व्यंग – एक बोतल और क़सम पर बिकता लोकतंत्र

Share

रामलाल अपने दरवाजे पर निश्चिन्त बैठा हुआ था. उतना ही निश्चिन्त जितना कि दोनों हाथों से तंबाकू बनाते हुए एक आम भारतीय हो सकता है.
चुनाव से पहले भारत में एक खास प्रकार का रोजगार पैदा होता है. ये रोजगार सरकार पैदा नहीं करती. ये उनकी जरुरत बन जाती है. इसे जनता अपनी चालाकी से पैदा करती है. जिसमें आम लोगों को कमाई में पैसे मिलते हैं और राजनीतिक पार्टियों को वोट का भरोसा.
और भरोसा देने की कला में रामलाल माहिर था. हर तीसरे दिन कोई न कोई नेताजी जनता की भलाई के लिए उसके दरवाजे पर वोट मांगने आ जाते थे.
उस दिन भी जैसे ही रामलाल ने अपने निचले होंठ के अंदर तंबाकू दबाया कि कोई नेताजी पधार चुके थे.
‘इस बार वोट किसको दे रहे हैं महाराज. देखिए वोट बहुत कीमती होता है. इसको बर्बाद मत कीजिएगा. हम ही को दीजिएगा. आप ही के क्षेत्र के हैं और कसम से कहते हैं अगर जीत गए तो इस सड़क को एयरपोर्ट बना देंगे.’ नेताजी से एकदम तल्खी के साथ कहा.
रामलाल ने भी पिछले चुनाव के समय में ही महाराज सुना था. इसबार भी सुनकर उसने सबसे पहले प्रजातंत्र की मन ही मन जय लगाई फिर कहा- ‘ देखिए नेताजी हम क्लियर कट बात करेंगे. कल एक नया नया लड़का आया था तो उसको हम सीधे लौटा दिए . सोचे ये जवान खून क्या प्रजातंत्र जानेंगे. इसको समझने के लिए झुर्रियां लटकानी पड़ती है. हम भी आप ही का इंतेज़ार कर रहे थे कि अपने क्षेत्र के हैं तो सीधे बात करेंगे’
नेताजी ने इसबार रामलाल के आगे कुछ बोलने से पहले ही पांच सौ का नोट उसके मुट्ठी में थमा दिया और कहा-‘ बात सब छोड़िए. ये किराया समझकर रख लीजिए. बूथ तक आने में तकलीफ नहीं होगी आपको’
रामलाल ने आवाज को शांत रखते हुए ही कहा-‘ और बोतल कौन देगा नेताजी?’ ‘अरे भाई, ये बिहार है. बोतल बंद हो गया है समझिए बात को. नहीं तो हम बोलने का मौका नहीं देते.’ नेताजी ने जवाब दिया.
रामलाल पांच साल में एकबार तमतमाता था. आज वही दिन था. उसने आवाज को तेज करते हुए कहा-‘ बिहार है तो क्या यहाँ चुनाव नहीं होगा. देखिए नेताजी..आपके पिछले चुनाव के वादे अभी तक हमारे कानों में गूंज रहे हैं. उसको भुलाए बिना हम आपको वोट नहीं दे सकते हैं. और बिना बोतल के हम भूल नहीं सकते. अब आगे आपकी मर्जी.
नेताजी भी प्रजातंत्र के पक्के खिलाड़ी थे. वो भी अब खेल में खुलकर आ गए थे. बोले-‘ ठीक है कर देंगे इंतज़ाम. लेकिन वोट हम ही को देंगे इसका क्या भरोसा?’
रामलाल ने इसबार अपने अनुभव से काम लेते हुए कहा-‘ आँगन में दो बच्चे खेल रहे हैं. बरामदे पर बूढ़ी माँ सोई है. बताइए किसकी सर की कसम खाएं. लोकतंत्र पर आपका भरोसा बना रहे इसके लिए हम कसम खाने को तैयार हैं.
नेताजी ने रामलाल कसम खाने से मना किया क्योंकि कसमों की सच्चाई उन्हें भी पता थी.
फिर भी रामलाल ने कसम खाकर चुनाव से पहले कसमों से भरे आसमान से एक और कसम को तैरने के लिए छोड़ दिया.
नेताजी ने जाते हुए पूछा-‘ तो अब मैं वोट पक्का समझू न?’
‘अरे पूरा पक्का है. वैसे भी आपको ही वोट देते. लेकिन इस रोड को एयरपोर्ट बनाने का कसम खाएं हैं आप’ रामलाल ने मंद मुस्कान के साथ कटाक्ष किया.
नेताजी ने थोड़ी दूर जाकर हाथ हिलाया और कहा-‘ भाई रामलाल, हम ये भी कसम खाते हैं कि अगले चुनाव में भी कसमों को भुलने के लिए तुमको एक बोतल मिल जाएगी.
और ये हर छोटी बात पर कसम मत खाया करो. इसी पर तुम्हारा लोकतंत्र टिका है. हर पांच साल में एक बार व्यायाम कर हमेशा तंदुरुस्त रहने का दावा करने वाला तुम्हारा प्रजातंत्र इन्हीं कसमों पर खड़ा है. जिस दिन ये कसम ख़त्म हो जाएगा. उसके बाद लोकतंत्र को किसकी उम्मीद पर जिन्दा रखोगे?
कसम है तो लोकतंत्र है.’