असम में पहले एनआरसी लागू हुआ. कहा गया कि यहां अवैध प्रवासी बहुत बढ़ गए हैं जिन्हें वापस भेजने के लिए एनआरसी ज़रूरी है. इसके अनुसार 24 मार्च 1971 के बाद जो भी असम में आए, सब अवैध प्रवासी मान लिए गए. तर्क था कि हिंदू-मुस्लिम चाहे जो हो, एनआरसी में नाम नहीं है तो नागरिकता नहीं मिलेगी. इस तर्क के साथ सरकार ने दावा किया कि एनआरसी किसी भी धर्म-विशेष को निशाना नहीं बनाता. ये असम के मूल निवासियों के हित में है.
अब आइए नागरिकता संशोधन विधेयक पर. ये विधेयक कहता है कि पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले तमाम हिंदू, सिख, बौध, जैन, पारसी और ईसाई प्रवासियों को छह साल भारत में रहने के बाद यहीं की नागरिकता दे दी जाएगी. यानी मुसलमानों को छोड़ कर अन्य सभी प्रवासियों को नागरिकता दे दी जाएगी.
इस खाँटी साम्प्रदायिक विधेयक का असम और वहाँ लागू हुए एनआरसी पर क्या प्रभाव होगा समझना मुश्किल नहीं है. असम में जिन 19 लाख लोगों की छँटनी एनआरसी के ज़रिए की गई और जिस छँटनी को ‘धर्मनिरपेक्ष’ बताया गया, उन लोगों की अब दोबारा छँटनी होगी. और इस बार ये छँटनी पूरी तरह से साम्प्रदायिक आधार पर होगी. क्योंकि नए विधेयक के क़ानून बनते ही मुसलमानों को छोड़ बाक़ी सभी लोग भारतीय नागरिकता पाने के पात्र बन जाएँगे. पीछे रह जाएँगे सिर्फ़ मुसलमान, उनके लिए सरकार ‘डिटेन्शन सेंटर’ बनवा ही रही है.
तो बताइए, क्या अब भी आप कह सकते हैं कि एनआरसी साम्प्रदायिक नहीं था? बल्कि ये बताइए, क्या नागरिकता संशोधन बिल के क़ानून बन जाने के बाद आप ये भी कह पाएँगे कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है?
तय करो किस ओर हो तुम
नागरिकता संशोधन बिल हमारे संविधान की मूल अवधारणा पर चोट करने वाला है. ये देश को उस उन्मादी दिशा में धकेलने वाला क़दम है जिस पर आज़ादी के बाद धार्मिक पाकिस्तान तो आगे बढ़ा था लेकिन सेक्युलर हिंदुस्तान नहीं. क्योंकि हमारे संविधान निर्माताओं ने तभी इस उन्मादी धार्मिक राह के ख़तरे भाँप लिए थे.
लेकिन अब देश की कमान ऐसे हाथों में है जिसे ताक़त ही धार्मिक उन्माद से मिलती है. साम्प्रदायिक नफ़रत और मनमुटाव जितना गहरा होगा, सत्ताधारी दल उतना मज़बूत होगा. इसलिए ये साम्प्रदायिकता की आग में लगातार घी डालता रहा है. और इस बार तो साम्प्रदायिक आग को भड़काने के लिए बाक़ायदा संविधान की आहुति दी जा रही है.
लेकिन सबसे चिंताजनक ये है कि संविधान से हो रहे इस खिलवाड़ पर भी पूरा देश चुप्पी मारे बैठा है. सिर्फ़ पूर्वोत्तर राज्य हैं जो इसका विरोध कर रहे हैं और उनके विरोध का कारण भी संविधान की मूल अवधारणा को बचाना कम और अपने स्थानीय हितों का बचाव करना ज़्यादा है.
कारण कई हैं. लेकिन पूर्वोत्तर में इस बिल का इतना ज़बरदस्त विरोध है कि प्रचंड बहुमत के नशे में मदमस्त ये सरकार भी घुटनों पर आने को मजबूर हो रही है. सरकार को घुटने टेकने भी पड़ेंगे क्योंकि पूर्वोत्तर के लोग उससे कम में किसी भी समझौते को तैयार नहीं हैं.
सोचिए, वो पूर्वोत्तर राज्य जिनका नाम भी ज़्यादातर भारतीय नहीं जानते, जहाँ से गिनती के सांसद आते हैं, जहाँ के बारे में पूछ लो कि ‘सेवन सिस्टर स्टेट’ के नाम बताओ तो अधिकतर भारतीय हकलाने लगते हैं और अगर पूछ लो कि सिक्किम ‘सेवन सिस्टर’ में आता है या नहीं तो कई भारतीय बग़लें झांकने लगते हैं. उन पूर्वोत्तर राज्यों ने इस सरकार को अपनी शर्तों पर बात करने को मजबूर कर दिया है. इतना मजबूर कि एक केंद्रीय क़ानून उनकी शर्तों पर संशोधित हो रहा है. और हमेशा की तरह इस बार भी वहाँ विरोध की कमान छात्र संगठनों ने ही सम्भाली है.
दूसरी तरफ़ आप लोग हैं जो अपने ही छात्रों में ‘देशद्रोही’ खोजने में व्यस्त हैं और उधर आपकी सरकार ही देशद्रोह जैसा क़दम उठाने जा रही है. ऐसा क़दम जो देश को ‘हिंदू पाकिस्तान’ बनाने की संवैधानिक नींव रखने जा रहा है.
तो तय कर लीजिए आप किस ओर खड़े होना चाहते हैं? नागरिकता संशोधन बिल का समर्थन करके देश को पाकिस्तान की राह पर चलता हुआ देखना चाहते हैं? या इसका पुरज़ोर विरोध करते हुए हिंदुस्तान की सदियों पुरानी तहज़ीब, एकता, भाईचारे और ख़ूबसूरती को बचाए रखना चाहते हैं.