सलीम अख्तर सिद्दीकी – जरा याद कीजिए आपने यह कब देखा था कि कोई रिपोर्टर सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष के बेटे के बारे में कोई खबर लिखे और रिपोर्टर पर 100 करोड़ का मानहानि का मुकदमा दायर हो जाए? कितने लोगों को यह पता था कि इसी रिपोर्टर रोहिणी सिंह ने सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के बीच होने वाली डील का खुलासा किया था? अगर ‘द वायर’ इसका जिक्र नहीं करता कि वाड्रा और डीएलएफ के बीच होने वाली डील की खबर भी रोहिणी सिंह ने लिखी थी, तो अब भी बहुत लोगों को पता नहीं चल पाता। हां, अगर वाड्रा ने भी रोहिणी सिंह पर मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया होता तो जरूर पता होता।
इस अंतर को आप कैसे देखते हैं? एक सरकार रिपोर्टर पर भवें टेढ़ी नहीं करती, दूसरी फौरन से पेश्तर मानहानि का मुकदमा दायर कर देती है। इस बात का इंतजार किए बगैर कि खबर में लिखे गए तथ्य गलत हैं या सही। मानहानि का मुकदमा दायर करना तब सही होता, जब यह साबित हो जाता कि रिपोर्ट में जो तथ्य दिए गए हैं, वे गलत हैं और दुर्भावनाश दिए गए हैं?
क्या इससे आभास नहीं होता कि हम अघोषित आपातकाल में जी रहे हैं? आप यह भी सोचिए कि कब कोई एक चैनल और उसका पत्रकार सरकार की तानाशाही सरीखी हरकतों को सामने लाता है, उसकी जनविरोधी नीतियों का पर्दाफाश करता है और देखते ही देखते प्रतिरोध का पर्याय बन जाता है? यकीनन कभी नहीं देखा होगा।
इसकी वजह है। देश का अधिकांश मीडिया कभी किसी सत्ताधारी पार्टी का प्रवक्ता नहीं बना। लेकिन आज बना हुआ है। जब घटाटोप अंधेरा हो तो ऐसे में एक टिमटिमाता दीया ही बहुत लगता है। आज जब देश का अधिकांश मीडिया 2014 के बाद ‘गोदी मीडिया’ में तब्दील हो गया, तब एनडीटीवी और उसका पत्रकार रवीश कुमार एक ऐसा ही दीया साबित हुआ, जिसने प्रतिरोध का दीया जलाया और घटाटोप अंधेरे में टिमटिमाने लगा।
रवीश कुमार या एनडीटीवी कोई तीसमारखां नहीं हैं। जब यूपीए-2 सरकार के घोटाले दर घोटाले खुल रहे थे, तब देश का तमाम मीडिया उन्हें उजागर करने में लगा हुआ था। सरकार से सवाल कर रहा था, भ्रष्ट नेताओं को कठघरे में खड़ा कर रहा था। इनमें एनडीटीवी और रवीश कुमार भी शामिल थे। वे भी उस मीडिया में शामिल थे, जो घोटालों को उजागर कर रहा था। इसलिए उसकी अलग पहचान नहीं थी।
2014 के बाद जब मोदी सत्ता में आए तो परिदृश्य बदल गया। सरकार से सवाल पूछना गुनाह हो गया। ‘गोदी मीडिया’ सरकार की चापलूसी में लग गया। ऐसे में कोई तो होता, जो सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत दिखाता। एनडीटीवी और रवीश कुमार ने यह हिम्मत दिखाई तो वे ‘गोदी मीडिया’ से अलग दिखने लगे। ऐसा नहीं है कि रवीश कुमार कोई क्रांतिकारी काम कर रहे हैं। वे सिर्फ पत्रकार होने का धर्म निभा रहे हैं। हर पत्रकार को यही करना चाहिए। हमने सीखा है कि पत्रकार को कभी सत्ता पक्ष के साथ खड़ा नहीं होना चाहिए। उसका पक्ष जनता के साथ होना चाहिए।
लेकिन जब पत्रकारिता से ज्यादा सरकार से कुछ हासिल करना हो, राज्यसभा में जाने की जुगत लगानी हो, चैनल के मालिक सत्ताधारी पार्टी के सांसद हों तो ऐसे में उनसे पत्रकारिता की क्या उम्मीद की जा सकती है? सवाल यह भी उठता है कि आखिर रवीश कुमार ही क्यों प्रतिरोध के नायक बने हुए हैं? क्या कोई दूसरा पत्रकार ऐसा नहीं कर रहा है? कर रहे हैं, लेकिन उनके पास वह बैनर नहीं है, जो एनडीटीवी के माध्यम से रवीश कुमार को मिला हुआ है।
‘द वायर’ या उस जैसी अन्य वेबसाइटों की सीमाएं हैं। लाख कहें कि डिजिटल मीडिया बहुत ताकतवर हो गया है, लेकिन तल्ख हकीकत यही है कि उसकी पहुंच अभी भी उस निचले तबके तक नहीं है, जो आज की तारीख में सबसे ज्यादा त्रस्त है। टीवी का माध्यम अभी डिजिटल मीडिया के मुकाबले ज्यादा विस्तृत है। उसकी पहुंच उन तक है, जो किन्हीं कारणों से डिजिटल मीडिया की पहुंच से दूर हैं।
रवीश कुमार जिस तरह से सीधे दर्शकों से रूबरू होते हैं, वे आम आदमी को प्रभावित करता है। उन्हें लगता है कि कोई है, जो उनके दर्द और उनकी समस्याओं से वाकिफ है। ऐसा यूं ही नहीं है कि अपनी समस्याओं को लेकर जंतर मंतर पर धरना प्रदर्शन करने वाले अपनी समस्याओं को देश के सामने लाने के लिए रवीश से संपर्क करते हैं। जिस तरह के मुद्दों को रवीश और एनडीटीवी उठाते हैं, उन्हें उठाने हिम्मत आज के गोदी मीडिया में नहीं है। हिम्मत दिखाने के लिए सरकार से सवाल पूछने पड़ते हैं, सरकार की नाराजगी मोल लेनी पड़ती है, रोहिणी सिंह जैसी हिम्मत दिखानी पड़ती है। जब मीडिया जनता के सरोकारों को भूलकर सत्ता का महिमामंडन करने लगे, तो वह भांड हो जाता है। रवीश होना बहुत जोखिम का काम है। सब यह जोखिम नहीं उठा सकते, इसलिए ‘गोदी मीडिया’ फल फूल रहा है।
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