सर सैयद अहमद – वो जो भारतीय मुसलमानों को पढ़ा लिखा देखना चाहते थे

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उसने किसी मुल्ला की तरह क़ौम के कसीदे नही पढ़े। किसी धर्मगुरु की तरह धर्म की रक्षा का उद्घोष नही किया। किसी पादरी की तरह जीसस का वास्ता नही दिया। किसी कथित सांस्कृतिक संगठन की तरह लाठियाँ भांजने की ट्रेनिग नही दी। किसी को झंडे और बम के साथ जन्नत भेजने का रास्ता नही दिखाया। उसका कदम तो बड़ा खामोश था।
वोह तो सिर्फ एक ऊँचा आसमान देख रहा था। उसमे खेलते कूदते बच्चे देख रहा था। उन बच्चों की ज़िन्दगी की खुशियाँ बुन रहा था। तुमसे वोह भी देखा नही जा रहा था। तुम चाहते थे की तुम्हारे बच्चे मदरसों में तख्तिया तोड़ें। तुम्हारे बालक टाट पट्टियों पर पड़े पड़े तुम्हारी गल्प कथाएँ सुने।
उसने तो ह्यूम की काँग्रेस से भी किनारा कर लिया। क्योकि उसे आने वाली नस्लों के लिए चमकदार ज़िन्दगी के ख़ाके बुनने थे। तुम सबसे यह बर्दाश्त न हुआ। एक तरफ बंगाली पंडितो ने उसे अंग्रेज़ों का एजेंट घोषित किया तो दूसरी तरफ मुल्लों ने क़ौम का गद्दार। वोह यह दोनों तमगे लिए भी खुश था, क्योकि उसका मकसद नीव में बदल चूका था।
वैसे भी जब दिमाग पर पर्दा और आँख पर कट्टरता हो तो अच्छाइयां नज़र आने को रही। तुम सब जिस वक़्त अपने पीले, दीमक लगे पन्नों के कसीदे पढ़ रहे थे तब वोह तुम्हारे बच्चों के लिए स्कूल बना रहा था। जब तुम मज़हबी जंज़ीरों में जकड़े फिर रहे थे। तब वोह तुम्हारी तालीम का दरवाज़ा बना रहा था।
जब तुम अपने गौरवपूर्ण इतिहास के नशे में मदमस्त ग़ुलाम ज़िन्दगी काट रहे थे तो वोह आने वाले कल का रास्ता बना रहा था। ऐसा रास्ता जिसपर चलकर तुम्हारी किस्मत पर लगी कुंडी खुल जाए। तुमने उसे जीभर ज़लील ओ ख्वार किया मगर वोह नही डिगा।
उसकी बुनियाद रखी इमारत ने देश दुनिया को वोह वोह नगीने दिए की गिनती भूल जाएँ। मैं बात कर रहा हूँ उस वक़्त के सबसे दूर की सोच रखने वाले सर सय्यद अहमद ख़ान की। हम बात कर रहे हैं उनके ख्वाब अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की।
मैं जब जब किसी अलीग को तरक्की की पहली सीढ़ी चढ़ते देखता हूँ तो सर सय्यद के लिए दुआएँ निकलती हैं। मैं सर सय्यद की मज़ार पर रखे अपने पहले क़दम को अगर लिख पाया, तो वोह मेरी सबसे नायाब क़लम होगी।
आज सर सय्यद के जन्मदिन पर मैं उस एहसास को जी रहा हूँ। मैं देख रहा हूँ की मजाज़ की ग़ज़लो की ज़मीन कैसे सर सय्यद ने बनाई। मैं महसूस कर रहा हूँ की खान अब्दुल गफ़्फ़ार के कदमों में अलीगढ़ की धूल कैसे सर सय्यद ने पहुंचाई। रफ़ी अहमद क़िदवई ने कैसे सर सय्यद के हाथों से बुनी इमारत में खुद को बुना।
इस मुल्क़, इस दुनिया को हर वक़्त एक सर सय्यद चाहिए। जो हमारी आँखों पर कट्टरपन की पट्टी बाँधने ना दे। जो हमे कल उगने वाले सूरज के लिए आज तैयार करे। जो हमारी आँखों में ख्वाब पालना सिखाए। सर सय्यद ज़मीन की ज़रूरत हैं।
अलीगढ़ में खड़ी सर सय्यद की तामीर की हुई ईमारत किसी लाल किला, ताजमहल, हवा महल सबसे बुलन्द है क्योंकि यहाँ कल उगने वाले सूरज चाँद की नर्सरी है।
जो इस इमारत पर अपने गन्दे और घिनौने मनसूबों से कालिख़ पोतना चाहते हैं, वह मुँह के बल गिरेंगे क्योंकि पहले भी ऐसे नापाक लोग थे और तबाह बर्बाद रुस्वा होकर वह पहले भी खत्म हुए हैं। सर सय्यद की रखी बुनियाद बहुत गहरी है,बहुत दूर दूर तक फैली है।

नोट: हफीज़ किदवई का ये लेख आप heritagetimes.in में भी पढ़ सकते हैं
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