28 सितम्बर 2021 को राहुल गांधी की मौजूदगी में दो नेताओं ने कांग्रेस का दामन थामा है वो नाम है जिगनेश मेवाणी और कन्हैया कुमार,अब जब ये खबर आई उसी वक़्त एक और खबर वायरल होने लगी। ये खबर आ रही थी दिल्ली से दूर पंजाब से,जहां के कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने अपना इस्तीफा दे दिया था।
बस उनका इस्तीफा देना था और दुनिया भर के सवाल उठना शुरू हो गए, सबसे पहला सवाल उठा सुप्रीम कोर्ट के वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा की “ये फैसले कौन ले रहा है” दूसरा बड़ा सवाल उठाया गया कांग्रेस के दिग्गज नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद के द्वारा उन्होंने सोनिया गांधी को खत लिख दिया कि “तुरंत सीडब्ल्यूसी की मीटिंग बुलाई जानी चाहिए।
अब सवाल ये उठ रहा है कि ये सब क्या हो रहा है? कैसे हो रहा है? और क्यों हो रहा है? देश मे सबसे बड़े विपक्षी दल और सबसे पुराने राजनीतिक दल में ये सब क्या हो रहा है? दरअसल इसे समझने के लिए हमें 2019 के बाद राहुल गांधी की इस्तीफे से शुरू होता है। उन्होंने इस्तीफा देते हुए कहा था कि “मैं पार्टी का अध्यक्ष नहीं बनूंगा न ही मेरे परिवार वालों का नाम मत लीजिये”
इन सब के बावजूद भी पूरे 2 साल बाद भी कांग्रेस को कोई भी “परमानेंट” अध्यक्ष नहीं मिल पाया है। लेकिन राहुल गांधी अपने हिसाब ही कि राजनीति कर रहे हैं और अब ऐसा लगने लगा है कि वो नई टीम बना रहे हैं,इसलिए ही इतना हो हल्ला कांग्रेस पार्टी के भीतर होता हुआ नजर आ रहा है।
राहुल गांधी फिलहाल फ्यूचर की राजनीति कर रहे हैं,जो 2024 की तैयारी कर रहे हैं जहां वो नरेंद्र मोदी के सामने खुद को खड़ा पाए और मज़बूत नेता की तरह खुद को स्थापित करना चाहते हैं। उनके बारे में एक लेख वरिष्ठ पत्रकार बहुत कायदे की बात करती हैं।
पत्रकार अपर्णा कहती हैं, “राहुल गांधी का अब तक का रिकॉर्ड जीत से भरा नहीं है. दूसरी वजह ये है कि वो अपनी नई टीम के साथ अध्यक्ष बनना चाहते हैं, जिसका मौक़ा उन्हें नहीं मिला. नई टीम में एक अड़चन सोनिया गांधी भी हैं, जो अनुभव को ज़्यादा महत्व देती हैं. इसलिए सोनिया गांधी पुराने लोगों को साथ लेकर चलने की पक्षधर मानी जाती है.”
इसमें कोई भी बात ढकी छुपी नहीं है कि राहुल गांधी भाजपा से ज़्यादा अंदरूनी तौर पर लड़ाई लड़ रहे हैं। राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी को युवाओं से जुड़ा और लोकतांत्रिक बनाना चाहते हैं जहां उम्मीदवार या विधायक से लेकर सांसद तक सड़क पर प्रदर्शन करते हुए नज़र आये। लेकिन उन्हें ऐसा नहीं करने दिया जा रहा है।
उन्हें ऐसा नहीं करने देने के पीछे वो लोग हैं जो खुद एक लोकसभा का चुनाव जीतने की अहमियत नहीं रखते हैं। जिन्हें पार्टी में 40 से 45 साल तो हो गए हैं लेकिन वो पार्टी को आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहते हैं। लेकिन राहुल गांधी ने भी ऐसा कोई बहुत बड़ा चमत्कार करके नहीं दिखाया है जो गौर करने लायक हो।
बीबीसी में लिखें अपने एक लेख मे वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, “राजनीति में कोई भी आदमी अपनी धाक तभी जमा पाता है, जब चुनाव उसने जीता हो या जिताता हो. फ़िलहाल राहुल हों या सोनिया गांधी, इनके नेतृत्व में कांग्रेसी दो लोकसभा चुनाव हार चुके हैं, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में भी कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत बुरा रहा.”
“राहुल तो अपनी अमेठी की सीट भी बचा नहीं पाए. राहुल गांधी अब तक सोच रहे थे कि केरल या असम जैसा कोई राज्य जिता पाएँ, तो थोड़ी ताक़त पार्टी के भीतर उन्हें मिलेगी लेकिन वो भी हो ना सका. इस वजह से जहाँ इनकी सरकार बनी, वहाँ के मुख्यमंत्री अपने आप को पार्टी नेतृत्व से बड़ा मान रहे हैं.”
फ़िलहाल कांग्रेस में इस वक़्त नेतृत्व की भारी कमी नज़र आ रही है जिसकी वजह से ही सब कुछ बिखरा से नज़र आ रहा है कोई भी फैसला या ज़िम्मेदारी से भरपूर बात करने को लेकर कोई भी तैयार नहीं है। दूसरी बात.. अहमद पटेल जैसे नेताओं की भी पार्टी को भारी कमी खल रही है इसलिए ही पंजाब जैसी स्थितियाँ पैदा हो रही हैं।
अब देखना ये है कि राहुल गांधी क्या करेंगें? ये सवाल है जिसका जवाब उन्हें जल्द से जल्द ढूंढ लेना चाहिए।