जीवन का पहला शतक पूरा करने से कुछ महीने पहले ही द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती अपनी इहलीला समाप्त कर अनंत में विलीन हो गए। लेकिन वे जाते-जाते ये सवाल भी छोड़ गए कि भारत जैसा विशाल देश आजादी के 75 साल बाद भी एक महारानी के शोक में अपना राष्ट्रध्वज झुका सकता है लेकिन एक शीर्ष धर्मगुरु के लिए नहीं। जाहिर है कि हिन्दू-हिन्दू चिल्लाने वाले देश के भाग्य विधाता हिंदुत्व के नाम पर सिर्फ राजनीतिक रोटियां पका सकते हैं ,और कुछ करना उनके बूते की बात नहीं ।
जीवन के 99 साल पूरे कर चुके स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती देश और दुनिया के उन शीर्ष धर्माचार्यों में से एक थे जो हमेशा धर्मध्वजा को फहराते हुए विवादों में घिरे रहे। उनके ऊपर कांग्रेसी होने के आरोप भी लगे किन्तु उनका व्यक्तित्व इतना विशाल था कि स्वामी जी के जीवन काल में कोई उनके सामने बैठकर शास्त्रार्थ का साहस नहीं जुटा सका। भगवा धारण करने वाले देश के तमाम धर्मध्वजाधारियों से मेरी मुलाक़ात हुई ,किन्तु मैंने न किसी की पूजा की और उनका आशीर्वाद पाने के लिए कभी खुद को तैयार माना। लेकिन स्वामी स्वरूपानद सरस्वती देश के एक मात्र ऐसे संत थे जिनके प्रति मेरे अपने मन में काफी सम्मान था।
स्वामी स्वरूपानंद धर्म के अलावा भी हर विषयों पर खुलकर बोलते थे। वे आडंबरहीन थे,उनमें ज्ञान की ठसक थी, उनका पाखंड किसी की पकड़ में कभी नहीं आया , क्योंकि उन्होंने कभी कोई पाखण्ड किया ही नहीं। जैसे थे,वैसे थे, ग्वालियर में स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती अपने भक्त कांग्रेस के जिला अध्यक्ष देवेंद्र शर्मा के आवास पर प्राय विहार करते थे। वे जब भी ग्वालियर आते प्रेस से अवश्य मिलते और एक शंकराचार्य की तरह नहीं बल्कि एक अभिभावक की तरह मिलते थे। मेरे ज्येष्ठ दामाद डॉ सचिन शर्मा जब इलाहाबाद में दैनिक अमर उजाला के स्थानीय सम्पादक थे तब उनका भी स्वामी स्वरूपानंद जी से सीधा सम्पर्क रहा। मै खुद उनसे मिलने उनकी द्वारिका [गुजरात ] पीठ तक गया। वे जितने गंभीर थे,उतने ही सहज और सरल। वे देश के पहले शंकराचार्य थे जो किसी न्यूज चैनल के स्टूडियो में बातचीत करने के लिए पहुंचे थे।आजतक ने उन्हें आमंत्रित किया था। देश के किसी भी शंकराचार्य ने अपने आपको इतना आधुनिक नहीं बना पाया था।
सब जानते हैं कि वे देश के हृदय प्रदेश मध्यप्रदेश में 2 सितम्बर 1924 को सिवनी जिले के दिघोरी गांव में श्री धनपति उपाध्याय के घर जन्मे थे। माता श्रीमती गिरिजा देवी ने अपने इस प्रतिभाशाली बालक का नाम पोथीराम उपाध्याय रखा। लेकिन पोथीराम नाम के पोथीराम नहीं रहना चाहते थे सो नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर दी थीं। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली।
स्वामी स्वरूपानंद जब अपनी युवावस्था में थे उस समय भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। जब 1942 में जब महात्मा गाँधी ने करो या मरो का आव्हान किया तो स्वरूपानद जी भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े ,उस समय उनकी उम्र मात्र 19 साल थी। इसी युवावस्था में में वह ‘क्रांतिकारी साधु’ के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में नौ और मध्यप्रदेश की जेल में छह महीने की सजा भी काटी। वे करपात्री महाराज के राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी थे। 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाये गए और 1981 में उन्हें बाकायदा में शंकराचार्य की उपाधि मिली। स्वामी स्वरूपानंद जी ने में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे।
स्वामी स्वरूपानंद जी से मेरा परिचय तभी से था जब से वे शंकराचार्य बने। वे शुरू से आक्रामक शैली में अपनी बात रखते थे। स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती जी, सांई बाबा की पूजा करने के विरोध खुलकर किया। वे अक्सर कहते थे की-‘ कुछ हिंदू दिशाहीन हो कर अज्ञानवश असत् की पूजा करने में लगे हुए हैं जिससे हिंदुत्व में विकृति पैदा हो रही है | स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती इस्कॉन से भी हमेशा नाराज रहे, उनका आरोप था कि ‘ इस्कॉन ‘ ‘भारत में आकर कृष्ण भक्ति की आड़ में धर्म परिवर्तन कर रहा है, ये अंग्रेजों की कूटनीति है कि हिंदुओं का ज्ञान ले कर हिंदुओं को ही दीक्षा दे कर अपना शिष्य बना रहे हैं। स्वामी स्वरूपानंद जी स्थूलकाय थे, वे शिवजी का अभिषेक कुर्सी पर बैठकर किया करते थे। एक बार मैंने उनसे इसी मुद्दे पर सवाल किया था। वे मुस्कराकर बोले -महाकाल के आसन कि सामने हर आसन छोटा है, मै तकनीकी कारणों से उनके सामने जमीन पर नहीं बैठ पाता। कोई दूसरा शंकराचार्य होता तो शायद इस सवाल पर बिदक जाता ।
स्वामी जी कि ब्रम्हलीन होने पर मेरे मन में फिर खलबली हुई की इस देश में नेताओं और यहां तक की हाल ही में दिवंगत हुई इंग्लैंड की महारानी कि निधन पर शोक में राष्ट्रध्वज आधा झुका दिया जाता है लेकिन शंकराचार्य कि लिए ऐसा नहीं किया जाता। शंकराचार्य कि लिए ही क्या किसी संगीतकार,कलाकार, सिने अभिनेता कि लिए भी राष्ट्रधज नहीं झुकाया जा सकता । आखिर क्यों ? जब देश में राम राज की स्थापना करने वाली सरकार है तब भी किसी शंकराचार्य को ये सम्मान क्यों नहीं दिया जा सकता ? क्या वे देश कि लिए किसी नेता से भी गए -बीते व्यक्ति हैं ?
मै तो कहता हूँ कि त्रिपुण्ड धारण करने वाले प्रधानमंत्री को कूनो अभ्यारण्य जाने कि बजाय शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी कि अंतिम संस्कार में शामिल होकर हिन्दू धर्म कि प्रति अपनी आस्था प्रकट करना चाहिए। स्वामी स्वरूपानंद जी की कमी देश लम्बे आरसे तो अनुभव करता रहेगा ,क्योंकि आज जितने भी धर्म गुरु हैं उनमने से अधिकांश सत्तान्मुख हैं। मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि
@ राकेश अचल