राफेल मामले में सोशल मीडिया में घूम रहे ऑडियो टेप जिसमे यह कहा गया है कि राफेल से जुड़ी फाइल गोवा के मुख्यमंत्री और पूर्व रक्षामंत्री पर्रिकर के शयन कक्ष में है, अब लगभग देश के हर कोने और भाषा मे अनुदित हो कर पहुंच गयी। राजनीतिक दलों और नेताओं की साख इतनी गिर चुकी है कि इसे सभी सच और प्रमाणित मांग रहे हैं। पर सत्तारूढ़ दल और सरकार, इस टेप की प्रमाणिकता पर सन्देह उठा रहे है और हो सकता है उनका यह सन्देह सच हो। सरकार को चाहिये कि वह इस टेप की प्रमाणिकता की जांच कराए। जब तक जांच नहीं होगी और सच सामने नहीं आएगा राफेल के मामले में और भी भ्रम फैलता जायेगा।
राफेल का विरोध राजनीतिक कारणों से भी हो सकता है किया जा रहा हो। यह कोई अजूबा नहीं है। सरकार के समर्थन और विरोध का उद्देश्य ही राजनीति होती है। सरकार खुद ही राजनीति का एक परिणाम है। सरकार को चाहिये कि वह एक एक सन्देह के विंदु की जांच करा के जनता के सामने रख दे। सरकार और सत्तारूढ़ दल का यह दावा क़ि, यह सरकार पिछली सरकार से ईमानदार है तो वह ईमानदारी दिखनी भी चाहिये।
यूपीए 2 के अपदस्थ होने का एक बड़ा कारण भ्रष्टाचार ही था। तब 2G, सीडब्ल्यूजी, कोयला,वाड्रा भूमि अधिग्रहण घोटाला आदि बड़े घोटाले थे। उन सब की जांच हुई। जेपीसी बैठी। मुक़दमा भी चला। पर अब राफेल मामले में सरकार ऐसा नहीं कर रही है। वह इसे सुरक्षा कारणों से जोड़ रही है। जबकि बोफोर्स और ऑगस्टा वेस्टलैंड मामले की जांच हुई। यह अलग बात है कि बोफ़ोर्स मामले में कुछ नहीं निकला। ऑगस्टा मामले में सरकार को एक बड़ी सफलता मिली है कि क्रिश्चयन मिशेल सरकार को मिल गया है। उससे पूछताछ चल रही है। जब इन सब मामलों की जांच हो सकती है तो राफेल को ही क्यों इतना पवित्र माना जा रहा है कि उसकी जांच नहीं हो सकती है ? जांच से भागना, और सन्देह को और प्रबल बनाता है।
इस मामले में एसआईटी गठित कर के जांच कराने के लिये पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट प्रशान्त भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। उसके जवाब में भी सरकार ने झूठा हलफनामा अदालत में पेश किया कि कीमतों के बारे में सीएजी महालेखा परीक्षक ने जांच कर लिया है और उसकी रपट को संसद की लोक लेखा समिति ने देख भी लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मिथ्या तथ्य पर दिए गए हलफनामा और सुप्रीम कोर्ट के क्षेत्राधिकार के आधार पर यह याचिका रद्द कर दी।
पर सत्य तो यह है कि अभी न तो सीएजी ने ऑडिट ही की है और न ही संसद की लोकलेखा समिति पीएसी को कुछ मालूम है। सरकार ने कहा कि यह टाइपोत्रुटि है। पर हलफनामे को ध्यान से पढ़े तो यह कोई टाइपोत्रुटि नहीं है बल्कि जानबूझकर किया गया है। सरकार ने इस झूठे हलफनामे के लिये भी कोई जांच नहीं करायी। और अगर करायी गयी तो क्या इसके लिये किसी अफसर को दोषी पाया गया और उसे उक्त दोष के लिये दंडित किया गया, यह भी नहीं पता है। अगर सब कुछ गुपचुप कर दिया जा रहा है तो इससे यह स्पष्ट सन्देह होता है कि सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए जवाब मे भी कुछ न कुछ गोलमाल है जिससे यह मामला और संदेहास्पद हो जाता है। अब इन्ही याचिकाकर्ताओं ने एक पुनरीक्षण याचिका भी दायर की है। वह अगर निरस्त भी हो जाती है तो भी संदेह उतपन्न करने वाले विंदु अंकुश की तरह ज़ीवित ही रहेंगे
इस सौदे में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका प्रधानमंत्री नरेंद मोदी की ही है। इसमे न रक्षा मंत्री शामिल हैं और न कोई और। 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री फ्रांस जाते हैं और 126 विमानों का सौदा रद्द होता है, नया सौदा 36 विमानों का होता है, तकनीकी हस्तांतरण का प्राविधान रद्द होता है और उसके स्थान पर सभी विमान उड़ने योग्य आने की बात तय होती है, विमान की कीमत पहले से तीनगुनी हो जाती है, एचएएल, जिसे दसाल्ट के सीईओ ने 25 मार्च 2015 को बैंगलुरू में समारोहपूर्वक यह घोषित किया था कि अब एचएएल के साथ बस करार पर दस्तखत होना बाकी है, अचानक इस सौदे से हट जाता है और अनिल अंबानी जिनकी कंपनी केवल पन्द्रह दिन पहले गठित है उसे दसाल्ट अपना ऑफसेट पार्टनर चुन लेती है। यह तर्क सही है कि दसाल्ट को अपनी मर्ज़ी से ऑफसेट पार्टनर चुनने का अधिकार है। पर डसाल्ट जैसी बडी और स्थापित कंपनी जब एविएशन के क्षेत्र में बिल्कुल नयी, बिना ज़मीन की कंपनी को जो महज कुछ हफ्ते पहले ही बनी है चुनती है तो यह निर्णय और भी अधिक संदेहास्पद हो जाता है।
ऊपर से फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का बयान कि अनिल अंबानी का नाम भारत सरकार ने सुझाया था, और दसाल्ट के सीईओ एरिक ट्रेपियर का यह झूठ कि रिलायंस के साथ तो 2012 से ही बात चल रही थी केवल सन्देह को ही जन्म देता है। ओलांद ने आज तक अपने बयान का खंडन नहीं किया है। यह अलग बात है कि हम इसे नजरअंदाज कर जाएं। सरकार को चाहिये कि वह इस मामले में जेपीसी गठन कर के जांच कराए और जो भी सन्देह हों उनका निराकरण करें। जितना ही सरकार इस मामले की जांच से भागेगी उतनी ही वह दोषी समझी जाएगी है। ऐसी धारणा जनता में बन रही है। आज की तारीख में देश मे कोई भी राजनेता या राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जिसे अभ्रष्टनीय ( incortuptible ) माना जा सके। नरेंद मोदी और भाजपा भी अपवाद नहीं है। साफ हैं तो साफ दिखिये।