आन्दोलन को लेकर एक कहावत चलती है कि “मैंने पुलिस की लाठियां खाई है’. पर लाला लाजपत राय ऐसे नेता थे जिन्होंने सच में ब्रिटिश पुलिस की लाठियां खाई और शहीद हो गये थे. उस समय ऐसा भी था जब कहते थे कि अंग्रेजों का कभी सूर्यास्त नहीं होता. अंग्रेजों की तगड़ी धाक थी. लाला जी ने उस समय अंग्रेजों को नाकों चन्ने चबवा दिए थे.
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों के सामने सुस्त हो चुके भारतीय क्रांतिकारियों में लाला जी ने नई जान फूंक दी थी. ये एक इसे नेता थे जिन्होंने अगली पीढ़ी के लीडर्स को तैयार किया. इनसे प्रेरणा लेकर ही भगत सिंह, उधम सिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि देशभक्तों ने अंग्रेजों से लोहा लिया था. ब्रिटिश राज के विरोध के चलते लाला जी को बर्मा की जेल में भी भेजा गया. उसके बाद वह अमेरिका भी गए जहां पढाई करने के बाद भारत आकर गांधी जी के ‘असहयोग आंदोलन’ का हिस्सा भी रहे.
बहुमुखी प्रतिभा के धनी
इनका जन्म पंजाब के मोंगा जिले में 28 जनवरी 1865 अध्यापक के घर हुआ था. लाजपत राय बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा से धनी थे. एक ही जीवन में उन्होंने समाज सेवी, विचारक, बैंकर, पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी की भूमिकाओं को बखूबी निभाया था. लाला लाजपत राय ने पंजाब में पंजाब नेशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कंपनी की स्थापना भी की थी. वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गरम दल के तीन प्रमुख नेताओं लाल-बाल-पाल में से एक थे. स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ जुड़कर उन्होंने पंजाब में आर्य समाज को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई. उन्होंने कुछ समय हरियाणा के रोहतक और हिसार शहरों में वकालत भी की.
गरम दल के नेता
कांग्रेस उस समय दो धडों में बनती हुई थी. नरम और गरम दल. समान्यत नरम दल के नेताओं को ज्यादा विचारशील और बुद्धिमान समझा जाता था. उनका नेतृत्व गांधीजी कर रहे थे. जबकि गरम दल के नेताओं को हठी स्वभाव का समझा जाता था. इनका नेतृत्व राय कर रहे थे. गरम दल में दो अन्य नेता विपिनचंद्र पाल और बाल गंगाधर तिलक थे. इन्हें त्रिमूर्ति कहा जाता था. लालाजी ने अंग्रेजों को लुटेरों की संज्ञा दी. इन्होंने ही भारत में राष्ट्रवाद पर बात करना शुरू किया था.
पंजाब क्षेत्र में अत्यंत लोकप्रिय
वैसे लाला लाजपत राय पूरे देश में ही काफी लोप्री थे परन्तु पंजाब में इनका अलग ही रुतबा था. ब्रिटिश राज के खिलाफ लालाजी की मुखर आवाज को पंजाब में ‘पत्थर की लकीर’ माना जाता था. जनता के मन में उनके प्रति इतना आदर और विश्वास था कि उन्हें पंजाब केसरी यानी पंजाब का शेर कहा जाता था.
साइमन कमीशन का विरोध में हुए शहीद
भारतीय शासन अधिनियम 1919 की कार्यप्रणाली की जांच करने के लिए और प्रशसनिक सुधार हेतु सुझाव देने के लिए 1927 में इस 7 सदस्यीय आयोग का गठन किया गया. इसके सातों सदस्य अंग्रेज थे और अध्यक्ष ‘सर जॉन साइमन’ थे.
और 1928 में साइमन कमीशन भारत आया. भारत में इनका विरोध शुरू हो गया क्योंकि सारे सदस्य अंग्रेज थे और जो सदस्य थे उनका स्वराज की तरफ बिल्कुल भी झुकाव नहीं था. कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में एम.ए. अंसारी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने ‘प्रत्येक स्तर एवं प्रत्येक स्वरूप’ में साइमन कमीशन के बहिष्कार का निर्णय किया. देश में ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ के नारे लगे.
30 अक्टूबर 1928 को इन्होंने लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध आयोजित एक विशाल प्रदर्शन में हिस्सा लिया. इसकी अगुवाई लाला लाजपत राय ही कर रहे थे. कमीशन को काले झंडे दिखाए गये थे. और इससे बौखलाई पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया. लाठी-चार्ज में लाला लाजपत राय बुरी तरह से घायल हो गये और 17 नवंबर 1928 को शहीद हो गये.
मौत का बदला
लाला जी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया.
ठीक एक महीने बाद ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की. लाला जी की मौत का बदला लेने के लिए अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स को 17 दिसंबर 1928 को गोली से उड़ा दिया. बाद में भगत सिंह और उनके साथी गिरफ्तार होकर फांसी पर भी चढ़े. इन तीनों क्रांतिकारियों की मौत ने पूरे देश में एक आन्दोलन की लहर चला दी. जिसे दबा पाना अंग्रेज सरकार के बस की बात नहीं थी.
लाला लाजपत राय जीवनभर ही अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय राष्ट्रवाद को मजबूती से खड़ा करने की कोशिश में जुटे रहे, उनकी कुर्बानी ने इस आंदोलन को और मजूबत कर दिया. लाला जी ने ब्रिटिश लाठियों से घायल होते वक्त कहा था कि “मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी.” और बाद में यह सच भी साबित हुआ. यहीं से अंग्रेजों के शासन के पतन की शुरुआत हुई थी.