यह बात बिल्कुल सही है कि 1947 के बंटवारे के बाद पाकिस्तान के दोनों हिस्सों में और 1971 के बाद बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न हुआ है। पाकिस्तान में शुरुआत में यह उत्पीड़न, हिंदू, सिख और ईसाइयों का हुआ, फिर बाद में उत्पीड़ित जमात में, अहमदिया, शिया आदि गैर सुन्नी फिरके के इस्लामी मतावलंबी शामिल हो गए। यह उत्पीड़न धर्म के नाम हुआ है। इसका कारण धर्मांधता और धार्मिक कट्टरता रही है। 1971 के समय जब बांग्लादेश युद्ध हुआ तो बांग्लादेश से लाखों की संख्या में शरणार्थी भारत मे आये। इसमे हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। 1971 में हुआ उत्पीड़न धर्म आधारित भी था और पाकिस्तान की सेना द्वारा बंगालियों का दमन जो हुआ था, वह भाषा और नस्ल के आधार पर था।
यह समस्या बड़ी विकट थी। इसी उत्पीड़न के दर्द से स्वतंत्र बांग्लादेश का जन्म हुआ। जब बांग्लादेश बना तो सबसे पहले उसे एक स्वतंत्र देश के रूप मे मान्यता, भारत ने दी और फिर भूटान ने। बाद में रूस सहित 8 अन्य देश भी सामने आए और बांग्लादेश को एक सार्वभौम देश मान लिया गया। बाद में तो सभी देशों ने बांग्लादेश को मान्यता दे दी। अंत मे पाकिस्तान ने भी बांग्लादेश को स्वतंत्र तथा संप्रभु राष्ट्र मान लिया । इस प्रकार धर्म राष्ट्र का आधार बन सकता है, यह सिद्धांत खंडित हो गया। सावरकर और जिन्ना के सिद्धांतों का यह सुखद अंत था।
बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न उसके बाद भी होता रहा और लोग भाग कर भारत आते रहे। पाकिस्तान से अलग हो जाने के बाद आने वालों में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। इनके आने का रास्ता, बंगाल, असम, मेघालय, और त्रिपुरा मे भी जाता था। बांग्लादेश की, बंगाल और त्रिपुरा की बोली भाषा तथा संस्कृति में समानता होने के कारण, जाहिरा तौर पर यह पहचान करना मुश्किल है कि कौन बांग्लादेश का बंगाली है और कौन पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा का। बंगाल और त्रिपुरा में तो यह बंगाली खप गये पर असम की अलग भाषा, संस्कृति होने के कारण, वहां नहीं खप पाए।
उत्पीड़न की सारी कहानियों के बाद भी भारत, पाक, और बांग्लादेश के नेता आपस मे मिलते रहे, पर उस उत्पीड़न के मुद्दे पर कोई बात हुयी या नहीं, यह पता नहीं है। हो सकता है इसका एक कारण यह भी रहा हो कि यह कानून व्यवस्था से जुड़ा मामला है और कानून व्यवस्था का मामला देश का अंदरूनी मामला होता है। यह भी हो सकता है अधिकतर समय सरकारें कांग्रेस की रहीं हैं और उनके एजेंडे में यह मामला रखा ही नहीं गया हो।
पर 1998 से 2004 तक, अटल बिहारी वाजपेयी जी और 2014 से अब तक नरेन्द्र मोदी की सरकार सत्ता में है, इन 11 वर्षों में कितनी बार भारत सरकार ने अल्पसंख्यक, या हिंदुओ के उत्पीड़न के सवाल पर पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से बात की ?
1999 में, अटल जी के समय मे बस यात्रा हुयी। बड़े सौहार्द में बातें हुयी पर ऐसी कोई खबर नहीं मिली कि हिंदुओं के उत्पीड़न पर अटल सरकार ने बात की हो। भाजपा तो हिंदुत्व के एजेंडे पर शुरू से ही है उसने यह बात क्यों नहीं उठायी ? 2002 में आगरा समिट हुयी। पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ आगरा आये थे। कश्मीर मुख्य मुद्दा था। कहते हैं कुछ समझौता भारत और पाक, दोनों के बीच लगभग तय हो गया था। पर ऐन वक्त पर कुछ पेंच फंस गया और जनरल मुशर्रफ रात में ही इस्लामाबाद लौट गए। उन्हें दूसरे दिन अजमेर में ख्वाजा गरीब नवाज के दर पर जाना था, पर जा न सके । इस समिट में भी अल्पसंख्यक उत्पीड़न का मुद्दा नहीं उठा।
2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार आयी तो उसके रिश्ते नवाज़ शरीफ़ से बहुत अच्छे रहे। यह रिश्ते व्यक्तिगत तौर पर घनिष्ठ हो गए थे। यहाँ तक कि पीएम नरेन्द्र मोदी जी, एक बार बिना निमंत्रण और बिना किसी तय कार्यक्रम के ही नवाज़ शरीफ़ के घर एक पारिवारिक समारोह में पहुंच गये थे। जब दोनों प्रधानमंत्रियों में इतनी आत्मीयता से भरी, निकटता थी तो हिन्दू उत्पीड़न की बात क्यों नही उठी ? बांग्लादेश एक दोस्त देश है । शेख हसीना एक उदार सोच की हैं। वहां अल्पसंख्यक में हिन्दू ही आते हैं। पर क्या कभी हमारी सरकार की, शेख हसीना से, हिन्दू उत्पीड़न पर बात हुयी है ?
भाजपा ने कभी भी अपने 11 साल के कार्यकाल में इस मुद्दे को न तो पाकिस्तान के साथ उठाया और न ही बांग्लादेश के साथ। अगर किसी मित्र को यह सूचना है कि यह बात आपसी बातचीत में उठी है तो उसे बताये। पाकिस्तान की तरफ से, कोई घुसपैठ हो जाय, यह आसान नहीं है। एक तो पश्चिमी क्षेत्र में, सीमा सीधी है और आपसी तनाव की गंभीरता के कारण भारत पाक, सीमा अधिक सुरक्षित रखी भी जाती है। लेकिन, बांग्लादेश की सीमा उतनी सुरक्षित नहीं है, लंबी है और इतनी मिलीजुली है कि सीमा पार आनाजाना आसान है। आज भी बहुत से लोग, बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल में नियमित आते जाते हैं। मेघालय के डौकी सीमा पर तो पता ही नहीं चलता कि आप भारत मे हैं या बांग्लादेश में। मैं खुद उस सीमा पर गया हूँ। तब बता रहा हूँ।
सरकार ने अभी असम में सुप्रीम कोर्ट के पहल पर, एनआरसी का गठन किया और 19 लाख घुसपैठिया जिसे अब अप्रवासी कहा जा रहा है कि पहचान की। जिसमे 14 लाख हिन्दू हैं और शेष मुस्लिम। हिन्दू घुसपैठिया अधिक होंगे क्योंकि उत्पीड़न के कारण के साथ साथ भारत के बहुसंख्यक समाज मे खप जाने की आशा भी उनकी होगी। अब उन्हें भी विधिवत नागरिकता देने के लिये यह सीएबी बना है। हिंदुओं के अतिरिक्त, बौद्ध, जैन, सिख और ईसाई भी अगर घुसपैठ कर गए हैं और घुसपैठ का कारण धार्मिक आधार पर उत्पीड़न है तो वे भी भारतीय नागरिकता के पात्र होंगे।
यह बात बिल्कुल सच है कि, नागरिकता देना, सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। पर नागरिकता के जितने भी मानक तय हों उसमे धर्म का मानक तय नहीं किया जा सकता है। दो घुसपैठिया धार्मिक उत्पीड़न पर आ गए हों, और एक को केवल इसलिए नागरिकता दे दी जाय, कि वह हिंदू है और दूसरे को इसलिए वंचित कर दिया जाय कि वह मुस्लिम है तो यह संविधान के प्राविधान के विपरीत होगा। बिना संशोधन बिल के भी सरकार के पास नागरिकता देने का अधिकार था। पहले भी नागरिकता कानून 1955 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों और शक्तियों के अंतर्गत, सरकार ने लोगों को नागरिकता दी है। अब जिन्हें भारत नागरिकता नहीं दी जा सकेगी, उनका क्या होगा ? उन्हें वापस उनके मुल्क वापस भेज दिया जाय या दूसरा उपाय है डिटेंशन सेंटर। लेकिन डिटेंशन सेंटर में कितने लोग रखे जाएंगे और कब तक रहेंगे ?
डिटेंशन सेंटर अस्थायी होते हैं। उनमें किसी देश के नागरिक को अवैध रूप से आने पर जब तक उस देश को जहां से वह आया है सौंपा न जा सके तब तक रखा जाता है। यह जेल नहीं है। उसके मानवाधिकार सुरक्षित रहते हैं। उनसे कोई काम नहीं लिया जाता है। अगर बांग्लादेश उन लोगों को वापस लेने पर राजी हो जाय, जिन्हें हम बांग्लादेश से आये घुसपैठिया कह रहे हैं तब तो अस्थायी डिटेंशन सेंटर उन्हें कुछ समय तक रखने के लिये तो ठीक है, लेकिन अनिश्चित अवधि तक तो किसी को भी और फिर इतनी बड़ी जनसंख्या को तो, डिटेंशन सेंटर में नहीं रखा जा सकता है। भारत सरकर ने यह स्वीकार किया है कि उनकी, इन घुसपैठियों को वापस लौटने के संबंध में बांग्लादेश से कोई बात हुयी है। बल्कि शेख हसीना ने तो यही कहा कि उनकी इस विषय पर कोई बात ही भारत के प्रधानमंत्री से नहीं हुई है।
नए नागरिकता कानून 2019 के अनुसार, 31 दिसंबर 2014 तक के उत्पीड़ित, हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी, और ईसाई नागरिक जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत मे आये हैं के लिये भारत मे नागरिकता देने का प्रावधान है। या तो अब यह घुसपैठ 31 दिसंबर 2014 के बाद से पूरी तरह रुक गयी है या घुसपैठ हो ही न , इसके पुख्ता इंतजाम कर लिये गये हैं। अगर घुसपैठ पूरी तरह रुक गयी है और दुबारा न हो, इसके इनज़म पुख्ता हो गए हों, तब तो कोई समस्या ही नहीं आगे आएगी अन्यथा यह समस्या बनी रहेगी।
मुसलमानों को इस क़ानून से बाहर रखने के पक्ष में, सरकार का यह तर्क है कि, मुस्लिम समाज के लिए दुनियाभर में 57 देश है। इसी तर्क पर बात करें तो, ईसाई और बौद्धों के लिये भी अलग अलग कई देश दुनिया मे है जहां वे पनाह पा सकते हैं। तब तो केवल यह सुविधा, हिंदू, जैन, सिख और पारसी समाज के लोगों के लिए होनी चाहिये थी और इसकी कोई समय सीमा नहीं होनी चाहिये। क्योंकि यह साफ नहीं है कि उपरोक्त तीन देशों में अब अल्पसंख्यक उत्पीड़न रुक गया है या अब भी जारी है।
ऐसा भी नहीं है बांग्लादेश से घुसपैठ करने वाले बांग्लादेश के नागरिकों को भारत सरकार ने बांग्लादेश को वापस नहीं भेजा। राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने 2005 से अब तक बांग्लादेश भेजे जाने वाले घुसपैठियों का विवरण दिया है। उस विवरण के अनुसार, 2005 में, 14,916, 2006 में, 13,692, 2007 में, 12135, 2008 में, 12,625, 2009 में, 10,602, 2010 में, 6,290, 2011 में, 6,761, 2012 में, 6,537, 2013 में 5,234 यानी यूपीए के कार्यकाल में कुल 82,728 बांग्लादेश के नागरिक जिन्होंने घुसपैठ किया था, वापस बांग्लादेश भेजे गए। इसी प्रकार एनडीए के कार्यकाल में, 2014 में 989, 2015 में 474, 2016 में, 308 और 2017 में 51 यानी कुल 1822 घुसपैठियों को वापस बांग्लादेश भेजा गया है। यह वापसी भी तभी बांग्लादेश स्वीकार करता है जब उसे प्रमाण सहित यह बता दिया जाय कि यह बांग्लादेश का ही नागरिक है, अन्यथा दुनिया का कोई देश वापसी स्वीकार नहीं करता है।
असम सहित सारे नॉर्थ ईस्ट में जो आंदोलन हो रहा है वह धर्म के आधार पर नहीं है। वह आंदोलन, उन सारे विदेशी नागरिकों के खिलाफ है, जो 1971 के बाद असम और नॉर्थ ईस्ट में आ गए हैं। एनआरसी से इसकी पुष्टि भी कर दी है कि 19 लाख लोगों की पहचान हो गयी है। इनमें 14 लाख हिन्दू और शेष मुस्लिम हैं। अब पूर्व में तो केवल एक ही देश है बांग्लादेश, जहां से यह आये होंगे। क्या बांग्लादेश से उन्हें वापस लेने की कोई बात की जाएगी या उन्हें आजीवन डिटेंशन कैम्प में ही रख कर सड़ा दिया जाएगा ? सरकार को इस बडी समस्या पर विचार करना होगा। सबसे पहले पूर्वी क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा सुरक्षा और मजबूत की जाय। बांग्लादेश सीमा पर यह एक सामान्य धारणा है कि कोई भी व्यक्ति, थोड़ा बहुत धन खर्च कर कभी भी आ जा सकता है। हालांकि अफगानिस्तान औऱ पाकिस्तान सीमा पर यह बात नहीं है। वहां परिस्थिति दूसरी है।
उचित तो यही है कि किसी भी घुसपैठिये को चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो, नागरिकता नहीं देनी चाहिये। 1985 में जो असम समझौता हुआ है उसे माना जाना चाहिये। आज यदि सेलेक्टिव आधार पर नागरिकता दी और ली जाने लगेगी तो, घुसपैठ का एक अंतहीन सिलसिला चल निकलेगा। फिर यह समस्या हर कुछ सालों के अंतराल में आएगी और जो भी सरकार तब होगी अपने अपने राजनीतिक एजेंडे से नागरिकता देने लगेगी। वर्ष 1971 एक असामान्य परिस्थितियों का समय था। उसी असामान्यता को हल करने के लिए नियम बने । लेकिन, असामान्य परिस्थितियों के लिये बनाये गए नियम, सामान्य परिस्थितियों में लागू नहीं किये जा सकते हैं।
सीएबी का विरोध इसलिए है कि यह कानून धर्म के आधार पर भेद करता है जो असंवैधानिक है। जहां तक नागरिकता देने का प्रश्न है नागरिकता अधिनियम 1955 के अंतर्गत सरकार को किसी भी नागरिक को नागरिकता देने का अधिकार है। पहले की सरकारों ने कुछ लोगों को नागरिकता दी भी है। पर इस तरह केवल, धार्मिक आधार पर नागरिकता कानून को संशोधित करना भविष्य के लिये खतरनाक हो सकता है।