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क्या पीरियड के विषय पर बदल रही है भारतीय समाज की सोच?

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पिछले कुछ समय से भारतीय सामाजिक माहौल में कुछ बदलाव आता नज़र आ रहा है पुरानी धारणायें टूट रहीं है शर्म लिहाज़ के पैमाने बदल गए है उन्मुक्तता ,संकीर्ण विचारो के बीच धीरे धीरे अपनी जगह बना रही है ऐसा सिर्फ एक फ़िल्म के कारण हो रहा है जिसका नाम पहली बार सुनकर संदेह हुआ कि वास्तव में ऐसी कोई फ़िल्म बड़े पर्दे पर आने वाली है छोटे छोटे रीति रिवाजों को लेकर संवेदनशील भारतीय समाज इतने बड़े बेशर्मी भरे बदलाव को कैसे स्वीकार करेगा।
 
‘पैडमैन’ नाम से अक्षय कुमार किए फ़िल्म प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय समाज मे खुलेपन को लाने में कई हद तक सफल हो चुकी है जब बड़ी संख्या में साधारण महिलायें स्वयं को इस मुद्दे से जोड़कर बरसो पुराने सामाजिक कानूनों को तोड़ते हुए सार्वजनिक रूप से माहवारी जैसे विषयों पर खुलकर बोलना शुरू लर दें तो इस फ़िल्म द्वारा लाये गए बदलावों पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं रहता।
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भारत महिलाओं को लेकर काफी संवेदनशील राष्ट्र रहा है शिक्षा व्यवस्था से कुछ स्वतंत्र विचार व महिलाओं में आत्मनिर्भता का निर्माण हुआ है परंतु महिलाओं के स्वास्थ से जुड़ी एक प्राकृतिक प्रक्रिया को लेकर घोर शर्मिंदगी का कारण आज तक समझा जाता है वह प्रक्रिया जिसपर सम्पूर्ण मानव अस्तित्व टिक हुआ है जिसके बिना जीवन का उद्भव संभव नही है वहीं उस प्रक्रिया पर मानव समाज खुलकर बात करने को उचित नहीं मानता।
मासिक धर्म महिलाओं में सिर्फ हर महीने होने वाले रक्त प्रवाह से जुड़ा नहीं है यह तेज़ पीड़ा के साथ भावनाओं का वह सैलाब है जो स्त्री को पुरुषों से अलग करता है तो महिला को महिला बनाता है।
माहवारी का आरंभ होना, स्त्री को उसके जननी होने का एहसास दिलाता है, एक नए जीवन को जन्म देने के लिए भावनात्मक और शारीरिक रूप से सशक्त करने का यह साधन स्त्री के जीवन का आधार है।
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जैसे जैसे लोग माहवारी को एक साधारण प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार कर रहे है वैसे वैसे इससे जुड़ी धारणायें टूटती जा रही है नई पीढ़ी में इसको लेकर छुपाने जैसा या शर्मिंदगी जैसा कोई कारण नज़र नही आता।
वह इस मुद्दे पर न सिर्फ खुलकर बातचीत कर रहे है बल्कि एक ऐसे माहौल का निर्माण कर रहे हैं जहाँ हर महिला स्वयं को सहज महसूस कर सके एवं भविष्य के लिए ऐसे मुद्दों पर बातचीत के रास्ते खुले रहे।
सार्वजनिक स्थानों ,सोशल मीडिया पर पीरियड्स से जुड़ी पाबंदियों को तोड़ने का एक अभियान आरम्भ हो चुका है न सिर्फ महिलाएं बल्कि पुरुष भी इस अभियान में योगदान में महत्वपूर्ण निभा रहे ।
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भारत की आधी आबादी से जुड़ा ये मुद्दा बातचीत तक सीमित नही है पीरियड्स की आड़ में महिलाओं पर लगाई जाने वाली कई पाबंदियां भी अब दम तोड़ती नज़र आ रही है कई प्रकार की रोक टोक से जुड़े सवाल बेख़ौफ़ अब उस समाज के सामने रखे जा रहे है जिसने महिलाओं की कमजोरी का सहारा लेते हुए स्वयं को तथाकथित ऊँचाई तक पहुँचाया एक छोटी सी फ़िल्म न जाने कितने बंधनो को ताड़ने ,कितने सवालो के जवाब बनकर आई। इस सोच ने बरसों से पिछड़ी महिलाओं को एक झटके में समाज मे सबसे आगे लेकर खड़ा कर दिया।
महिलाओं से जुड़े इस मुद्दे को शर्म लिहाज के दायरे से बाहर लाकर लोगो को उनके जीवन की वास्तविकता से परिचित कराने वाला ये कदम आवश्य आने वाले समय मे एक अधिक स्वतंत्र व उन्मुक्त समाज के निर्माण का कारण बनेगा।