क्या आप किसी ऐसे लेखक के बारे में जानते हैं जिसने “उर्दू” में लिखना शुरू किया हो,लेकिन वो लीजेंड बना “हिंदी” राइटिंग में, एक ऐसा लेखक जिसने गांधी जी के आंदोलन से रोमांचित हो कर सरकारी नौकरी छोड़ दी थी और अंग्रेज़ों के खिलाफ आज़ादी के आंदोलन में उतर गया हो।
यही नहीं जब उस लेखक ने लिखना शुरू किया तो ऐसा लिखा कि वो अपनी फील्ड का सम्राट कहलाया,और आज भी जब कोई नया नवेला राईटर बनना चाहता है तो हिंदी के विद्वान आज भी उससे कहते हैं कि जाओ “रंगभूमि और कर्मभूमि पढ़ो” ।
मैं बात कर रहा हूँ ज़मीन से जुड़ी कहानियां लिखने वाले और गरीब, मज़दूर और ग्रामीण क्षेत्र की कहानियां लिखने वाले लेखक श्री मुंशी प्रेमचंद जी की..
बनारस में गंगा के किनारे पैदा होने वाला राईटर
आज जब हम “नई वाली हिंदी” सुनते हैं या उससे जुड़े राइटर्स को पढ़ते हैं तो उसमें एक नया टेस्ट गंगा,उसके आस पास के इलाहाबाद और बनारस के शहरों या उससे जुड़े किस्सों का ज़िक्र करते हैं।
ये सब कुछ अब एक ट्रेंड की तरह सामने आया है,लेकिन क्या हम जानते हैं कि हिंदी के लेखन इतिहास के सबसे बड़े नामों में से एक मुंशी प्रेमचंद का जन्म भी बनारस ही में हुआ था।
मुंशी प्रेमचंद का असली नाम “धनपत राय” था,इसी नाम से उन्होंने “उर्दू” में लिखना भी शुरू किया था और गोरखपुर में “सोज़ के वतन” लिखी थी, बाद में वे मुंशी प्रेमचंद के नाम जाने जाने लगे।
उनका जन्म आज ही दिन 31 जुलाई 1880 में वाराणसी(बनारस) के एक छोटे से गांव लमही में हुआ था। मुंशी प्रेमचंद ने साल 1936 में अपना अंतिम उपन्यास “गोदान” लिखा था,इसी वर्ष वो दुनिया को अलविदा कह गए।
इस उपन्यास पर एक फ़िल्म भी बनी थी, उनका ये उपन्यास काफी चर्चित रहा था,ठीक वैसे ही जैसे प्रेमचंद के और बाकी उपन्यास या कहानियां प्रसिद्ध रही हैं।
आपको ये जानकार हैरानी हो रही होगी कि प्रेमचंद हिंदी के लेखक थे, इसी भाषा में वे प्रख्यात हुए, लेकिन उन्होंने हिंदी से पहले उर्दू में लिखने की शुरुआत की थी।
लेकिन ये हैरत अब और आज के वक़्त में होना ही लाज़मी है वरना कौन बता सकता था कि “रघुपति सहाय फ़िराक़” जिन्होंने उर्दू के कई शानदार शेर कहें थे लेकिन वो मुसलमान नहीं थे,मगर खैर ये स्टीरियोटाइप है धीरे धीरे ही खत्म होगा।
गांधी जी से प्रभावित होकर छोड़ दी थी नौकरी।
बचपन मे आप जिस स्कूल में आप पढ़ें हो अगर आपको नौकरी भी उसी स्कूल में मिले तो आपको कैसा लगेगा? और अगर ये नौकरी सरकारी हो तो फिर कहना ही क्या है, ऐसा ही हुआ प्रेमचंद के साथ भी हुआ था।
जिस “रावत पाठशाला” में उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ली थी,वहीं पर उन्होंने शिक्षक के रूप में पहली नौकरी की और बच्चों के पढ़ाने का काम किया। लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।
नौकरी करने ही के दौरान वह बालेमियां मैदान में महात्मा गांधी का भाषण सुनने गए और इस भाषण ने उनकी ज़िंदगी को पूरी तरह से बदल कर रख दिया।
वो गांधी जी से और उनके भाषण से इतने ज़्यादा प्रभावित हुए कि उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत में सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और स्वतंत्र लेखन करने लगे, हां जिसे हम आजकल फ्रीलांसिंग कहते हैं वहीं।
उनके लिखे गए अनमोल काम
मुंशी जी ने सेवा सदन, गोदान, कर्मभूमि, कायाकल्प, मनोरमा, निर्मला, प्रतिज्ञा प्रेमाश्रम, रंगभूमि, वरदान, प्रेमा आदि उनके मशहूर उपन्यास लिखें हैं।
इसके अलावा मंत्र, नशा, शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, आत्माराम, बूढ़ी काकी, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, कफन, उधार की घड़ी, नमक का दरोगा, जुर्माना आदि उनकी बहुत प्रसिद्ध कहानियां हैं, जबकि गबन, बाजार-ए-हुस्न (उर्दू में)।
प्रेमचंद क्यों आज भी अहमियत रखते हैं?
दरअसल प्रेमचंद उस पीढ़ी के लेखक हैं जिन्होंने परिवार,घर और समाज की पीड़ाओं को एक साथ झेला था, और इन सब के बावजूद उनके लिखे हुए को पढ़ कर 100 साल पुराना समाज हमारी आंखों के सामनेआज भी चलने और घूमने लगता है यही असल मायनों में उस समय के लेखकों का कमाल था।
मुंशी प्रेमचंद जैसे लेखकों को पढ़ कर आज भी ये मालूम चलता है कि “लेखन” कितना अहम और ज़रूरी काम है,यही वजह है कि इनकी लेखनी में औरत,बच्चे, गरीब और मज़दूर का दुख साफ झलकता है,जो दुख की असली कहानी बयान करता है ।
हमारी पीढ़ी शायद उस आखिरी पीढ़ी में से एक हो जो मुंशी प्रेमचंद जैसे “ग्रेट” राईटर को पढ़ रहे हैं उनके बारे में लिखने का सौभाग्य हमें मिल रहा है,वरना इस “डिजिटल” दौर में कब राईटर को भुला दिया जाता है पता ही नहीं चलता है।