भगत सिंह से भी कम उम्र में हँसते हुए शहीद होने वाले खुदीराम बोस

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आजादी का महीना चल रहा है। जल्द ही भारत अपना स्वतंत्रता दिवस मनाने वाला है। लेकिन, इस अगस्त के महीने को स्वतंत्रता दिवस के अलावा कई और वजहों से भी याद किया जाता है। उन वजहों में से एक वजह आज है। जी हाँ, आज एक ऐसे युवा क्रांतिकारी की पुण्यतिथि है, जो भगत सिंह से भी कम उम्र में हँसते हुए शहीद हो गया था। हम बात कर हैं खुदीराम बोस की।  3 दिसम्बर 1889 को बंगाल के मेदिनीपुर जिले में त्रैलोक्यनाथ बोस और लक्ष्मी प्रिया देवी के घर एक लड़के का जन्म हुआ। त्रैलोक्यनाथ बोस ने अपने बेटे का नाम खुदीराम बोस रखा। 

लेकिन, इस नाम के पीछे भी एक कहानी है। दरअसल, खुदीराम बोस से पहले उनके पिता के दो और बेटे पैदा हुए थे, पर दोनों बिमारी के चलते छोटी ही उम्र मेें चल बसे। खुदीराम के जन्म के समय उनके पिता को डर था कि कहीं उनकी पिछले संतानों की तरह खुदीराम के साथ भी कोई अनहोनी न हो जाए। इसलिए बच्चे को बुरी नज़र से बचाने के लिए एक टोटका किया गया। इस टोटके में त्रैलोक्यनाथ की बेटी ने 3 मुट्ठी चावल देकर बच्चे को ख़रीद लिया। हालांकि ऐसा सिर्फ बच्चे को बुरी नजर से बचाने के मकसद से ही किया गया था। असल में नहीं। कई गांवों में चावल को खुदी बोला जाता है। इसीलिए बच्चे को बुरी नजर के, बुरे असर से बचाने के लिए खुदीराम नाम रख दिया गया। 

15 साल की उम्र में पहली बार गिरफ्तार हुए खुदीराम 

खुदीराम ने नौंवी कक्षा तक ही पढ़ाई की। जिसके बाद उसके बाद वो अनुशीलन नाम की समिति से जुड़ गए। जो स्वतंत्रता के लिए क्रांति का प्रचार-प्रसार किया करती थी। अंग्रेजी सरकार के ख़िलाफ़ पर्चे बांटने के आरोप में जब खुदीराम को पहली बार गिरफ्तार किया गया था, तो उस समय उनकी उम्र महज 15 साल थी।

अनुशीलन समिति ने सेशन जज को मारने का किया था प्रयास

उन दिनों जिला सेशन कोर्ट के जज के तौर पर डग्लस किंग्सफोर्ड काम कर रहे था। जिसको भारतीय फूटी आंख नहीं भाते थे। अगर कोई व्यक्ति छोटे से छोटा जुर्म भी करता, तो किंग्सफोर्ड को उसे कम से कम 15 कोड़े मारने की सजा सुनाया करता था। इसी क्ररता का बदला लेने के लिए अनुशीलन समिति ने तय किया कि किंग्सफोर्ड की हत्या करने की साजिश रची। जिसके तहत एक किताब में बम छुपा कर किंग्सफोर्ड के पास भेज दिया गया। लेकिन किंग्सफोर्ड ने वो किताब खोलकर नहीं देखी और यह पहली कोशिश नाकाम हो गई।

खुदीराम बोस को सौंपा गया काम

किंग्सफोर्ड को मारने की नाकाम कोशिश के बाद अनुशीलन समिति ने तय किया कि सेशन जज को उसके सामने जाकर ही खत्म किया जा सकता है। लेकिन तब तक ब्रिटिश सरकार ने उसका तबादला बिहार में कर दिया था। तब किंग्सफोर्ड को जान से मारने का जिम्मा खुदीराम को सौंपा गया। जिसके बाद अपने लक्ष्य को अंजाम देने के लिए अप्रैल 1908 में खुदीराम मुज़फ़्फ़रपुर पहुंच गये। प्रफुल्ल कुमार चाकी नाम का एक और क्रांतिकारी उनके साथ मुज़फ़्फरपुर पहुंचे थे। वहां पहुंचकर खुदीराम और उनके साथी ने मोतीझील इलाक़े में एक धर्मशाला ठहरे। इस धर्मशाला का मालिक एक बंगाली जमींदार था। खुदीराम को लगा कि अगर वह बंगाली धर्मशाला में रहेंगे तो किसी को उन पर शक नहीं होगा।

 

अंग्रेजों को इस बात की भनक हो गई थी कि किंग्सफोर्ड की जान को खतरा है। इसलिए उसकी सुरक्षा को और चाक-चौबंध कर दिया गया। इसके बावजूद बड़ी मुश्किल से खुदीराम और उनके साथी ने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या के बारे में जानकारी हासिल कर ली।  

किंग्सफोर्ड की जगह प्रिंगल केनेडी के परिवार की हो गई मौत

30 अप्रैल की शाम खुदीराम और उनके साथी किंग्सफोर्ड पर हमला करने के इरादे से निकले।  किंग्सफोर्ड हाउस के सामने पहुंचकर दोनों एक पेड़ के पास जाकर बैठ गए। हालांकि वहाँ मौजूद सिक्योरिटी गार्ड ने उन्हें भगाने का भी प्रयास किया, पर शायद उसे अंदाजा नहीं था कि यह 18 साल का लड़का इतनी बड़ी घटना को अंजाम देने आया है। 

किंग्सफोर्ड हाउस में उस दिन वहां के लोकल बैरिस्टर प्रिंगल केनेडी अपने परिवार के साथ आए हुए थे। केनेडी और उसके परिवार ने किंग्सफोर्ड हाउस में रात को करीब आठ बजे तक बिज्र, ताश का खेल खेला। उसके बाद सब लोग बाहर आ गए। केनेडी की पत्नी और बेटी बाहर खड़ी एक बग्गी में जाकर बैठ गए। जैसे ही एक बग्गी आगे बढ़ी, खुदीराम ने दौड़कर उस बग्गी की तरफ बम से हमला कर दिया। इससे बग्गी में धमाका हो गया, पर अफसोस यह बग्गी किंग्सफोर्ड की नहीं थी। केनेडी की पत्नी और बेटी की इस धमाके में मौत हो गई। इस हमले के तुरंत बाद खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी वहां से भाग गए।

वैसे तो इस शहर में दोनों को कोई  नहीं पहचानता था।  लेकिन भारत के क्रांतिकारियों और चादरों की अजब दुश्मनी थी। दरअसल, इस घटना को अंजाम देने वाले युवकों की उम्र  काफी कम थी। उसी दिन खुदीराम और प्रफुल्ल कुमार चाकी के जूते व चादर किंग्सफोर्ड हाउस के पास ही छूट गए, जो बाद में पुलिस के हाथ लग गए। पुलिस ने आरोपी से जुड़े निशान मिलते ही पूरे शहर में यह घोषणा करवा दी कि- दो बंगाली लड़के हत्या करके फरार हो गए हैं, और उनका पता बताने वाले को सरकार की तरफ से 5000 रूपये का इनाम दिया जाएगा। खुदीराम और प्रफुल्ल को लगा कि अगर साथ भागे तो लोगों को शक होना लाज़मी है। इसलिए दोनों ने अलग हो गए।

शिनाख्त के लिए प्रफुल्ल का काटा गया सर 

1 मई 1908 को प्रफुल्ल समस्तीपुर स्टेशन पहुंचकर ट्रेन में जा बैठे। किसी को उन पर शक न हो इस मकसद से उन्होंने नए जूते और कपड़े भी खरीद लिए थे। लेकिन 18-19 साल के बंगाली लड़के को नए कपड़ों में देख एक बंगाली दरोगा को उन पर संदेह हुआ, उस दरोगा ने अगले स्टेशन पर अपने साथियों को इस बात की खबर दे दी। जिसके बाद प्रफुल्ल को पुलिस ने पकड़ लिया। उन्होंने भागने की बहुत कोशिशें की, दरोगा की पिस्तौल छीन कर कई राउंड फायरिंग भी की, लेकिन नाकाम हो गए। इसके बाद उन्होंने उसी पिस्तौल से खुद को गोली मार ली। प्रफुल्ल ने बंगाली दरोगा नंदलाल बैनर्जी को अपना नाम दिनेश चंद्र रे बताया था। उसकी शिनाख्त करने के लिए पुलिस ने प्रफुल्ल का सिर काटकर कलकत्ता भिजवाया ताकि ये पक्का हो सके कि ये वही प्रफुल्ल कुमार चाकी ही है। 

ऐसे पकड़े गए खुदीराम बोस

खुदीराम रेलवे ट्रैक पर चलते-चलते पूसा के पास वैनी रेलवे स्टेशन तक पहुंच गए थे। लगभग 30 किलोमीटर चलने के बाद भूख प्यास से उनका बुरा हाल हो गया। थके हुए खुदीराम बोस जैसे ही पानी पीने के लिए पंप के पास पहुंचे, पुलिस ने उन्हें चारो तरफ से घेर लिया। हालांकि खुदीराम के पास बंदूक़ थी, पर थकान की वजह से वह कुछ नहीं कर सके। पुलिस उन्हें पकड़कर मुज़फ़्फ़रपुर स्टेशन ले गई। तब तक उनकी गिरफ़्तारी की खबर चारों तरफ़ आग की तरह फैल चुकी थी। कोई इस बात का यकीन नहीं कर पा रहा था कि 18 साल का एक लड़का किसी अंग्रेज को मार सकता है।  पुलिस स्टेशन पहुंचकर जैसे ही खुदीराम वैन से उतरे, तो ज़ोर से चिल्लाए- वन्दे मातरम !

13 जून 1908 को हुई फांसी की सजा

13 जून 1908 को जज ने हत्या के इस मामले में अपना फैसला सुनाते हुए खुदीराम को फांसी की सजा सुनाई। खुदीराम को 11 अग्स्त 1908 को फांसी देने का दिन मुकर्रर किया गया। जज को यह देख कर काफी हैरानी हुई कि मौत सामने देखकर भी खुदीराम के चेहरे पर एक भी शिकन नहीं थी। फ़ैसला देने के बाद जज ने उससे पूछा, क्या तुम फैसला समझ गए है? इस पर खुदीराम ने जवाब दिया, ‘हां लेकिन मैं कुछ कहना चाहता हूं’। जज ने यह कहते हुए मना  कर दिया कि उनके पास वक्त नहीं है। खुदीराम ने कहा आगे कहा कि ‘अगर मुझे मौका दिया जाए, तो मैं बता सकता हूं कि बम कैसे बनाया गया था।’ लेकिन जज ने उन्हें बोलने की इजाजत नहीं दी। सजा के बाद खुदीराम बोस ने अपने वकील से कहा कि ‘चिंता मत करो, पुराने समय में राजपूत औरतें आग में जौहर कर लेती थीं। मैं भी बिना किसी डर के अपनी मौत स्वीकार कर लूंगा’

आजादी के दिवानों के लिए बने नए आदर्श

खुदीराम की मौत के बाद उनकी अस्थि भस्म के लिए लोगों में छीना-झपटी होने लगी, कोई उनकी अस्थिभस्म को सोने की डिब्बी में बंद करके ले गया, कोई चांदी की डिब्बी में, यहाँ तक कि हांथी के दांत से बने डब्बों में लोगों ने उनकी भस्म भरकर रख ली। खुदीराम के शहीद होने के बाद आजादी के दिवानों के लिए खुदीराम एक नया आदर्श बन गये। खुदीराम की बहादुरी और इतनी कम उम्र में देश के प्रति समर्पित होने की भावना अतुल्नीय है। आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। 

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