महाराष्ट्र का अड़तालीस घन्टो की राजनीतिक गतिविधियां अब शांत हो गयीं है और 23 नवंबर की सुबह से जो घटनाक्रम मुंबई में घट रहा था, वह 26 नवंबर की शाम, पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के त्यागपत्र देने के बाद ही दूसरी दिशा में मुड़ गया। कल महाराष्ट्र संकट के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने, केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार, शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और भाजपा के वकीलों की पूरी बात सुनने और संबंधित दस्तावेज देखने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था, जिसे आज सुबह साढ़े दस बजे जब अदालत बैठी तो उसे सुनाया गया। मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में निम्न बातें थीं।
- कल दिनांक 27 नवंबर को पहले प्रोटेम स्पीकर नियुक्त होगा और सभी सदस्यों को शपथ दिलाई जाएगी।
- फिर शक्ति परीक्षण होगा।
- सभी कार्यवाहियों का जीवंत प्रसारण होगा ऑड वीडियो रिकॉर्डिंग होगी।
- यह कार्य शाम 5 बजे के पहले हो जाएगा।
लेकिन अदालत के इन निर्देशों का कोई मतलब ही नहीं रहा, जब आज एक नाटकीय घटनाक्रम में सुबह नवनियुक्त उप मुख्यमंत्री अजीत पवार ने इस्तीफा दे दिया और फिर अपराह्न एक प्रेस वार्ता के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस्तीफे की घोषणा कर दी। अब यह घटनाक्रम इस प्रकार है।
- अजित पवार ने इसलिए इस्तीफा दिया कि उनके पास एनसीपी के विधायक जितने बहुमत के लिये होने चाहिये थे, उतने नहीं थे।
- देवेंद्र फड़नवीस ने इस्तीफा इसलिये दिया कि उन्हें लगा कि वह कल 27 नवंबर को सदन में बहुमत नहीं सिद्ध कर पाएंगे।
- अब राज्यपाल को इस्तीफा इसलिये दे देना चाहिये कि उन्होंने बिना प्रारंभिक छानबीन किये और स्वतः संतुष्ट हुये बिना ही आनन फानन में राष्ट्रपति शासन समाप्त करने के लिये भारत सरकार से अनुरोध कर दिया।
- औऱ इसलिए भी कि, उन्होंने ( राज्यपाल ने ), सरकार के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के रूप में, क्रमशः देवेन्द्र फडणवीस और अजित पवार को बिना बहुमत की संतुष्टि किये ही शपथ दिला दी।
- राज्यपाल के इस अपरिपक्व और जल्दीबाजी में बिना विवेक का इस्तेमाल किये गए निर्णय से न केवल केंद्र सरकार की किरकिरी हुयी है बल्कि राष्ट्रपति के पद को भी अनावश्यक विवाद में पड़ कर असहज होना पड़ा है।
अब यह मुझे नहीं पता कि यह निर्णय राज्यपाल का स्वतः निर्णय था या किसी के इशारे पर लिया गया था। अगर यह निर्णय राज्यपाल का स्वतः लिया गया निर्णय था तो निश्चय ही उनसे चूक हुयी है। न तो संविधान की स्थापित मान्यताओं का ही ख्याल रखा गया और न ही परंपराओ का। राज्य में जब त्रिशंकु विधानसभा होती है तो उसमें किसे और कब कब सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया जाय, यह देश मे पहले भी कई राज्यो में इस प्रकार की समस्याओं से निपटा जा चुका है। ऐसे समय मे राज्यपाल सबके निशाने पर होते हैं। सभी राजनैतिक दल और विधायक, मीडिया और जनता ऐसे मौके पर राजभवन की एक एक गतिविधि को बारीकी से केवल देखते ही नही है बल्कि उसको संविधान की परंपराओ और मान्यताओं की अपनी अपनी जानकारी के अनुसार बहस भी करते हैं। ऐसे अवसर एक भी चूक पूरे फैसले को विवादित कर देती है।
हालांकि भगत सिंह कोश्यारी इस तरह की भूल या राजनीतिक समीकरण को अपने संवैधानिक विवेक के ऊपर रख कर निर्णय लेने वाले पहले और अकेले राज्यपाल नहीं है, बल्कि उनसे पहले इस तरह के विवादित निर्णय, कभी एनटी रामाराव के समय रामलाल ने, कल्याण सिंह और जगदंबिका पाल के विवाद के समय उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी ने, 2005 में बिहार में बूटा सिंह ने, और अभी हाल ही में कर्नाटक में येदुरप्पा को कर्नाटक विधानसभा के चुनाव के बाद तुरन्त शपथ दिला कर वहां के राज्यपाल ने लेकर राज्यपाल जैसे संवैधानिक और सक्रिय राजनीति से दूर रहने वाले पद को अनावश्यक रूप से विवादित बनाया है।
सुप्रीम कोर्ट में अब ऐसे मामले खुल कर जाने लगे हैं। 1994 के एसआर बोम्मई के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों के लिये एक सुव्यवस्थित दिशा निर्देश भी तय कर दिए हैं। इस मामले में भी उसी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्देश दिए हालांकि अब जब मुख्यमंत्री ने खुद ही इस्तीफा दे दिया तो कल सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार फ्लोर टेस्ट या सदन में बहुमत परीक्षण का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। अब यह खबर आ रही है कि 28 नवंबर को शिवाजी पार्क में महाराष्ट्र का नया मंत्रिमंडल, जो शिवसेना के उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में होगा शपथग्रहण करेगा, जिसमे शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस तीनों दल सहभागी हैं।