हिंदुस्तानियों की मिली हार के बाद शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने अपना क़िला छोड़कर उस समय दिल्ली शहर के बाहर हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की सराय के पास मौजूद हुमायूं के मकबरे में पनाह ली। दिल्ली में हिन्दुस्तानी सेना के सेनापति जनरल बख़्त ख़ान ने लाल क़िला छोड़ने से पहले बादशाह को अपने साथ चलने के लिए कहा था।
बख़्त ख़ान ने बादशाह से कहा था, “हालांकि ब्रितानियों ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया है लेकिन हिन्दुस्तानी सेना के लिए ये उतना बड़ा सदमा नहीं है क्योंकि इस वक़्त पूरा हिन्दुस्तान अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उठ खड़ा हुआ है और हर कोई रहनुमायी के लिए आपकी तरफ़ देख रहा है। आप मेरे साथ पहाड़ों की तरफ़ चलें, वहां से लड़ाई जारी रखी जा सकती है। वहां अंग्रेज़ों के लिए हमारा मुक़ाबला करना संभव नहीं होगा।”
बहादुर शाह ज़फ़र को बख़्त ख़ान की बात सही लगी। उन्होंने ख़ान को अगले दिन हुमायूं के मकबरे पर मिलने के लिए कहा। पर अंग्रेज़ों के मुख़बिर मिर्ज़ा इलाही बख्स और मुंशी रज्जब अली ने उन दोनों की बातचीत की ये ख़बर अंग्रेजों तक पहुंचा दी और धोखे से बादशाह को दिल्ली में रुकने के लिए मना लिया। नतीजतन, बादशाह को हडसन ने गिरफ्तार कर लिया, उनपर मुकदमा चलाया गया और सज़ा के तौर पर उन्हें जिला वतन कर रंगून भेज दिया गया।
मुक़दमे के दौरान बहादुरशाह ज़फ़र के सामने थाल लाया गया। हडसन ने तश्त पर से ग़िलाफ़ हटाया। कोई और होता तो शायद ग़श खा जाता या नज़र फेर लेता। लेकिन बहादुर शाह ज़फर ने ऐसा कुछ नहीं किया। थाल मे रखे जवान बेटों के कटे सिरों को इत्मीनान से देखा। हडसन से मुख़ातिब हुए और कहा :- ‘वल्लाह… नस्ले ‘तैमूर’ के चश्मो चराग़ मैदाने जंग से इसी तरह सुर्ख़रू होकर अपने बाप के सामने आते हैं। हडसन तुम हार गए और हिंदुस्तान जीत गया।’
ये बात क़ाबिल ए ज़िक्र है के बहादुर शाह ज़फ़र अपने सलतनत के आख़री दिन तक ख़ुद को नस्ल ए तैमूर यानी तैमूर वंश का मान रहे थे। ज्ञात रहे के लाला क़िला छोड़ कर बहादुर शाह ज़फ़र सीधे हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पहुंचे थे और वहां उनकी मुलाक़ात ख़्वाजा शाह ग़ुलाम हसन से हुई थी; जिन्हे बहादुर शाह ज़फ़र ने बताया, “मुझे कुछ समय पहले ही लग गया था कि मैं गौरवशाली तैमूर वंश का आख़री बादशाह हूं। अब कोई और हाकिम होगा। उसका क़ानून चलेगा। मुझे किसी बात का पछतावा नहीं है, आख़िर हमने भी किसी और को हटाकर गद्दी पायी थी।”
बादशाह ने उन्हे आगे बताया कि जब तैमूर ने क़ुस्तुनतूनिया (तुर्की का एक ऐतिहासिक शहर इस्तांबोल) पर हमला किया, तब उन्होंने वहाँ के पुराने सुल्तान बा यज़ीद यलदरम से पैगंबर मोहम्मद (स) के ‘दाढ़ी का बाल’ हासिल किया था। जो अब तक मुग़ल बादशाहों के पास महफ़ूज़ था लेकिन “अब आसमान के नीचे या ज़मीन के ऊपर मेरे लिए कोई जगह नहीं बची है इसलिए मैं इस अमानत को आपके हवाले कर रहा हूं ताकि यह महफ़ूज़ रहें।” ख़्वाजा शाह ग़ुलाम हसन ने ज़फर से वह बाल ले लिए और उन्हें दरगाह की तिजोरी में रख दिया।
एक दिन से भूखे बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र यहां केवल पैगम्बर मोहम्मद(स) के पवित्र अवशेष सौंपने और आशीर्वाद लेने के लिए आए थे; जिसके बाद बादशाह हुमायूं के मक़बरे मे चले गए।
मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के क़ैद हो जाने के बाद अंग्रेज़ों ने दिल्ली को ख़ाली करवा लिया था। अंग्रेज़ों के सिवाय यहां कोई नहीं था। इसके 15 दिन बाद हिंदुओं को दिल्ली लौटने और रहने की इजाज़त दे दी गई। दो महीने बाद मुसलमानों को भी दिल्ली आने की अनुमति मिली, लेकिन इसमें बड़ी शर्त थी। इस शर्त के मुताबिक, मुसलमानों को दरोग़ा से परमिट लेना था। इसके लिए दो आने का टैक्स हर महीने देना पड़ता था। थानाक्षेत्र से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी। रक़म न देने पर दरोग़ा के आदेश पर किसी भी इंसान को दिल्ली के बाहर धकेल दिया जाता था। वहीं, हिंदुओं को इस परमिट की जरूरत नहीं होती थी। कुछ ऐसा ही मिर्ज़ा ग़ालिब के साथ भी हुआ। वो दिल्ली में हर महीने दो आने अंग्रेजों को देते थे। पुस्तक `गालिब के खत किताब` में गालिब ने इस परेशानी का जिक्र का किया है।
मिर्ज़ा ग़ालिब ने जुलाई 1858 को हकीम गुलाम नजफ़ ख़ां को ख़त लिखा था। दूसरा ख़त फ़रवरी 1859 को मीर मेहंदी हुसैन नज़रू शायर को लिखा था। दोनों ख़त में ग़ालिब ने कहा है, `हफ़्तों घर से बाहर नहीं निकला हूं, क्योंकि दो आने का टिकट नहीं ख़रीद सका। घर से निकलूंगा तो दारोग़ा पकड़ ले जाएगा।` ग़ालिब ने दिल्ली में 1857 की क्रांति देखी। मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र का ज़वाल देखा। अंग्रेज़ों का उत्थान और देश की जनता पर उनके ज़ुल्म को भी गालिब ने अपनी आंखों से देखा था।
वो लिखते हैं :-
अल्लाह! अल्लाह!
दिल्ली न रही, छावनी है,
ना क़िला, ना शहर, ना बाज़ार, ना नहर,
क़िस्सा मुख़्तसर, सहरा सहरा हो गया।
उमर अशरफ
( हेरिटेज टाइम्स के संपादक हैं और सोशल मीडिया पर विभिन्न मुद्दों पर लिखते हैं)