नए एडमिट कार्ड के लिए पैसे भरने पड़े वो उस छात्र नेता ने अपनी जेब से दिए जो मैंने साल भर बाद उन्हें वापस किया.
एडमिशन के बाद मेरे पास मेस बिल देने को पैसा नहीं था. मेरे पिता महीने के हज़ार रूपए भेजने तक के लिए सक्षम नहीं थे. उन्होंने किसी से उधार लेकर पंद्रह सौ रूपए के साथ मुझे जेएनयू भेजा था जिससे मैंने पहले सेमेस्टर की फीस (करीब साढ़े चार सौ रूपए) भरी थी. छह महीने तक मेरे एक दोस्त ने पैसे दिए मेस बिल के……अगर सेमेस्टर की फीस आज जितनी होती तो मैं सच में पढ़ नहीं पाता…
मेरे जैसे कई गरीब छात्र हैं जेएनयू में आज भी. कुछ साल पहले मैं बुलेट से आ रहा था कैंपस तो एक लड़का हवाई चप्पल में पैदल चलता हुआ मिला. चेहरे पर उदासी थी..उसने हाथ दिया तो मैंने गाड़ी पर बैठा लिया..बातों बातों में रूआंसा हो गया. मैं पूछने लगा तो वही सब. पिता किसान थे….महीने के मेस बिल का आठ सौ रूपया तक भेज नहीं पा रहे थे. बहुत संघर्ष है पढ़ाई के लिए…जिनके पास पैसे हैं वो ये कभी नहीं समझेंगे.

बीबीसी के पूर्व पत्रकार जे. सुशील ( नोट : यह फोटो उनके फ़ेसबुक अकाऊँट से ली गई है )

एक अन्य पोस्ट पर सुशील लिखते हैं

चूंकि मन दुखी है इसलिए लिख रहा हूं. ये कोई नहीं लिखेगा इसलिए लिख रहा हूं. जेएनयू में जब हम लोग आए तो हॉस्टल की समस्या थी. हम जैसे कई लोगों के पास बाहर रहने को पैसे नहीं थे. वहां एक बिल्डिंग थी जहां बस पास बनता था. छात्र यूनियन ने प्रशासन से बात की और उस बिल्डिंग के बड़े वाले कमरे में दस बिस्तर लगा दिए गए एकदम डॉरमेट्री टाइप. एक टॉयलेट था.
उसमें हम दस लोग रहते थे. एक लड़का था जिसके पिताजी उसको ठीक पैसे भेजते थे. बाकी सभी लोग मेस के खाने के अलावा बाहर चाय पीने के लिए भी पैसों का हिसाब रखते थे. मेरी हालत तो जो थी वो थी ही.
मैं सुबह नाश्ते में पेट भर लेता और लंच में भी. शाम की चाय दोस्तों से पीता था. हम लोग सेना में नहीं थे कि दिन भर मेहनत करें और रात में सो जाएं. रात में दस लोग अपने अपने बिस्तर पर बैठ कर पढ़ते थे. कुछ लोग लाइब्रेरी चले जाते थे. लाइट जला कर पढ़ नहीं सकते थे. कुछ लोग सोना चाहते थे. कुल जमा किसी के पिताजी टीचर थे. किसी के किसान. मेरे पिताजी मजदूर. किसी के पिताजी पुलिस में कांस्टेबल थे.
मोटा मोटा यही था सबका बैकग्राऊंड. ये एक सैंपल है अपना देखा हुआ. कौन छात्र दस लोगों के साथ एक कमरे में रहना चाहता है जहां एक बिस्तर पर जीवन हो. कैसे पढ सकता है लेकिन हम जानते थे कि हमारे पास दूसरा और कोई विकल्प नहीं है. हम बाहर नहीं रह सकते थे. मुनिरका में किराया कम से कम दो हज़ार था एक कमरे का औऱ दो से अधिक लोग नहीं रह सकते थे….समझिए कि ये दस बच्चों में से कोई ये अफोर्ड नहीं कर सकता था.
मोटा मोटी यही हाल था जेएनयू का. हम में से कई लोग ऐसे थे जिनके घरों में जेएनयू के मेस जितना पौष्टिक खाना नहीं मिलता था. हमने ऐसे पढ़ाई की है और इसलिए हम जेएनयू से प्यार करते हैं.

दिल्ली में फीस वृद्धि के खिलाफ प्रदर्शन करते जे.एन.यू . के छात्र और दिल्ली पुलिस (फोटो सोशल मीडिया में वायरल है )

सोशल मीडिया में जो लोग जेएनयू में फीसवृद्धि के खिलाफ उतरे छात्रों के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए हैं, उनको जवाब देते हुए सुशील लिखते हैं

जो लोग आज जेएनयू को गरिया रहे हैं वो जान लें कि आप अपने बच्चों का भविष्य खराब कर रहे हैं. आप अपने बच्चों को एक ऐसे कुचक्र की तरफ धकेल रहे हैं जिससे आप उन्हें कभी नहीं निकाल पाएंगे. थोड़ी टेढ़ी बात है, इसलिए धीरे धीरे पढ़िए और समझिए.
हो क्या रहा है. हो ये रहा है कि सरकार शिक्षा से अपने हाथ खींच रही है और कह रही है कि जो पैसा देगा वो पढ़ेगा. ये एक किस्म का अमरीकी मॉडल है. लेकिन क्या अमरीकी मॉडल भारत में कामयाब होगा. उस पर बाद में बात करेंगे.
पहले ये जानिए कि भारत में पिछले आठ साल में अमरीकी मॉडल से तीन चार विश्वविद्यालय खुले हैं. अशोका यूनिवर्सिटी, जिंदल यूनिवर्सिटी और ग्रेटर नोएडा में शिव नादर. ये मत पूछिए कि ये लोग कौन हैं. ये सब उद्योगपति हैं जिनके लिए शिक्षा पैसे कमाने का ज़रिया है. क्या शिक्षा को पैसे कमाने का ज़रिए होना चाहिए ये एक अलग नैतिक बहस है.
अब इन तीनों यूनिवर्सिटियों में ग्रैजुएशन की फीस देखिए. मोटा मोटा आपको बताता हूं कि यहां चार साल का ग्रैजुएशन है जहां हर साल की फीस चार लाख रूपए हैं. जी हां चार लाख एक साल में यानी कि कुल सोलह लाख रूपए.
इसके बाद गारंटी नहीं है कि आपको कोई नौकरी मिलेगी या नहीं लेकिन लोग कर रहे हैं. करने के बाद क्या हो रहा है. किसी छोटी मोटी नौकरी में हैं या जिनके पास पैसा है वो विदेश जा रहे हैं. धीरे धीरे यही मॉडल हर यूनिवर्सिटी में लागू हो जाएगा. समझिए दस से बीस साल मैक्सिमम. तब सोचिए कि आपके जो बच्चे आज छोटे हैं वो कैसे ग्रैजुएशन कर पाएंगे.
वो लोन लेंगे और पढ़ाई करेंगे. पढ़ते ही किसी जगह नौकरी करने में लग जाएंगे ताकि लोन चुकाते रहें. ये लोन चुकने में कई साल लगते हैं. यही अमरीकी मॉडल है. और इसे ही भारत में लागू किया जा रहा है.
फैसला आपका है. क्या करना है आप देखिए. मनमोहन सिंह के समय ढेर सारी केंद्रीय यूनिवर्सिटियां खुली थीं. ताकि ज्यादा से ज़्यादा युवाओं को बेहतर शिक्षा मिले. अब सबको बैकडोर से प्राइवेटाइज़ किया जा रहा है. आप पर है जो चुनना है चुनिए. क्योंकि ये आपके भविष्य का नहीं. आपके बच्चों के भविष्य का सवाल है.
चलते चलते बता दूं कि अमरीका में प्राइमरी से लेकर बारहवीं तक की शिक्षा मुफ्त है. अच्छी क्वालिटी की. ग्रैजुएशन में फीस लगती है करीब एक लाख डॉलर प्लस रहना खाना अलग. पीएचडी में आराम है. फीस नहीं लगती अच्छी यूनिवर्सिटी में और स्कालरशिप मिलती है लेकिन सीटें बहुत कम. यहां कमेंट करने से अच्छा है सोचिए खुद कि हो क्या रहा है शिक्षा के क्षेत्र में भारत में.

जेएनयू छात्रों के प्रदर्शन के दौरान उपयोग किया गया बैनर

महंगी शिक्षा और जेएनयू में फीसवृद्धि के लिए अलग –अलग तर्कों का जवाब देते हुए सुशील लिखते हैं

जेएनयू में उच्च शिक्षा का स्तर अच्छा है और सस्ता भी है. तो क्या सिर्फ इसलिए इसे मंहगा कर दिया जाना चाहिए कि बाकी विश्वविद्यालयों में शिक्षा मंहगी है.
ये वही वाली बात हुई कि नोटबंदी में मैं लाइन में खड़ा हूं तो क्या हुआ….साला राहुल गांधी को लाइन में खड़ा कर दिया. ये कुंठित विचार है. होना तो ये चाहिए कि अगर जेएनयू में सस्ते में अच्छी शिक्षा मिल रही है तो भारत के कोने कोने में फैले सभी विश्वविद्यालयों में इस मॉडल को लागू किया जाना चाहिए.
लेकिन उसकी मांग कोई नहीं कर रहा है. फीस बढ़ने का विरोध कर रहे छात्रों और जेएनयू को निशाना बनाया जा रहा है कि वहां देशद्रोही नारे लगते हैं. ये आरोप लगाने वाले ज़रा दिल्ली पुलिस से पूछें कि आज तीन साल से अधिक समय हो गया. कोई नारा लगाने वाला पकड़ा क्यों नहीं गया. दिल्ली पुलिस तो केजरीवाल नहीं चलाते हैं और न ही लालू प्रसाद. लेकिन मोदी जी से सवाल पूछने की हिम्मत किसी में नहीं है.
बाद बाकी जेएनयू कोई स्वर्ग नहीं है. वहां समस्याएं हैं. उन समस्याओं को वामपंथ के बौद्धिक आतंकवाद को चुनौती देने के लिए फीस बढ़ाना कब से तरीका हो गया. उनके बौद्धिकता को चुनौती बुद्धि से दिया जाना चाहिए. कुछ लोग सेक्स आदि का भी जिक्र करते हैं. भाई साहब कोई रेप कर रहा है क्या किसी का जेएनयू में. दो लोग अपनी मर्जी से किसके साथ सेक्स करते हैं इस बारे में बोलने वाले हम और आप होते कौन हैं.
आपको क्या लगता है कि आपके बच्चे किसी और यूनिवर्सिटी में पढ़ने जाते हैं तो उनका लिंग और योनी काट लिया जाता है. जिसे सेक्स करना है वो गांव, कस्बा और शहर कहीं भी कर लेगा. जेएनयू में कम से कम अपनी मर्जी से वो कर सकता है. देख भाल कर और कोई परेशान करे तो शिकायत भी कर सकता है. छेड़ने वाले को थप्पड़ भी मारा जा सकता है.
खैर….जिसे नहीं समझना है वो नहीं समझेंगे. असल में देश को सोचने समझने वाले लोग चाहिए नहीं. उन्हें चाहिए चुपचाप सर झुका कर मशीन की तरह काम करने वाले लोग……….क्योंकि लोग खुद यही कर रहे हैं. कहने को बहुत कुछ है लेकिन मानना किसे हैं. सबने अपने अपने पाले तय कर लिए हैं..

प्रदर्शनकारी एक छात्र को घसीटकर ले जाती दिल्ली पुलिस

सुशील अपनी एक पोस्ट में बताया रहे हैं, कि जेएनयू से कौन लोग चिढ़ते हैं ?

जेएनयू से चिढ़ते कौन हैं? जिन्होंने खुद कभी कोई entrance exam पास नही किया हो. उन्हें लगता है जेएनयू फ्री है. भाई फ़्री है, आप भी आओ पढ़ो. अपने बच्चे को भेजो. एन्ट्रैंस होता है। पास करो. जेएनयू को कोस के क्या होगा?
आपको बहुत पैसा है तो पैसा देके बच्चे को पढ़ाओ लेकिन कहीं पर ग़रीब आदमी का बच्चा परीक्षा देकर जाता है और पढ लेता है तो उससे पेट में दर्द काहे हो रहा है आपके? शायद आप चाहते हैं कोई न पढ़े या सिर्फ पैसा वाला ही पढ़े. है न?
अब ये कन्हैया वन्हैया न पेले. जेएनयू में हज़ारों बच्चे आते हैं. एक कन्हैया तो दूसरा अभिजीत बनर्जी भी निकलता है. एक सीतारमण और दूसरा येचुरी भी यहीं से निकलता है.

इसी तरह एक पोस्ट में सुशील बता रहे हैं, कि भारत को कैसी शिक्षा और यूनिवर्सिटीज़ आवश्यकता है?

भारत की हर यूनिवर्सिटी को जेएनयू जैसा होना चाहिए जहां गरीब छात्र पढ़ सके. हॉस्टल की फीस कम हो. अच्छे शिक्षक हों. सवाल पूछना सिखाया जाए. सरकार को सवालों के घेरे में रखना बताया जाए.
कारपोरेट की नीतियों की आलोचना सिखाई जाए. कुल मिलाकर दुनिया को और सुंदर बनाने की कोशिश करने का जज्बा भरा जाए. वर्ना तो कॉलेज में पढ़कर सर झुका कर नौकरी करना तो हर यूनिवर्सिटी सिखा ही देती है।

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