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श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जिन्नाह के साथ कई राज्यों में बनाई थी सरकार

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13 मार्च 1943 को सिंध असेंबली मे पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित हुआ। उस वक़्त जीएम हिदायतुल्लाह की मुस्लिम लीग सरकार में आरएसएस/हिंदू महासभा के तीन मंत्री थे। इसके बावजूद राव साहेब गोकलदास मेवलदास, डा हेमनदास आर वाधवन, और लोलू आर मोतवानी मुस्लिम लीग सरकार में मंत्री बने रहे। किसी ने भी इस्तीफा नहीं दिया।
इससे पहले 1941 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल में फज़लुल हक़ की सरकार में वित्त मंत्री बने। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा गठबंधन की इस सरकार के मुखिया फज़लुल हक़ ने ही पाकिस्तान का प्रस्ताव पहली बार पेश किया। ये वो दौर था जब गांधी, नेहरू, पटेल और आज़ाद जैसे नेता जेल में थे।
इस दौरान जिन्नाह और सावरकर ने मिलकर भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध किया। इससे भी पहले 1939 में नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस में ख़ान अब्दुल जब्बार ख़ान के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने इस्तीफा दिया। इसके तुरंत बाद हिंदू महासभा और अकाली दल के साथ मिलकर मुस्लिम लीग ने गठबंधन सरकार बनाई। सरदार औरंगज़ेब के नेतृत्व वाली इस सरकार में आरएसएस नेता मेहर चंद खन्ना मंत्री बने।
बहरहाल एएमयू छात्र संघ ने अकेले जिन्नाह की तस्वीर यूनियन हाल से न हटाकर देशद्रोह किया है। इसका एक ही प्रायश्चित है। वो श्यामा प्रसाद मुखर्जी और जिन्नाह की गलबहियों वाली साझा तस्वीर वहां लगाएं और उसके नीचे काला रंग और एक टूटा जूता रख दें। तस्वीर को नज़र नहीं लगेगी।

पाकिस्तान बनाने की मांग पर क्या थे जिन्ना के तर्क?

जिन्ना ने कहा कि एक व्यक्ति एक वोट लोकतंत्र नहीं बहुसंख्यकों का शासन क़ायम करेगा। उन्होने सेंट्रल असेंबली में कहा कि अंग्रेज़ों ने भारत के अल्पसंख्यकों के लिए वक़्त रहते प्रावधान नहीं किए तो वो बहुसंख्यकों के रहमोकरम पर ज़िंदा रहेंगे और कभी बराबरी हासिल नहीं करेंगे।
जिन्ना का दावा था कि जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की बात नेहरू और गांधी कर रहे हैं, वो और कुछ नहीं हिंदू राष्ट्र ही होगा। जिन्ना ने बार बार दोहराया कि हिंदू इस मुल्क में मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखेंगे।
जिन्ना का दावा था जिस लोकतंत्र का ख़्वाब कांग्रेसी दिखा रहे हैं, उसमें न मुसलमानों के इदारे महफूज़ होंगे, न उनकी मस्जिदें, न तालीम और न ज़िंदगी। अंग्रेज़ों के जाने के बाद भी मुसलमानों को बराबरी और अपनी आज़ादी की लड़ाई जारी रखनी पड़ेगी।
नेहरू और गांधी ने जिन्ना को बार-बार झूठा साबित करने की कोशिश की लेकिन उनके लोगों ने बार बार जिन्ना को सच्चा साबित किया। सत्तर साल बाद भी जिन्ना सच्चे हैं। लेकिन इस मुल्क के मुसलमानों ने जिन्ना की बात नहीं मानी और यहां के हिंदुओं पर भरोसा किया। सेक्युरिज़्म और मुल्क के निज़ाम पर भरोसा किया।
मुसलमानों को अब कुछ साबित नहीं करना है। अब हिंदुओं की ज़बान, उनका सेक्युरिज़्म और उनका भरोसा दांव पर है। जिन्ना को झूठा साबित करने की ज़िम्मेदारी इस मुल्क के बहुसंख्यकों की है। अगर नहीं कर सकते तो फिर जिन्ना की एक तस्वीर हटाने भर से जिन्ना की विचारधारा ख़त्म नहीं होगी।

नोट :- यह लेख पत्रकार ज़ायगम मुरतज़ा की फ़ेसबुक वाल से लिया गया है