कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी सरकार की अक्षमता का प्रतीक है

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सुप्रीम कोर्ट में सीजेआई ने आज सुनवाई करते हुए कहा कि,
” हमे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आपने ( सरकार ने ) बिना पर्याप्त विचार विमर्श किये एक कानून बना दिया है। जिसके कारण हड़ताल हो गयी है। अब इस आंदोलन से आप ही को निपटना है।”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार को इन कानूनो के क्रियान्वयन पर रोक लगाने के लिये विचार करना चाहिए, जिससे आंदोलनकारियों और सरकार के बीच जो विवाद है वह सुलझ सके।सीजेआई एसए बोबड़े ने कहा कि, जिस तरह से सरकार ने इस मामले को हैंडल किया है उससे वे बहुत निराश हैं। अदालत ने यह भी कहा कि, जिस तरह से सरकार और किसान संगठनों के बीच वार्ता चल रही है उससे कोई हल नहीं निकल रहा है। अब इस मामले का समाधान कोई कमेटी ही करे।
सीजेआई ने कहा कि, हमे यह समझ मे आ रहा है कि सरकार क्लॉज दर क्लॉज बातचीत करना चाहती है और  किसान चाहते हैं कि तीनो ही कृषि कानून ही हो। हम इन कानूनों के क्रियान्वयन को तब तक के लिये स्थगित कर देंगे, जब तक एक सक्षम कमेटी, उभय पक्षो से बात कर के इसे हल न कर दे।”
सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी के गठन का प्रस्ताव दिया है। और दोनो पक्षो से कहा है कि वे अपने अपने प्रतिनिधियो के नाम सुझाये।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से यह स्पष्ट है कि तीनों नए कृषि कानून बिना किसी गम्भीर विचार विमर्श के, आगा पीछा सोचे सरकार ने कुछ छंटे हुए पूंजीपति घरानों के हित के लिये बना दिये गए हैं। राज्यसभा में रविवार के दिन, जिस तरह से आनन फानन में उपसभापति हरिवंश जी द्वारा हंगामे के बावजूद बिना मतविभाजन के यह कानून पास घोषित कर दिया गया, उससे सुप्रीम कोर्ट के कथन और दृष्टिकोण की ही पुष्टि होती है।
इस तरह के वीडियो सोशल मीडिया और परंपरागत मीडिया पर बहुत दिखते हैं जिनमे पत्रकार किसान नेताओ से पूछते हैं कि
● सरकार जब बिल वापस लेने से इनकार कर रही है तो, वे बार बार सरकार से बात क्या करने जा रहे हैं ?
● सरकार जब संशोधन करने को राजी है तो किसान संगठन क्यों सहमत नहीं है ?
● कब तक यह धरना प्रदर्शन चलता रहेगा।
पर आज तक किसी पत्रकार ने, चाहे वह सरकार सनर्थक पत्रकार हों या सरकार विरोधी, की इतनी हिम्मत नहीं हुयी कि, वह सरकार से, ( प्रधानमंत्री तो खैर प्रेस वार्ता का साहस 6 साल से नहीं जुटा पाए हैं ), पर कृषिमंत्री या उद्योग मंत्री से ही, जो सरकारी वार्ताकार हैं, से यह पूछ लें कि,
● जब किसान कानून वापस लेने पर और सरकार कानून वापस न लेने पर अड़ी हैं तो फिर सरकार के पास इस समस्या के समाधान का और क्या उपाय है ?
● सरकार, जिन संशोधनो की बात कर रही है, वे संशोधन किस किस धाराओं में हैं और उन संशोधनो से किसानो को क्या लाभ होगा ?
● सरकार सनर्थक किसानों ने भी अपनी कुछ मांगे रखी हैं, तो वे कौन सी मांगे हैं?
● क्या सरकार वे मांगे जो सरकार समर्थक किसान संगठनों ने रखी हैं को सरकार मानने जा रही है ?
कम से कम जनता को यह तो पता चले कि गतिरोध कहाँ है। सरकार जो संशोधन सुझा रही है उन्हें वह एक प्रेस वक्तव्य के द्वारा कम से कम सार्वजनिक तो करे और सरकार समर्थक किसानों की ही मांगो को स्वीकार करने की कार्यवाही करे।
अब तक 9 राउंड की, यदि गृहमंत्री के साथ हुयी वार्ता को भी इसमे जोड़ लें तो, सरकार किसान वार्ता हो चुकी है और अब 15 जनवरी की तारीख निर्धारित है। सरकार के जो मंत्री वार्ता में आते हैं वे तब तक इन किसान संगठनों और सरकार समर्थक किसान संगठनों की भी मांगो पर कोई विचार करने वाले नहीं हैं और न ही वे कोई स्पष्ट वादा करने वाले हैं। इसका कारण है वे उतने सशक्त नही हैं कि प्रधानमंत्री की स्थापित गिरोही पूंजीपति केंद्रित नीति को बदल दें। जब तक प्रधानमंत्री की तरफ से कोई स्पष्ट आदेश या निर्देश नहीं मिलता है, यह तमाशा चलता रहेगा। यह एक प्रकार की नीतिगत विकलांगता की स्थिति है। आज के संचार और परिवहन क्रांति के युग मे किसी भी जन आंदोलन को न तो अलग थलग किया जा सकता है और न ही उसे थका कर कुंठित किया जा सकता है।
अभी हरियाणा में करनाल में मुख्यमंत्री हरियाणा को आना था और वहां उनका विरोध हुआ, पुलिस ने आंसू गैस, वाटर कैनन और लाठी चार्ज किया और यह सब गोदी मीडिया भले ही सेंसर कर दे पर हम सबके हांथो में पड़े मोबाइल की स्क्रीन पर जो कुछ करनाल में हुआ है, वह लाइव दिख रहा है। बल प्रयोग कितना भी औचित्यपूर्ण हो, उसकी सदैव विपरीत प्रतिक्रिया होती है, फिर यह विरोध प्रदर्शन तो एक व्यापक जन आंदोलन का ही एक भाग है। भाजपा औऱ संघ के लोगो ने एक तो पहले ही इस आंदोलन को खालिस्तानी, विभाजनकारी आदि शब्दो से नवाज़ कर जनता और किसानों के प्रति अपनी शत्रुता पूर्ण मनोवृत्ति उजागर कर दी है, दूसरी ओर सरकार के वादाखिलाफी, झूठ बोलने, और जुमलेबाजी के इतिहास को देखते हुए सरकार की विश्वसनीयता पहले से ही संकट में है।
सरकार को चाहिए कि, खेती सेक्टर में कॉरपोरेट के प्रवेश को नियंत्रित रखा जाय, सरकार उनकी सर्वग्रासी मनोवृत्ति पर अंकुश लगाए, असीमित भंडारण, जमाखोरी पर रोक लगाए, एमएसपी से कम कीमत पर फसल बेचने को दंडनीय अपराध बनाये, किसानों के साथ कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में कोई धोखा न हो इसके लिये सक्षम कानून बनाये और सरकार किसान की तरफ न केवल खड़ा नज़र आये बल्कि खड़ा हो भी।
कृषिकानून पर किसानों से होने वाली बातचीत में, सरकार ने कहा कि किसान सुप्रीम कोर्ट जांय। इससे गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य नही हो सकता है। कुछ दिन पहले सरकार ने कहा कि कानून वापस लेना सम्भव नहीं है पर कुछ संशोधन किए जा सकते हैं। इन संशोधनो पर सरकार ने कोई लिखित प्रस्ताव रखा या नहीं यह तो नही पता पर यह संकेत मीडिया से मिला कि सरकार,
● निजी मंडियों पर टैक्स लगा सकती है।
● निजी खरीददारी करने वाले लोंगो के लिये रजिस्ट्रेशन का प्राविधान कर सकती है।
● कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में एसडीएम के बजाए सिविल अदालत का विकल्प दे सकती है।
● जमाखोरी तब तक कानूनन वैध रहेगी जब तक कीमतें दुगुनी न हो जांय। जब कीमतें दुगुनी पहुंच जाय तब सरकार महंगाई पर सचेत होगी और कोई कार्यवाही करेगी।
● असीमित, अनियंत्रित और अनैतिक जमाखोरी जमाखोरों का वैध कानून बना रहेगा।
भारतीय संविधान में कृषि राज्य सूची में दर्ज है तो केन्द्र  सरकार ने उसपर क़ानून कैसे बना दिया ? यह तो राज्य सरकारों का अधिकार क्षेत्र है । क्या यह एक  असंवैधानिक कानून है ? दरअसल, यह कानून बना तो, संविधान के दायरे में ही है, लेकिन यह कानून ट्रेड एंड कॉमर्स जिंसमे संधीय सरकार क़ानून बना सकती है, बनाया गया है । लेकिन इस संवैधनिकता पर सुप्रीम कोर्ट बाद में विस्तार से चर्चा करेगी।
सरकार ने हाल में जितने भी कानून बनाये हैं लगभग सभी मे कमियां हैं और अधिकतर बनाये कानून संसदीय समिति से परीक्षण कराये बिना बनाये गए हैं। यह सरकार के कानून बनाने की जिम्मेदारी की अक्षमता है।
सरकार इन तीनो कानूनो को रद्द करे और कृषि सुधार के लिये एक एक्सपर्ट कमेटी जिसमे किसान संगठन के भी कुछ प्रतिनिधि रहें, के साथ विचार विमर्श कर के तब यदि ज़रूरत हो तो क़ानून लाये या इसे राज्यों पर छोड़ दे। वैसे भी यह कानून ट्रेड एंड कॉमर्स विषय के अंतर्गत लाये गए हैं, और कॉरपोरेट का भला करने की नीयत से बने हैं।
( विजय शंकर सिंह )
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