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एक 'स्टार' का टैक्सी से 'प्रोड्यूसर' तक का जुनूनी सफर..

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चंद रोज़ से पहले हॉलीवुड के डॉल्बी थियेटर में बीते साल दुनिया छोड़ने वाले कलाकारों में जब शशि कपूर की तस्वीर दिखाई गई, ,उस वक्त नम हो रहीं आंखों में दर्शक दीर्घा में बैठे जेम्स आइवरी की भी थीं। बहुत संभव है कि उस वक्त उनके ज़हन में उन की पहली फिल्म ‘द हाऊसहोल्डर’ का एक गीत गूंज गया हो,जो शशि कपूर ने गुनगुनाया था।

ऐ मेरे दिल कहीं और चल
गम की दुनिया से दिल भर गया
ढूंढ ले अब कोई घर नया।

फिल्म में ये गीत शशि कपूर फिल्म स्टार निम्मी को याद करते गुनगुनाते हैं। 89 साल के जेम्स आइवरी को ऑस्कर के मंच पर आने में 50 साल लग गए। ऑस्कर में शशि कपूर की टीस जगाने वाली मौजूदगी इस बुजुर्ग निर्देशक की आंखों में बीते कल के कई पन्ने एकाएक पलट गई होगी। अपनी स्पीच में उन्होंने भले ही अपने साझीदारों  Ruth Prawer Jhabhvala और इस्माइल मर्चेंट का नाम लिया हो। लेकिन इतिहास की कई कड़ियां इन नामों से शशि कपूर को बहुत गहरे जोड़ती हैं।
शशिकपूर और आइवरी-मर्चेंट प्रोडक्शन का चालीस सालों का साथ रहा है, जिसके इकलौते गवाह अब जेम्स आइवरी ही बचे हैं।
इस कहानी की सबसे पहली कड़ी नवंबर 1961 में जाकर खुलती है। जेम्स को आज भी याद होगा कि किस तरह वो इस्माइल के कहने पर बॉलीवुड में नए नवेले आए महज 22 साल के शशि कपूर से मिलने मुंबई के क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया के लंबे गलियारे से गुजरे थे। उस मुलाकात में उनकी पत्नी जेनिफर भी साथ थीं।
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‘ए पैसेज फ्रॉम इंडिया’ नाम की अपनी आत्मकथा में इस्माइल ने लिखा है कि ”शशि कपूर के घर एक पार्टी के दौरान मैंने Geetal Steed की लिखी एक किताब पर फिल्म में काम करने के लिए शशि को मना लिया था। लेकिन जब वो फिल्म नहीं बनीं तो जर्मन लेखिका रूथ की लिखी ‘द हाऊसहोल्डर’ में काम करने को वो तैयार हो गए थे” फिल्म से जुड़ा एक मजेदार किस्सा ये भी है कि रुथ से फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखवाने के लिए इस्माइल-आइवरी को खासी दिक्कत पेश आई थी।

लेकिन जब वो तैयार हुईं तो उन्हें शशि कपूर के गुडलुक्स में अपना मीडिल क्लास टीचर प्रेम सागर नहीं दिखा। इस पर शशि कपूर बार्बर शॉप गए और कहा कि ऐसा हेयरकट दो कि मैं बिल्कुल मीडिल क्लास लगूं। कहते हैं रुथ ने इस हेयरकट के बाद ही स्क्रिप्ट लिखनी शुरु कर दी थी।
ये तो शुरुआत भर थी। मर्चंट -आइवरी प्रोडक्शन के साथ शशि कपूर की केमिस्ट्री चालीस साल तक रही। अपने करियर की शुरुआत में ही उन्होंने इंटरनेशनल प्रोजेक्ट्स को दिल खोल कर स्वीकारा। वो बतौर एक्टर खुद की खोज में तब भी जुटे रहे जब उनके साथ के अभिनेता महज कमर्शियल फिल्मों को ही सीढ़ी बना रहे थे।
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द हाऊसहोल्डर,बॉम्बे टॉकी,शेक्सपियरवाला,हीट एंड डस्ट, इन कस्टडी और साइट स्ट्रीट। शुरुआती तीन फिल्मों का तो बजट इतना टाइट था कि रुथ और शशि दोनों को पहली दो फिल्मों के लिए फीस तक छोड़नी पड़ी थी,तब जाकर फिल्म बन पाईं। ‘शेक्सपियरवाला’ में शशि के काम की अंतर्राष्ट्रीय प्रेस में बहुत तारीफ हुई थी,लेकिन तीसरी फिल्म को शुरु करने को लेकर दिक्कतें  सामने आ रहीं थीं । बॉम्बे टॉकी के लिए इस्माइल शशि को कैसे साइन करते जबकि उनकी दो फिल्मों की फीस तक  बकाया था। ऐसे में शशि की पत्नी जेनिफर ने इस्माइल मर्चेंट की मदद की।  बाद में हीट एंड डस्ट की शूटिंग के दौरान भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला। हैदराबाद में पैसों की वजह से शूटिंग रुक गई थी। होटल के बिल्स तक बकाया थे वो बाद में शशि कपूर ने क्लियर किए तो शूटिंग पूरी हुई।
दरअसल आइवरी मर्चेंट प्रोडक्शन की ये शुरुआत थी। इंटरनेशन बैनर होने के बावजूद उनके फायनेंसर हाथ खींच लेते थे । बाद के सालों में इस प्रोडक्शन के बैनर से The Remains of the Day,Howards End,A Room With a View जैसी फिल्में निकलीं। लेकिन संघर्ष के दिनों में शशि कपूर ने बतौर अभिनेता और दोस्त बहुत सहारा दिया।

दरअसल शशि कपूर की पहचान बतौर कमर्शियल फिल्मों के स्टार की है, लेकिन उससे कहीं बड़ी लकीर उन्होंने अलग तरह के सिनेमा के पारखी की भूमिका में खींचीं अपने करियर में उन्होंने हमेशा खुद को एक ऐसे पुल की तरह देखा, जिसके आर-पार अच्छी कहानियां,अच्छी फिल्में आसानी से रास्ता तय कर लेती थीं।

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करियर के शुरुआती साल में उन्होंने आइवरी -मर्चेंट प्रोडक्शन तो बाद के सालों में बतौर प्रोड्यूसर नई तरह के अच्छे सिनेमा को बढ़ावा दिया। यही वजह है कि जब 70 के दशक में वो मसाला फिल्मों के बड़े स्टार थे। शमिताभ के साझीदार की तरह मशहूर थे और कामयाबी को देख और सुन रहे थे,उस वक्त भी वो आने वाले कल के सिनेमा की धड़कन को भांप रहे थे। । मसाला फिल्मों में शशि कपूर इतने डिमांड में थे कि उनके भाई राजकपूर को ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ के लिए उनकी डेट्स लेने में दिक्कत आ रही थीं तब गुस्से में आकर उन्होंने शशि कपूर से कहा था कि ”तुम लोग स्टार नहीं टैक्सी हो, जो तुम लोगों का मीटर डाउन कर देता है,तुम उसी को बिठा लेते हो।”
कमर्शियल फिल्मों में कामयाबी के बावजूद शशि कपूर का मन क्रिएटिव सिनेमा की ओर ही झुकता था। एक विदेशी पत्रकार को इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी था कि उनका पहला प्यार स्टेज ही था,लेकिन उसमें पैसा बिल्कुल नहीं था, इसीलिए कमर्शियल फिल्में कर रहे थे, लेकिन इस दौरान शशि कपूर ने जो पैसा कमाया, वो बाद के दिनों में बतौर निर्माता सब गंवा दिया। दूसरे कमर्शियल सितारों की तरह वो सिर्फ मसाला  फिल्में करते रहना नहीं चाहते थे। 15 साल की उम्र में उन्हें पृथ्वी थियेटर में पिता से जो ट्रेनिंग मिली थी,उसके इस्तेमाल का अब सबसे माकूल वक्त था। उन्हें याद था कि थियेटर में उन्हें लाईट लगाने से लेकर सभी छोटे मोटे काम करने पड़ते थे।
शशि कपूर प्रोडक्शन का नट बोल्ट जानते थे। 1976 में उन्होंने अपनी खुद की प्रोडक्शन कंपनी खोली, फिल्मवालास। ‘ए फ्लाइट ऑफ द पिजन ‘की छोटी सी कहानी और नए निर्देशक श्याम बेनेगल को लेकर ‘जुनून’ बनाई गई। श्याम बेनेगल बताते हैं- ” शशि से बेहतर प्रोड्यूसर कोई हो ही नहीं सकता। वो कैमरे के पीछे से फिल्में देखते थे।

वो सिर्फ पैसा नहीं लगाते थे। वो सब जानते थे । वो सबसे पहले आते,सबसे बाद में जाते। एक बार शशि ने किसी को सेट पर सिगरेट पीते देख लिया था। तब उन्होंने जोरदार तरीके से उस शख्स को डांटा और कहा ” कि क्या ये सिगरेट आप स्टेज पर पी सकते हैं। ये सेट हमारे लिए मंदिर की तरह है।

नये सिनेमा के लिए वो जोखिम लेने को तैयार रहते थे। अपर्णा सेन को बतौर निर्देशक पहला मौका शशि कपूर ने ही दिया। अपर्णा ने खुद की लिखी 36 चौरंगी लेन सत्यजीत रे को सुनाई। सत्यजीत रे को भरोसा था कि शशि कपूर ही इस फिल्म को प्रोड्यूस करने का रिस्क ले सकते हैं। उन्होंने अपर्णा से कहा था कि शशि ने जुनून फिल्म बनाई है, वो इसे भी बना सकते हैं। शशि ने अपर्णा की फिल्म को ना सिर्फ हरी झंडी दी बल्कि बतौर प्रोड्यूसर कोई कसर नहीं छोड़ी, फिल्म की शूटिंग कोलकाता में होती थी और मुंबई से सारी यूनिट कोलकाता जाती थी। ये सब बहुत महंगा था। फिल्म के प्रोडक्शन के लिए उन्हें पनवेल में अपना एक प्लॉट तक बेचना पड़ा।
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बाद में  फिल्म ने कई पुरुस्कार जीते। अपर्णा को बेस्ट डायरेक्टर का नेशनल अवॉर्ड भी मिला। लेकिन बतौर प्रोड्यूसर शशि के हाथ खाली रहे। कलयुग भी ऐसी एक फिल्म थी। फिल्मवालास की फिल्में क्रिटिकल अक्लेम तो ले रही थी,लेकिन पैसा बिल्कुल नहीं कमा रही थी।
शशि कपूर के दोस्त अनिल धारकर बताते हैं कि शशि कपूर ये बात जानते थे कि कुछ निर्देशक उनका नाजायज फायदा उठाते हैं । उन्होंने एक बार जिक्र किया था कि जब ये लोग  एफएफसी के लिए फिल्में बनाते हैं, तो वो कम बजट में बना लेते हैं,लेकिन मेरे साथ हाथ खुला कर देते हैं। लेकिन वो फिर भी अच्छे प्रोजेक्ट्स की हौंसला अफजाई से पीछे नहीं हटते थे।
दरअसल वो उस न्यू वेव सिनेमा को मंच मुहैया करवा रहे थे,जिसे सिर्फ उस वक्त सिर्फ एनएफडीसी या एफएफसी का ही मुंह देखा करता था।

शशि जिस तरह की फिल्में  बना रहे थे वो पैशन प्रोजेक्ट थीं।  उनके परिवारवाले मानते हैं कि वो घाटा होने की हद तक पैशन के पीछे जाते थे। शबाना बताती हैं कि वो स्टार्स ही नहीं मद्धम दर्जे के कलाकारों का भी ध्यान रखते थे । कहते हैं कि जुनून की शूटिंग के दौरान सभी छोटे बड़े कलाकार लखनऊ के क्लार्क अवध होटल में दो महीने तक रुके थे । वो पूरी टीम को खुश रखते थे, लेकिन घाटे के बाद भी नए लोगों,नईं कहानियों की कद्र करना उनकी शख्सियत में था।

इमरजेंसी के बाद 1980 में रमेश शर्मा नाम का एक नौजवान चौथे खंभे और पॉलिटिक्स पर फिल्म बनाना चाहता था न्यू दिल्ली टाईम्स। गुलजार स्क्रिप्ट लिखने और एक दोस्त फायनेंस के लिए 25 लाख देने के लिए तैयार हो गया था। प्रोड्यूसर की एक शर्त थी कि फिल्म में विकास पांडे नाम के एडिटर के रोल में  कोई बड़ा स्टार होना चाहिए।  रमेश ने डरते डरते  ताज होटल के गोल्डन ड्रैगन रेस्टोरेंट में शशि कपूर को दिल की बात बताई। 80 के दशक तक शशि कपूर हर तरह के सिनेमा का बड़ा नाम जो थे। रमेश कहानी सुना ही रहे थे कि शशि कपूर को जीतेंद्र आते दिख गए और उन्होंने बातों बातों में रमेश को बतौर अपनी नई फिल्म का निर्देशक कह जीतेंद्र से मिलवा भी दिया। कहते हैं कि शशि ने ये फिल्म महज 101 रुपये में साइन की थी । फिल्म ने रमेश शर्मा को बेस्ट निर्देशक और शशि को बेस्ट एक्टर का नेशनल अवॉर्ड दिलवाया।
लेकिन ये पुरस्कार पत्नी जेनिफर की मौत के बाद आया था,उन्होंने उस वक्त कहा था ”अच्छा होता कि ये अवॉर्ड जेनिफर को मिलता छत्तीस चौरंगी लेन के लिए आज मैं इसे उसके साथ शेयर नहीं कर पा रहा ,इसका क्या महत्व है।  ये विडंबना ही है कि शशि के काम को पहचान पत्नी जेनिफर की मौत के बाद ही हुई।
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17 की उम्र में जेनिफर से प्रेम और 20 की उम्र में शादी। जेनिफर शशि की शख्सियत का हिस्सा बन गईं थीं। कहते है कि शशि के प्रोफेशन फैसलों में कहीं ना कहीं  जेनिफर की ही छाप दिखाई पड़ती थी। 1983 में पत्नी की मौत ने शशि को तोड़ दिया था। पत्नी जेनिफर केंडेल के पिता और शेक्सपियराना थियेटर कंपनी के मालिक Geoffery Kendel ने अपनी आत्मकथा द शेक्सपियरवालाह में लिखा है कि एक दफा एक थियेटर मैनेजमेंट कंपनी ने पृथ्वी थियेटर और शेक्सपियाराना दोनों के लिए डबल बुकिंग कर दी थी। उसी दौरान परफॉरेमेंस के दौरान शशि ने जेनिफर को देखा था।
अगले दिन वो दोनों एक चाइनीज़ रेस्टोरेंट में मिले और उस दिन के बाद से उन दोनों को सिर्फ मौत ने ही अलग किय़ा।  जेनिफर की बीमारी और मौत ने शशि कपूर की शख्सियत का एक हिस्सा अलग हो गया। वो हिस्सा जो खिलंदड़ा था,जीवंत था। रिस्क लेता था। उनके परिवार वाले और करीबियों ने एक अकेले शख्स के तौर पर तब्दील होते हुए देखा था।
जेनिफर की मौत के बाद परिवार अपने गोवा वाले घर पर लौटा था। ये घर जेनिफर को बहुत पसंद था। अच्छे दिनों में परिवार यहीं छुट्टियां मनाया करता था। कहा जाता है कि शशि कपूर एक दिन बोट निकाल कर समंदर के बीचों बीच चले गए। और संमदर के उस शांत कोने में वो फूट-फूट कर रोए। पत्नी की मौत के बाद वो पहली बार ऐसे फूट फूट कर रोए थे।
जेम्स आइवरी 2006 में इस्माइल की मौत के बाद जब भारत आए तो शशि कपूर से मिले थे। उनका कहना है कि वो शशि में वो हमेशा दिखने वाला नौजवान ढूंढ रहे थे ,जो कभी बूढ़ा नहीं होता था। उम्र को चकमा देने में कामयाब रहे इस स्टार,इस शख्स को बुढ़ापे ने आखिरकार हरा दिया था।  चमकीली आंखों  और खूबसूरत मुस्कुराहटों वाला वो शख्स अब कहीं नहीं था।  अब शायद उनकी फिल्में और उनसे जुड़ा वो नॉस्टेलजिया ही बचा था जिसे देख सिलसिला का वो डायलॉग जहन में गूंजता है।

हम जहां  जहां से गुजरते हैं,जलवे दिखलाते हैं

दोस्त तो क्या दुश्मन भी याद रखते हैं

इसीलिए जब पिछले दिनो जेम्स आइवरी अपनी ऑस्कर स्पीच में कहते हैं कि पहला प्यार एक ऐसी भावना है,जो आपको खुश रखे या नाखुश। आप उसमें डूब जाते हैं। तो ना जाने क्यों शशि कपूर की ज़िंदगी सामने आ जाती है। जेनिफर को खोने के बाद वो खुद को खोते चले गए।

सोर्स – Shashi Kapoor
The Householder,the Star
Writer-Aseem Chhabra