इतिहासकार जेएन हेज़ की किताब ‘Epidemics and Pandemics: Their Impacts on Human History’ पढ़ रहा हूँ। मन बेहद भारी है। हेज़ कहता है कि पश्चिम ने 1918 के इनफ़्लुएंज़ा में हुई मौतों को इसलिए भुला दिया क्योंकि सबसे ज़्यादा भारत और अफ़्रीका में मौतें हुई थी। लेकिन सच यह भी है कि उस वक़्त की तरह आज भी हम सवर्ण एलिट मध्यमवर्गीय सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी जान बचाना चाहते हैं।
देश में कोरोना पर बात हो रही है लेकिन उस भुखमरी पर बात नही हो रही जो कोरोना से ज़्यादा तेज़ गति से ग़रीबों वंचितों को मार रही है। दो नम्बर की कमाई करके बच्चों को कोटा पढ़ने भेजने वाले परिजनों के लिए बसे भेजी जा रही है,ग़रीब की 8 साल की बेटी सैकड़ों किमी पैदल चलकर सड़क पर गिरकर मर जा रही।
यह तय है कि लॉकडाउन हटने के बाद का समाज और ज़्यादा विभाजित होगा। उद्योगों की हालत ख़स्ता होगी और खेती किसानी के ढंग बदलेंगे। निस्सन्देह मज़दूर अपने काम की ज़्यादा क़ीमत माँगेगा जैसा कि हर महामारी के दौरान या बाद में होता रहा है। यह देखना है कि एक धर्मोन्माद के नाम पर सत्ता में आई सरकार इन बेहद कठिन चुनौतियों से कैसे निपटती है? याद रखिएगा महामारियाँ माफ़ नही करती।