दुखद है कि आज़ादी के 75 साल में कुछ लोग विभाजन, उसके दंगो को याद कर चालीस साल तक आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों के योगदान पर सवाल उठा रहे हैं। असल सवाल तो यह भी है कि उनकी विचारधारा के आका उस समय क्या कर रहे थे — यह लेख लम्बा जरुर है लेकिन कम से कम वे अवश्य पढ़े जो आज वीडियो जारी कर विभाजन के लिए नेहरु को दोषी बता रहे हैं।
विज्ञापनों से लदे फदे अखबार और अपनी फोटो तिरंगे के साथ चस्पा आ रहे व्हाट्सएप संदेशों ने जता दिया कि आज़ाद भारत को 75 साल हो गये – कोई विभाजन की त्रासदी के दर्द में अपने वोट खोज कर उसे मना रहा है तो कोई विज्ञापन के साथ प्रेसनोट जारी कर यह खबर पहले पन्ने पर लाने की कोशिश कर रहा है कि विभाजन के असली दोषी नेहरु ही थे।
देश का विभाजन क्यों जरुरी था ? इस पर पहले भी बहुत लिखा गया। लेकिन जान लें कि स्वतंत्रता संग्राम में सीधा संघर्ष केवल कांग्रेस कर रही थी। हिन्दू महासभा की भूमिका संदिग्ध थी और इसी लिए उसके साथ जनसमर्थन नहीं था। जहां तक लन्दन पहुँच की बात रही। नेहरु से पहले लन्दन तक पहुँच तो सावरकर की थी।
महान विद्वान और स्वतंत्रता के दीवाने श्याम जी कृष्ण वर्मा के “इंडिया हाउस “ में किस तरह सावरकर ने हत्यारे तैयार किये और श्यामजी वर्मा द्वारा संकल्पित आज़दी का मॉडल नष्ट हुआ, उन्हें ब्रिटेन छोड़ कर जाना पडा। वह सब एक अलग कहानी है, लेकिन लन्दन दरबार में सावरकर की पहुँच नेहरु और कांग्रेस से पहले की थी।
पहले आम चुनाव में कांग्रेस एक दल था और दूसरा मुस्लिम लीग। कांग्रेस एक समूचे देश की आज़ादी की बात कर रही थी और मुस्लिम लीग अलग से मुस्लिम देश की । मास्टर तारा सिंह की सिख राज की मांग बहुत छोटे से हिस्से में थी। हिन्दू महासभा भी थी, वह हिन्दुओं के अलग देश अर्थात मुस्लिम लीग के सिक्के के दुसरे पहलु के रूप में थी।जनता ने मुस्लिम लीग और महासभा दोनों को नकार दिया और एक राज्य में लीगी और महासभा वालों को साथ में सरकार चलानी पड़ी।
सन 1935 में अंग्रेज सरकार ने एक एक्ट के जरिये भारत में प्रांतीय असेंबलियों में निर्वाचन के जरिये सरकार को स्वीकार किया। सन 1937 में चुनाव हुए। जान लें इसी 1937 से 1942 तक सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे और चुनाव परिणाम में देश की जनता ने उहें हिंदुओं की आवाज मानने से इंकार कर दिया था। इसमें कुल तीन करोड़ 60 लाख मतदाता थे, कुल वयस्क आबादी का 30 फीसदी जिन्हें विधानमंडलों के 1585 प्रतिनिधि चुनने थे। इस चुनाव में मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित की गई थीं। कांग्रेस ने सामान्य सीटों में कुल 1161 पर चुनाव लड़ा और 716 पर जीत हांसिल की। मुस्लिम बाहुल्य 482 सीटों में से 56 पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा व 28 पर जीत हांसिल की। 11 में से छह प्रांतों में उसे स्पष्ट बहुमत मिला।
ऐसा नहीं कि मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग को सफलता मिली हो, उसकी हालत बहुत खराब रही व कई स्थानीय छोटे दल कांग्रेस व लीग से कहीं ज्यादा सफल रहे। पंजाब में मुस्लिम सीट 84 थीं और उसे महज सात सीट पर उम्मीदवार मिल पाए व जीते दो। सिंध की 33 मुस्लिम सीटों में से तीन और बंगाल की 117 मुस्लिम सीटों में से 38 सीट ही लीग को मिलीं। यह स्पष्ट करती है कि मुस्लिम लीग को मुसलमान भी गंभीरता से नहीं लेते थे।
हालांकि इस चुनाव में मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ उत्तर प्रदेश चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन नेहरू ने साफ मना कर दिया। यही नहीं 1938 में नेहरू ने कांग्रेस के सदस्यों की लीग या हिंदू महासभा दोनों की सदस्यता या उनकी गतिविधियों में शामिल होने पर रोक लगा दी। 1937 के चुनाव में आरक्षित सीटों पर लीग महज 109 सीट ही जीत पाई। लेकिन सन 1946 के चुनाव के आंकड़ें देखे तो पाएंगे कि बीते नौ सालों में मुस्लिम लीग का सांप्रदायिक एजेंडा खासा फल-फूल गया था। केंद्रीय विधान सभा में मुसलमानों के लिए आरक्षित सभी 60 सीटों पर लग जीत गई। राष्ट्रवादी मुसलमान महज 16 सीट जीत पाए जबकि हिंदू महासभा को केवल दो सीट मिलीं। जाहिर है कि हिंदुओं का बड़ा तबका कांग्रेस को अपना दल मान रहा था, जबकि लीग ने मुसलमानों में पहले से बेहतर स्थिति कर ली थी।
यदि 1946 के राज्य के आंकड़े देखें तो मुस्लिम आरक्षित सीटों में असम में 1937 में महज 10 सीठ जीतने वाली लीग 31 पर, बंगाल में 40 से 113, पंजाब में एक सीट से 73 उत्तर प्रदेश में 26 से 54 पर लीग पहुँच गई थी। हालांकि इस चुनाव में कां्रगेस को 1937 की तुलना में ज्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन लीग ने अपने अलग राज्य के दावे को इस चुनाव परिणाम से पुख्ता कर दिया था।
वे लोग जो कहते हैं कि यदि नेहरू जिद नहीं करते व जिन्ना को प्रधानमंत्री मान लेते तो देश का विभाजन टल सकता था, वे सन 1929 के जिन्ना- नेहरू समझौते की शर्तों के उस प्रस्ताव को गौर करें,(क्या देश का विभाजन अनिवार्य ही था, सर्व सेवा संघ पृ. 145) जिसमें जिन्ना नौ शर्तें थीं जिनमें मुसलमानें को गाय के वध की स्वतंत्रता, वंदेमातरम गीत ना गाने की छूट और तिरंगे झंडे में लीग के झंडे को भी शामिल करने की बात थी और उसे नेहरू ने बगैर किसी तर्क के अस्वीकार कर दिया था।
सन 1940 के लाहौर सम्मेलन में भी जिन्ना ने कहा था – ‘‘ हिंदू और मुसलमान एक जाति में विकसित होंगे, यह एक सपना ही है। उनके धर्म, दर्शन समाजिक रहन-सहन अलग हैं। वे आपस में शादी नहीं करते, एकसाथ खाते भी नहीं। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के रास्ते में हदीस और कुरान के निर्देशों का हवाला दे कर अलग देश की मांग को जायज ठहराया।’’ हालांकि मौलाना अब्दुल कलाम आजाद सहित कई राष्ट्रवादी नेताओं ने इसे मिथ्या करार दिया लेकिन इस तरह के जुमलों से लीग ने अपना आधार मजबूत कर लिया।
इससे पहले सन 1937 के चुनाव में अपने ही लोगों के बीच हार से बौखला कर जिन्ना ने कांग्रेस मंत्रीमंडलों के विरूद्ध जांच दल भेजने, आरोप लगाने, आंदोलन करने आदि शुरू कर दिए थे। उस दौर में कांग्रेस की नीतियां भी राज्यों में अलग-अलग थी । जैसे कि संयुक्त प्रांत में कांग्रेस भूमि सुधार के बड़े बदलाव की समर्थक थी लेकिन पंजाब में वह इस मसले पर तटस्थ थी। मामला केवल जमीन का नहीं था, यह बड़े मुस्लिम जमींदारों के हितों का था।
सन 1944 से 1947 तक भारत के वायसराय रहे फीलड मार्शल ए पी बेवेल के पास आजादी और स्वतंत्रता को अंतिम रूप देने का जिम्मा था और वह मुस्लिम लीग से नफरत करता था। उसके पीछे भी कारण था, असल में जब भी वह लीग से पाकिस्तान के रूप में राष्ट्र का नक्शा चाहता, वे सत्ता का संतुलन या मनोवैज्ञानिक प्रभाव जैसे भावनात्मक मुद्दे पर तकरीर करने लगते, ना उनके पास कोई भौगोलिक नक्शा था ना ही उसकी ठोस नीति। एक तरह से कांग्रेस व अंग्रेज दोनो ही भारत का विभाजन नहीं चाहते थे। उन दिनों ब्रितानी हुकुमत के दिन गर्दिश में थे, ऐसे में अंग्रेज संयुक्त भारत को आजादी दे कर यहां अपनी विशाल सेना का अड्डा बरकरार रख दुनिया में अपनी धाक की आकांक्षा रखते थे। वे लीग और कांग्रेस के मतभेदों का बेजा फायदा उठा कर ऐसा तंत्र चाहते थे जिसमें सेना के अलावा पूरा शासन दोनों दलों के हाथो में हो ।
नौ अप्रेल 1946 को पाकिस्तान के गठन का अंतिम प्रस्ताव पास हुआ था। उसके बाद 16 मई 1946 के प्रस्ताव में हिंदू, मुस्लिम और राजे रजवाडों की संयुक्त संसद का प्रस्ताव अंग्रेजों का था। 19 और 29 जुलाई 1946 को नेहरू ने संविधान संप्रभुता पर जोर देते हुए सैनिक भी अपने देश को होने पर बल दिया। फिर 16 अगस्त का वह जालिम दिन आया जब जिन्ना ने सीधी कार्यवाही के नाम पर खून खराबे का खेल खेल दिया। हिंसा गहरी हो गई और बेवेल की योजना असफल रही। हिंसा अक्टूबर तक चलती रही और देश में व्यापक टकराव के हालात बनने लगे। आम लोग अधीर थे, वे रोज-रोज के प्रदर्शन, धरनों, आजादी की संकल्पना और सपनों के करीब आ कर छिटकने से हताश थे और इसी के बीच विभाजन को अनमने मन से स्वीकार करने और हर हाल में ब्रितानी हुकुमत को भगा देने पर मन मसोस कर सहमति बनी। हालांकि केवल कांग्रेसी ही नहीं, बहुत से लीगी भी यह मानते थे कि एक बार अंग्रेज चलें जाएं फिर दोनो देश एक बार फिर साथ हो जाएंगे।
आजादी की घोषणा के बाद बड़ी संख्या में धार्मिक पलायन और घिनौनी हिंसा, प्रतिहिंसा, लूट, महिलओं के साथ पाशविक व्यवहार, ना भूल पाने वाली नफरत में बदल गया। खोया दोनों तरफ के लोगों ने। पाकिस्तान बनने के हिमायती जमींदार आज भले ही संपन्न हों लेकिन वे आम आदमी जो उप्र, बिहार से पलायन कर गया था आज मुहाजिर के नाम उपेक्षा की जिंदगी जीता है, वे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर पर बेहद पिछड़े हैं।
आजादी की लड़ाई, उसमें गांधी-नेहरू की भूमिका, विभाजन की त्रासदी को लेकर केवल नेहरू की आलोचना करना एक शगल सा बन गया है लेकिन उस समय के हालात को गौर करें तो कोई एक फैसला लेना ही था और आजादी की लड़ाई चार दशकों से लड़ रहे लोगों को अपने अनुभवों में जो बेहतर लगा, उन्होंने ले लिया। कौन गारंटी देता है कि आजादी के लिए कुछ और दशक रूकने या ब्रितानी सेना को बनाए रखने के फैसले इससे भी भयावह होते। कुल मिला कर आजादी-विभाजन आदि में सावरकर की कोई भूमिका थी तो बस यह कि वे भी धर्म के आधार पर देश के विभाजन के पक्षधर थे।