वो तारीख थी 14 जनवरी 1761 और जगह थी पानीपत। भारत के इतिहास की एक फैसलाकुन लड़ाई की गवाह। दरअसल इसी दिन पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई थी, जिसमें अफ़ग़ान शासक अहमद शाह अबदाली की सेना ने सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में लड़ रही मराठा सेना को पराजित किया था। इस युद्ध के बाद मराठा साम्राज्य का पतन शुरू हुआ था। एक तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास का सबसे मजबूत और लोकप्रिय शासक और उसकी मज़बूत सेना थी, तो दूसरी तरफ़ मराठाओं से 27 साल तक चलने वाली लड़ाईयों से कमजोर हुए मुग़ल साम्राज्य के बाद खड़ा हुआ सशक्त मराठा समराज्य और उसके बहादुर लड़ाके थे। दोनों ही सेनाएं अपने आप में लड़ाई के हुनर से लैस थीं, दोनों का लड़ने का अंदाज विख्यात था।
वो क्या वजह थी, जिसके कारण हुई थी पानीपत की तीसरी लड़ाई ?
पानीपत के तीसरे युद्ध के शुरू होने के पीछे जो वजह बताई जाती हैं, वो मुख्यतः तीन वजह हैं। जिन्हें इस लड़ाई की वजह बताई जाती है। पहली वजह जो बताई जाती है, वह है मराठा सरदार रघुनाथ द्वारा दिल्ली में मुगलों को हराने के बाद रघुनाथ की सेनाओं द्वारा लाहौर के अटक में क़ब्ज़ा करना। रघुनाथ का लाहौर जैसे एक ऐसे हिस्से में विजय प्राप्त करना जोकि अफ़ग़ान बादशाह अहमद शाह दुर्रानी (अहमद शाह अबदाली) के साम्राज्य का हिस्सा था। मराठाओं ने अहमद शाह दुर्रानी के बेटे तैमूर शाह को वापस अफ़ग़ानिस्तान जाने पर मजबूर कर दिया था। अब अबदाली के पास ये मौका था, जिससे वह खोए हुए हिस्से को वापस अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाना चाहता था।
दूसरी जो वजह इतिहासकार बताते हैं, वह दिल्ली में मराठा साम्राज्य के आ जाने के बाद एक ऐसी खबर फैल गई थी, कि मराठा शासक दिल्ली की शाही मस्जिद के मिंबर पर भगवान राम की मूर्ति रखना चाहते हैं। इस खबर के बाद रोहिल्ला के अफ़ग़ान सरदार नजीबुद्दौला ने अहमद शाह अबदाली को आमंत्रित किया और हर तरह की सैन्य व दूसरी मदद का वादा किया। चूंकि अबदाली को अपने क्षेत्र मराठाओं से वापस लेना था, उसके लिए ये आमंत्रण एक मौका था। जिसके बाद अफ़गानिस्तान के शासक अहमद शाह अबदाली ने मराठाओं की सेना से युद्ध के लिए दिल्ली की तरफ़ कूच किया और पानीपत के मैदान में यह युद्ध हुआ।
तीसरी वजह जो बताई जाती है, वो है दिल्ली में मराठाओं के आधिपत्य के बाद मराठा राजपूताना की ओर बढ़ने लगे थे। जिससे राजपूत राजाओं के लिए ये आँखों की किरकिरी बन गए थे। राजपूतों, रोहिल्ला सरदारों और अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने अपने –अपने क्षेत्रों को सुरक्षित करने की मंशाके साथ, उस समय के मज़बूत अफ़गान शासक अहमद शाह अबदाली को आमंत्रित किया। जिसके बाद अहमद शाह अबदाली ने मराठा सेनाओं से लड़ने के लिए दिल्ली की ओर रुख किया।
पानीपत के मैदान में 14 जनवरी 1761 को क्या हुआ था ?
जब राजपूतों, रोहिल्ला सरदारों के बुलावे पर अहमद शाह अबदाली भारत आया तो अबदाली ने यमुना नदी को पार कर लिया। मराठा सैनिक अबदाली को रोक न सके। अबदाली ने मराठाओं का पुणे से संपर्क काट दिया। जिसके बाद मराठाओं ने अबदाली का क़ाबुल से संपर्क काट दिया। अब दोनों ही सेनाएं अंदरूनी रसद पर निर्भर थीं। धीरे –धीरे मराठा सैनिकों की रसद कम होने लगी, जिसके बाद वो कमजोर होते चले गए। अबदाली की सेनाओं को अवध के नवाब शुजाउद्दौला और रोहिल्ला सरदारों से मदद मिल रही थी।
तारीख थी 14 जनवरी 1761, एक तरफ सदाशिव भाऊ के नेतृत्व में विशाल मराठा सेना थी। जिसमें सरदार इब्राहीम खान गर्दी व अन्य मराठा सरदार लड़ रहे थे। तो सामने थी दुर्रानी साम्राज्य की विशाल सेना, जिसके साथ थे जयपुर और जोधपुर के राजपूत राजा, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और रोहिल्ला सरदार नजीबुद्दौला। सुबह-सुबह सूरज की किरणे पानीपत के मैदान को छू भी नहीं पाई थीं, कि युद्ध शुरू होने लगा था। इधर सुबह हुई थी कि दोनों सेनाओं के लड़ाके एक दूसरे के खून के प्यासे थे। पर दोनों ही सेनाओं को इस बात का बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था। कि वो जिस लड़ाई के लिए यहाँ पर इकट्ठा हुए हैं, ये लड़ाई इतिहास में दर्ज होने वालाई। इस लड़ाई के बाद भारत का भविष्य बदलने वाला है। उन्हे इस बात का गुमान भी नहीं था, कि वो इतिहास के एक ऐसे अध्याय को लिखने जा रहे हैं, जो भारत की लड़ाईयों के इतिहास में हमेशा याद की जाने वाली लड़ाई बन जाएगी।
दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ, दोनों ही तरफ़ सैनिकों ने अपने शौर्य का प्रदर्शन किया। पर अबदाली के सैनिकों की कुशलता और ताक़त के आगे सदाशिव राव के मराठा सैनिक टिक न सके। फिर जो हुआ वो मराठा साम्राज्य के पतन का कारण बना। दरअसल युद्ध जब चरम पर पहुंचा तो मरने वाले मराठा सैनिकों की संख्या बढ़ने लगी। इसी बीच वो दोपहर का समय था, जब मराठा सेनापति सदाशिव राव घायल हुए। इसी बीच सदाशिव राव अपने हाथी से उतर कर विश्वास राव को ढूँढने लगे। कुछ लोगों ने कहा कि वो अपनी जाना बचाने के लिए सुरक्षित स्थान की ओर जा रहे थे। पर इसी दौरान मराठा सैनिकों में ये खबर फ़ाइल गई कि उनके सेनापति अपने हाथी में नहीं हैं। जिसके बाद मराठा सैनिकों की बची कुची हिम्मत टूट गई और भगदड़ की स्थिति बन गई। जिसके बाद मराठा सैनिकों के कई बड़े सरदार मैदान छोड़कर भाग गए। इतिहासकार बताते हैं, कि भागने वाले मराठा सरदारों में मल्हार राव होल्कर, महाद जी सिंधिया और नाना फड़नवीस अग्रणी भूमिका में थे। इन्होंने जैसे ही देखा की मराठा सेना हार रही है, मैदान छोड़कर भागना शुरू कर दिया, जिसके बाद भगदड़ में भी कई मराठा सैनिक मारे गए।
शाम होते तक मराठा सैनिक या तो भाग चुके थे, या फिर मारे जा चुके थे। या फिर जो बचे थे उन्हें बंदी बनअ लिया गया था। मराठा सेनापति पेशवा सदाशिव राव, सरदार इब्राहीम खान गर्दी और जानकोजी सिंधिया की लड़ते हुए मृत्यु हुई। युद्ध के कई दिनों के बाद पेशवा सदाशिव राव का शरीर मिला था। इस युद्ध में 30 हज़ार मराठा व लगभग इतने ही दुर्रानी सैनिकों की मृत्यु हुई थी। इस तरह इस युद्ध में दोनों तरफ़ के लगभग 60 हज़ार सैनिकों ने अपनी जान गंवाई थी। इस युद्ध में मराठा साम्राज्य के सभी छोटे बड़े सरदार मारे गए थे। इस युद्ध के कुछ समय बाद बाजीराव की भी मृत्यु हो गई। जिसके बाद मराठा साम्राज्य का पतन शुरू हुआ।
बीबीसी में छपे एक लेख के अनुसार
इतिहासकार व लेखक डॉ. उदय कुलकर्णी बताते हैं, ”सदाशिवराव को शायद शुजा, राजपूत, सूरजमल जाट से मदद मिल जाती लेकिन अब्दाली नजीबुदोल्ला, बंगश और बरेली के रोहिल्लाओं से मदद मिल रही थी। दोनों के बीच जो पत्र लिखे गए उनमें युद्ध को टालने की बातें थीं। जयपुर और जोधपुर के राजाओं ने अब्दाली का साथ देने का फ़ैसला किया। इसके साथ ही कई राजाओं को लगा कि अगर सदाशिव राव जीत गए तो वो उन पर अपना अधिकार जमा लेंगे इसलिए ये तमाम राजा भी अब्दाली के साथ चले गए।”
पानीपत का युद्ध जनवरी के महीने में लड़ा गया जब वहां कड़ाके की ठंड पड़ती है। मराठा सेना के पास इस ठंड से बचने के लिए पर्याप्त गरम कपड़े भी नहीं थे। इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो पता चलता है कि अब्दाली के फ़ौजियों के पास चमड़े के कोट थे। उस युद्ध में सूर्य की भूमिका भी बहुत अहम हो गई थी। इतिहासकार पंडुरंग बालकवेडे कहते हैं जैसे-जैसे ठंड बढ़ती जाती मराठा सैनिकों का जोश भी ठंडा पड़ता जाता।
जब विश्वास राव की मृत्यु हो गई तो उसके बाद सदाशिव राव हाथी से उतरकर घोड़े पर आ गए। जब मराठा सैनिकों ने सदाशिव राव के हाथी को खाली देखा तो यह ख़बर फ़ैल गई कि सदाशिवराव की भी मौत हो गई है, इस ख़बर ने सभी सैनिकों के हौसले पस्त कर दिए।
1734 में हुए अहमदिया समझौते के मुताबिक दिल्ली के बादशाह की हिफ़ाज़त करना मराठाओं की ज़िम्मेदारी थी। इसके बदले में मराठाओं को उस इलाके में भूमि कर एकत्रित करने का अधिकार मिला था। मराठाओं से पहले यह अधिकार राजपूतों के पास था। जब राजपूतों से कर वसूलने का अधिकार वापिस ले लिया गया तो वे भी मराठाओं के ख़िलाफ़ खड़े हो गए। इसके साथ ही अजमेर और आगरा के जाटों ने भी मराठाओं की मदद नहीं की।